खालसा प्रगट्यो प्रमात्मन की मौज, खालसा अकाल पुरख की फौज
धर्मरक्षक वीरव्रती खालसा पंथ – अंतिम भाग
नरेंद्र सहगल
खालसा प्रगट्यो प्रमात्मन की मौज, खालसा अकाल पुरख की फौज
ईश्वर की योजना से अस्तित्व में आए ‘खालसा पंथ’ के संस्थापक दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह जी महाराज ने इसे अकाल पुरख की फौज कहकर सम्मानित किया है। यहां पर विचारणीय बिंदु यह है कि अकाल पुरख की फौज का संबंध किसी एक क्षेत्र, भाषा अथवा जाति तक सीमित कैसे हो सकता है? अकाल पुरख की योजना, कृपा और व्यवहार की सीमा तो असीम ही होगी। इसको संपूर्ण मानवता के कल्याण एवं सुरक्षा की सैन्य व्यवस्था कहना सर्वथा उचित होगा।
यदि खालसा पंथ को भारत के संदर्भ में देखा जाए तो भी यह पंथ संपूर्ण भारत के सुरक्षा कवच के रूप में सम्मानित था, है और रहेगा। सनातन मान्यता के अनुसार जब भी धरा पर अधर्म बढ़ने लगता है तभी सृष्टि संचालक परमपिता परमात्मा विभिन्न शरीर धारण करके धर्म की स्थापना हेतु धराधाम पर अवतरित होते हैं। अतः श्रीगुरु गोविंदसिंह द्वारा सृजित खालसा पंथ को इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए कर्मक्षेत्र में सक्रिय मानना चाहिए। यही अंतिम एकमात्र सत्य है।
दशम् गुरु की समस्त गतिविधियां धर्म की स्थापना अर्थात मानवीय संस्कृति की सुरक्षा और आतताइयों के अंत के लिए ही थी। इसलिए उन्होंने रणक्षेत्र को ही अपना मुख्य कर्मक्षेत्र बनाया और इस ईश्वरीय कार्य का प्रारंभ उन्होंने अपने परिवार के बलिदान से ही किया। धर्म और राष्ट्र के लिए सर्वस्व त्याग का ऐसा उच्चकोटि का उदाहरण विश्व इतिहास में कहीं नहीं मिलता।
संपूर्ण विश्व में भारत की सनातन संस्कृति का उद्घोष करने वाले युवा राष्ट्र-संत स्वामी विवेकानंद ने कहा था “अगर आप अपने राष्ट्र का भला चाहते हो तो आप में से प्रत्येक को श्रीगुरु गोविंदसिंह का मार्ग ही अपनाना पड़ेगा। उन्होंने जुल्म के विरुद्ध लड़ते हुए अपना सब कुछ राष्ट्र पर न्योछावर कर दिया, अपने बच्चे मैदान-ए-जंग में भेजे और अपने संगी साथी बलिदान करवाए। सो आइए अपने राष्ट्र के भले के लिए उस शक्तिशाली गुरु की भांति बलिदान के लिए सदैव तत्पर रहें और अपने मतभेद मिटाकर चारों ओर प्रेम की नदी बहा दें।“
उल्लेखनीय है कि घोर अधर्मी राक्षस राजा रावण द्वारा फैलाए जा रहे आतंक का अंत करने के लिए प्रभु ने धनुर्धारी श्रीराम के रूप में अवतार धारण करके रामराज्य की स्थापना की। इसी तरह अधर्म को समाप्त करके धर्म की पुनर्स्थापना के लिए सुदर्शन चक्रधारी योगेश्वर श्रीकृष्ण धराधाम पर अवतरित हुए। इसी ईश्वरीय योजना के अंतर्गत अत्याचारी शासकों से लोहा लेने के लिए दशम् गुरु ने वीरव्रति खालसा पंथ की सिरजना की। उन्होंने अपने जन्म का उदेश्य भी सपष्ट किया।
याही काज धरा हम जनमे।
समझ लेहु साथ सब मनगे।।
धरम चलावन संत उबारन।
दुष्ट सभी को मूल उपारन।।
समस्त भारत में प्रारंभ हुए भक्ति आंदोलन को दसगुरू परंपरा ने उत्तर भारत विशेषतया पंजाब में तूफानी गति दे दी। कहा भी गया है कि “सतगुरु नानक प्रगटिया मिटी धुंध जग चानण होवा।“ भक्ति की राष्ट्रवादी लहर को दसगुरुओं ने पंजाब की सीमाओं से निकालकर पूरे देश में व्याप्त कर दिया। श्रीगुरु नानकदेव तो इस लहर को कई अन्य देशों तक भी ले गए।
दशम् गुरु द्वारा सृजित खालसा पंथ का शिलान्यास करने वाले श्रीगुरु नानकदेव ने मानवी संदेश भारत के बाहर जाकर प्रभावशाली ढंग से दिया। वे हजारों मील की पैदल यात्रा करके श्रीलंका, अरब देश, तुर्की, मिस्र, तुर्किस्तान एवं अफगानिस्तान तक परमात्म तत्व को लेकर पहुंचे। उन्होंने धर्म में घुसते जा रहे आडंबर, पाखंड की निंदा करते हुए धर्म के व्यवहारिक पक्ष को जगत के समक्ष रखा।
भारत की सनातन संस्कृति के सुरक्षा कवच के रूप में प्रकट हुए खालसा पंथ के निर्माण में सभी दसों श्रीगुरुओं का महत्वपूर्ण क्रमिक योगदान रहा है। खालसा पंथ के दस मंजिला भव्य भवन की प्रत्येक मंजिल के निर्माण में दसों श्रीगुरुओं के योगदान की स्वर्णिम ईटें जुड़ी हुई हैं।
श्रीगुरु नानकदेव (1469-1539) ने इस भवन का सुदृड़ वैचारिक आधार त्यार करके आगे का सारा मार्ग प्रशस्त किया।
श्रीगुरु अंगददेव (1539-1552), श्रीगुरु अमरदास (1552-1574) और श्रीगुरु रामदास (1574-1581) ने गुरुमुखी लिपि, लिखित साहित्य, लंगर व्यवस्था, गोइंदवाल में गंगा की तरह चौरासी सीढ़ियों वाली हरि की पौड़ी, अमृतसर नगर, महासरोवर इत्यादि कार्यों को संपन्न किया।
श्रीगुरु अर्जुनदेव (1581-1606) ने श्रीगुरु ग्रंथ साहिब की रचना तथा अमृतसर एवं तरनतारन में दो पवित्र गुरुद्वारों का निर्माण करवाकर विशेष योगदान दिया। उन्होंने मुगलिया शासन को सीधी टक्कर देने के लिए आत्म बलिदान की प्रथा प्रारंभ कर दी। श्रीगुरु हरगोविंद (1606-1644) ने मीरी और पीरी की दो तलवारें धारण करते हुए सिख समाज के सैन्यीकरण की ओर कदम बढ़ा दिए। श्रीगुरु हरिराय (1644-1661) और श्रीगुरु हरिकिशन (1661-1664) ने भी परिश्रम पूर्वक अपने पूर्व के गुरुओं के ‘भक्ति और शक्ति’ पर आधारित प्रकल्पों को निरंतर जारी रखा।
श्रीगुरु तेगबहादुर (1664-1675) ने कश्मीर के हिंदुओं के लिए अपना बलिदान देकर पूरे भारत में विदेशी शासकों के विरुद्ध जंग की तैयारी का ऐलान कर दिया। उनके बलिदान से कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे देश में राष्ट्रवाद का जाग्रण हुआ। इससे पहले नवम् गुरु ने पूरे भारत का प्रवास करके धर्म का प्रचार किया। श्रीगुरु का बलिदान शौर्य एवं पराक्रम का अतुलनीय उदाहरण है।
दशम् गुरु श्रीगुरु गोविंदसिंह (1675-1708) ने पूर्व के नौ गुरुओं द्वारा निर्माण किए जा रहे भक्ति और शक्ति के विशाल एवं भव्य भवन पर ‘खालसा पंथ’ का जगमगाता कलष चढ़ाकर इसे धर्म की स्थापना, राष्ट्र की रक्षा और समाज की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। आगे चलकर इसी धर्मरक्षक वीरव्रति परंपरा को बंदासिंह बहादुर, महाराजा रणजीतसिंह और हरिसिंह नलवा इत्यादि सिंघ सुरमाओं ने अपने पौरुष और बलिदानों से जारी रखा।
अभी तक की लेखमाला में हमने समझा कि दसों श्रीगुरुओं की समस्त वाणी एवं उनके उपदेश भारतीय संस्कृत साहित्य अर्थात वेद, उपनिषदों तथा पुराणों का जन भाषा में सरलीकरण है। श्रीगुरु ग्रंथ साहिब में अलग-अलग प्रांतों तथा भिन्न-भिन्न जातियों के संतों की वाणी का समावेश हमारे एकरस राष्ट्रजीवन का ज्वलंत उदाहरण है।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. सतीष मित्तल के अनुसार “श्रीगुरु नानकदेव से श्रीगुरु गोविंदसिंह तक की महान गुरु परंपरा ने भारतवासियों में आत्मविश्वास, आत्मगौरव के साथ अद्भुत साहस एवं वीरता का भाव उद्दीप्त किया। उन्होंने न केवल राष्ट्रीय जागरण ही किया बल्कि भारतीयों को मुगलों के साथ प्रतिकार करके शत्रुओं को पराभूत करने का भी साहस जगाया था।“
खालसा पंथ हमारे देश भारतवर्ष की दिग्विजयी आध्यात्मिक एवं वीरव्रति धरोहर है। इस सत्य को दुनिया की कोई भी ताकत नकार नहीं सकती कि हमारे सिख समाज की परंपरा का संबंध रामायण, महाभारत, उपनिषद, गीता, श्रीगुरु ग्रंथ साहिब और दशम् ग्रंथ से ही है। विदेश से आक्रमणकारी के रूप में आए किसी मजहब से कदाचित भी नहीं।
ये विधर्मी शक्तियां हमारे खून के रिश्तों में आग लगाने का जघन्य प्रयास कर रही है। इन्हें कभी भी सफलता नहीं मिल सकती। जिस धरती पर स्वधर्म की रक्षा के लिए हमारे श्रीगुरुओं, पराक्रमी सिख योद्धाओं और चारों गुरु पुत्रों ने अपने प्राणों की बाजी लगाई हो उस धरती पर विधर्मी षड्यन्त्र को हम कभी भी सफल नहीं होने देंगे। अपने धर्म पर अडिग रहते हुए हम दस गुरुओं के बनाए हुए नक्शे कदमों पर चलते रहेंगे।
विश्वास करना चाहिए कि वह राष्ट्रीय भावना जो शताब्दियों तक होने वाले आक्रमणों के धक्कों में भी जीवित रही और समय-समय पर जिसने अध्यात्मिक एवं राष्ट्रीय युद्ध-वीरों को उत्पन्न किया, निश्चित ही समाप्त नहीं हुई। हम समस्त भारतवासी एक स्वर से अपनी गौरवशाली परंपरा को जाग्रत रखेंगे। ———— समाप्त