महर्षि चरक के सिद्धांत आज भी प्रासंगिक हैं
वैद्य बाबूलाल बराला
महर्षि चरक के सिद्धांत आज भी प्रासंगिक हैं
आज महर्षि चरक की जयंती है। ईसा से लगभग 200 वर्ष पूर्व चिकित्सा ग्रंथ लुप्त हो गए थे। यह पूरे भारतीय जनमानस और विश्व के लोगों के लिए अत्यंत ही संकट का दौर था। सारी मानवता त्राहि-त्राहि करने लगी थी और धरती के लोग कष्ट से मरने लगे थे। ऐसी स्थिति में जैसा कि भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि, जब-जब धर्म की हानि होगी, तब तब मैं आऊंगा। जब जब अधर्म रूपी रोगों व पापों का साम्राज्य होगा, तब तब में प्रकट होउंगा। अपने उन्हीं वचनों को निभाने के लिए भगवान शेषनाग तब महर्षि चरक के रूप में स्वयं धरती पर पधारे। उन्होंने वेद-वेदांग नामक ब्राह्मण के घर में जन्म लिया और घूम घूमकर मानवता की सेवा करने लगे। चरकात् चरक: अर्थात् नित्यप्रति घूमने के कारण उनका नाम चरक पड़ा।
यह वह काल था, जब बौद्ध धर्म के नास्तिक दर्शन व अहिंसा के सिद्धांत के चलते राजव्यवस्था द्वारा वैदिक और शल्य क्रियाओं का निषेध कर दिया गया था। दूसरी ओर बौद्ध धर्म के “स्वभावो परमवाद” के सिद्धांत (शरीर तो स्वभाव से ही बनता बिगड़ता है, इसलिए चिकित्सा की क्या आवश्यकता है) की आड़ में वैद्यों के चिकित्सा कार्यों का विरोध किया जाता था। कहा जाता है कि बौद्ध सम्राट बिम्बसार को भी बवासीर हुआ था, लेकिन अहिंसा के सिद्धांत के चलते उन्होंने शल्य चिकित्सा को अंगीकार नहीं किया। सम्राट अशोक के बाद चिकित्सा कार्यों पर शासन द्वारा ऐसा प्रतिबंध लगभग 50 वर्षों तक रहा, जिसे भारत के मेडिकल इमरजेंसी का काल कहा जा सकता है।
महर्षि चरक ने महाभारत काल के पश्चात खण्डित हो चुके कायचिकित्सा के महान ग्रंथ अग्निवेश-तंत्र का पुनर्लेखन व औषधि सम्बंधी अनेक प्रयोगों के उपरांत चरक-संहिता रूपी कालजयी रचना प्रदान की। उन्होंने “आर्ता: पुत्रवत आचारेत्” यानी रोगी से पुत्रवत् व्यवहार करना चाहिए सहित अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। ऋतु अनुसार हमें क्या भोजन करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, किन दोषों का प्रकोप है, कौन सी व्याधि किस ऋतु में हो सकती है, एक वैद्य को कौन से गुण धारण करने चाहिए आदि बातें उन्होंने बताईं। पंचकर्म चिकित्सा पद्धति जो रोगों को मूल से समाप्त करने वाली है और लुप्त हो चुकी थी, उन्होंने उसको पुनर्जीवित किया। सर्वश्रेष्ठ औषधियों की गणना, उनके स्रोतों के बारे में विस्तार से वर्णन, शरीर रचना के सिद्धांत आदि चिकित्सा शास्त्र के लिए उनका एक बड़ा अवदान हैं।
कोरोनाकाल में करोड़ों लोगों की जान गई। इस व्याधि की चिकित्सा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास भी नहीं थी। परंतु महर्षि चरक के सिद्धांतों के अनुसार किसी भी व्याधि में वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों का सन्निपात होने से वह होती है। यदि इन दोषों की समता स्थापित कर दी जाए तो वह रोग दूर हो सकता है। इस सिद्धांत पर कार्य करते हुए आयुर्वेद चिकित्सा संस्थाओं ने कोरोना के रोगियों की चिकित्सा की और उसमें सफलता प्राप्त की। इसी प्रकार अनेक संक्रामक व्याधियों जैसे स्वाइन फ्लू, टाइफाइड, मलेरिया, चिकनगुनिया, जीका वायरस, डेंगू, चांदीपुरा वायरस इत्यादि, जिनका उल्लेख चरक संहिता में नहीं है, परंतु महर्षि चरक के त्रिदोष के सिद्धांत के आधार पर चिकित्सा करने से आधुनिक समय में प्राप्त इन समस्त रोगों की चिकित्सा सरलता से होती है। इससे सिद्ध होता है कि महर्षि चरक के चिकित्सा सिद्धांत और त्रिदोषवाद का सिद्धांत ही सार्वत्रिक, सर्वकालिक सत्य सिद्धांत है। ये सिद्धांत वैज्ञानिक हैं और स्वीकार करने योग्य हैं।
महर्षि चरक ने रसायन प्रकरण में चवनप्राश का उल्लेख किया है। च्यवनप्राश एक ऐसा रसायन है, जिसका सेवन करने से व्यक्ति को बुढ़ापा दूर रहता है, उसमें ऊर्जा और उत्साह का स्तर उच्च बना रहता है। च्यवनप्राश के उल्लेख के समय ही महर्षि चरक ने उसके लाभ बताते हुए कहा कि च्यवनप्राश का उपयोग श्वास रोगी को विशेष रूप से करना चाहिए इस से समझ में आता है कि चवनप्राश श्वसन तंत्र के रोगों पर अच्छी तरह से कार्य करता है। कोरोना वायरस भी फेफड़ों में जाकर फेफड़ों की कोशिकाओं को नष्ट करता है तथा श्वसन तंत्र को प्रभावित करता है। अतः कोरोना के रोगियों को जब च्यवनप्राश दिया गया तो उन्हें अप्रत्याशित लाभ मिला। अतः आचार्य चरक के द्वारा दिया गया यह रसायन भी मानवता के लिए अत्यंत कल्याणकारी रहा।
चरक संहिता में ग्रहणी दुष्टि रोग का भी उल्लेख है। आधुनिक चिकित्सक इसको बाउल सिंड्रोम बोलते हैं। प्रमेह नामक व्याधि भी इस समय संसार के लिए एक चुनौती बनी हुई है। मधुमेह प्रमेह का ही एक भेद है। आचार्य चरक ने प्रमेह के 20 भेदों का वर्णन किया है और बताया है कि कफ कारक जीवन शैली से ही प्रमेह रोग होते हैं। प्रमेह की चिकित्सा भी आचार्य ने विस्तार से बताई है, जिसमें शरीर को श्रम साध्य बनाने जैसे उपाय भी शामिल हैं।
आचार्य चरक ने आंवला, हल्दी, त्रिफला आदि रसायनों के माध्यम से प्रमेह की चिकित्सा के जो सूत्र दिए हैं, वे वर्तमान में भी अत्यंत प्रासंगिक व प्रभावी हैं। आधुनिक चिकित्सा के विपरीत आयुर्वेद साइड इफेक्ट्स रहित है।
आजकल देशभर के मेडिकल और आयुर्वेद कॉलेजों में प्रवेश लेने वाले छात्रों को चरक शपथ दिलायी जाती है। हिमाचल प्रदेश के एक गांव का नाम चरेख-डांडा है। मान्यता है कि इसी पहाड़ी पर महर्षि चरक ने तपस्या की थी। इस स्थान पर विश्व आयुर्वेद परिषद के प्रयासों से महर्षि चरक की मूर्ति स्थापित की गई है। जहां आसपास के आयुर्वेद महाविद्यालय के छात्र चरक जयंती के अवसर पर चरक-यात्रा आदि का आयोजन करते हैं। उज्जैन स्थित महाकाल मंदिर में भगवान शेषनाग के कपाट भी आज ही के दिन खोले जाते हैं।
हमें चिकित्सा के इन महान वैज्ञानिक का जीवन स्मरण कर इस आर्थिक भौतिकवादी युग में मेडिकल एथिक्स को अपनाना चाहिए और इस अवसर पर चिकित्सा शिविर, औषधीय पौधारोपण, स्वास्थ्य प्रबोधन आदि का आयोजन कर महर्षि चरक को उनके अवदान के लिए श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए।
ऐसे महापुरुष जिन्होंने हजारों वर्ष पूर्व मानव को हमेशा हमेशा के लिए रोग मुक्त होने के सूत्र दिए, उन्हें उनकी जयंती पर स्मरण करना हमारा कर्तव्य है।