संसदीय गरिमा को आहत करने वाली घटनाएं बढ़ी हैं
हृदयनारायण दीक्षित
भारतीय संसद सर्वोच्च जनप्रतिनिधि निकाय है। इसे विधि निर्माण के साथ संविधान संशोधन के अधिकार भी हैं। लेकिन पिछले काफी लम्बे अरसे से संसदीय गरिमा को आहत करने वाली घटनाएं बढ़ी हैं। तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा पर पैसे लेकर सवाल पूछने का मामला लोकसभा की आचार समिति में विचाराधीन है। यह मसला गंभीर है। समिति की पहली बैठक अप्रिय वाद विवाद की भेंट चढ़ गई। संसदीय गरिमा के अवमूल्यन का यह पहला मामला नहीं है। पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार के समय (1993) झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के शीबू सोरेन और उनकी पार्टी के कुछ सांसदों पर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के विरुद्ध वोट के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 105(2) के अधीन आरोपी सांसदों के विरुद्ध मामलों को रद्द कर दिया था। संविधान अनुच्छेद 105(2) के अनुसार, ‘‘संसद का कोई सदस्य संसद या उसकी समिति में कही गई किसी भी बात या दिए गए वोट के सम्बंध में अदालत में, किसी भी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।‘‘ यही प्रावधान अनुच्छेद 194(2) में राज्य विधान मण्डल सदस्यों के लिए है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में झा०मु०मो० मामले को सात न्यायमूर्तियों की पीठ को संदर्भित किया है। न्यायालय ने 1998 के संविधान पीठ के फैसले के औचित्य को फिर से जांचने की आवश्यकता महसूस की है।
संसदीय सदनों के भीतर और बाहर सदस्यों से शालीन परम्पराओं की अपेक्षा की जाती है। 1951 में अंतःकालीन संसद के एक सदस्य एच. जी. मुद्गल के भ्रष्ट आचरण की जांच के लिए एक समिति बनी थी। कुछ सदस्यों ने जांच समिति की आवश्यकता नहीं मानी। कहा गया कि सभा की विशेषाधिकार समिति पर्याप्त है। अध्यक्ष मावलंकर ने कहा कि विशेषाधिकार समिति के बावजूद सभा को विशेष परिस्थिति में समिति बनाने के अधिकार हैं। विशेष जांच समितियों की परम्परा ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में भी है। समिति की जांच में मुद्गल दोषी पाए गए। उन्होंने सभा से बर्खास्तगी का प्रस्ताव आने के पहले ही त्याग पत्र दे दिया। 12 दिसंबर 2005 को एक निजी टेलीविजन चैनल ने कुछ सांसदों को प्रश्न पूछने के लिए धन लेना स्वीकार करते हुए दिखाया। 23 दिसंबर 2005 को सभी 10 सदस्यों की बर्खास्तगी हुई। इसी तरह 19 दिसंबर 2005 को एक अन्य चैनल ने संसद सदस्य क्षेत्र विकास योजना के कार्यान्वयन के मामले में कुछ सदस्यों को अनुचित आचरण में लिप्त दिखाया। इसकी भी जांच हुई। 1 सदस्य बर्खास्त हुए, 4 निलंबित हुए। बाबू भाई के. कटारा संसद सदस्य ने अपनी पत्नी और पुत्र के पासपोर्ट का दुरूपयोग किया। जांच में दोषी पाए गए। 21 अक्टूबर 2008 को बर्खास्त किए गए। इसी तरह अनेक सदस्य बर्खास्त हो चुके हैं। प्रख्यात संसदविज्ञ अर्सिकन मे ने ‘पार्लियामेंट्री प्रोसीजर एंड प्रैक्टिस‘ मे भ्रष्टाचार के साथ ही अशोभनीय व्यवहार के कारण भी सदस्यों की बर्खास्तगी की परम्परा बताई। सदस्यों का आचरण महत्वपूर्ण विषय रहा है। यद्यपि एक समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि, ‘‘सदस्य के आचरण की विस्तारपूर्वक परिभाषा नहीं है तो भी सभा को शक्ति है कि वह प्रत्येक मामले में यह निश्चय करे कि सदस्य का आचरण अनुचित है या ऐसा संसद सदस्य को शोभा नहीं देता। सभा को सदस्यों के अनुचित आचरण के लिए दण्ड देने का अधिकार है। सभा सदन के अंदर और बाहर सदस्यों के आचरण की जांच के लिए अधिकार का प्रयोग कर सकती है। अव्यवस्थापूर्ण आचरण और अवमाननाओं के लिए दण्ड दे सकती है।‘‘
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने 29 अगस्त 1966 के निर्णय में इसी तथ्य को मजबूत किया है। विधान सभा ने दो सदस्यों को सदन से निष्काषित कर दिया था। कोर्ट ने निर्णय सुनाया कि, ‘‘विधान सभा को यह शक्ति और विशेषाधिकार है कि वह सदस्यों को निष्काषित कर सकती है। परिणाम स्वरुप उनका स्थान खाली हो जाता है। न्यायालय ने कहा कि सभा के इस निर्णय को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।‘‘ दरअसल सदस्यों के लिए कोई सुनिश्चित आचार संहिता नहीं है। विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलनों में अनुशासन और शिष्टाचार बनाए रखने का मुद्दा बार बार चर्चा में आता है। गुजरात में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन (मई 1992) में तय हुआ कि सदनों के भीतर अनुशासन और शिष्टाचार बनाए रखने के मुद्दे पर विचार करने के लिए अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाया जाए। 23 और 24 सितम्बर 1992 को संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में पीठासीन अधिकारियों, दलीय नेताओं, संसदीय कार्य मंत्रियों, कुछ विशिष्ट सदस्यों व वरिष्ठ अधिकारियों का सम्मेलन हुआ। परम्परागत मानदण्डों, नियमों और प्राविधानों के आधार पर एक प्रारूप बना। इसे ‘अनुशासन तथा शिष्टाचार‘ पत्रक में जोड़ दिया गया। अपेक्षा की गई कि सभी राजनीतिक दल अपने विधायकों सांसदों के लिए आचार संहिता बनाएं और उसका अनुपालन सुनिश्चित करें। लोकसभा के स्वर्ण जयंती सत्र में भी यह विषय आया। सभा द्वारा पारित संकल्प में गरिमापूर्ण आचरण पर जोर दिया गया। अनुशासन और शिष्टाचार का विषय चंडीगढ़ में जून 2001 में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में फिर उठा।
तेरहवीं लोकसभा में अध्यक्ष ने सदन में 15 सदस्यीय ‘आचार समिति‘ के गठन की घोषणा की। समिति को संसदीय व्यवहार सम्बंधी अनैतिक आचरण से सम्बंधित शिकायतों की जांच करने और औचित्यपूर्ण सिफारिश करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।‘‘ समिति को सम्बंधित प्रक्रिया नियम बनाने का काम भी सौंपा गया। समिति ने पहला प्रतिवेदन 31 अगस्त 2001 को प्रस्तुत किया। इसे 22 नवंबर 2001 को सदन के पटल पर रखा गया। 16 मई 2002 को सभा ने स्वीकृत किया। समिति की सिफारिश के अनुसार संविधान के मूल कर्तव्यों का ध्यान, नैतिकता, शालीनता और जीवन मूल्यों का उच्च स्तर कायम रखना आदि था। पीठासीन अधिकारियों के प्रत्येक सम्मेलन में आचार संहिता का विषय विमर्श बना रहा। लेकिन संसद व विधान मण्डल के सदस्यों के लिए पालनीय आचार संहिता का विषय अंतिम रूप से निस्तारित नहीं है।
सदनों में अव्यवस्था अखिल भारतीय संसदीय बीमारी है। संसद और विधानमण्डलों की प्रक्रिया नियमावली अनिवार्य रूप से पालनीय होती है। पीठासीन अधिकारी के सामने व्यवस्था बनाए रखने की चुनौती होती है। सदस्यों का निलंबन आखिरी विकल्प होता है। 15 मार्च 1989 में राजीव गाँधी की सरकार थी। सांसद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या पर ठक्कर कमीशन की रिपोर्ट को लेकर हंगामा कर रहे थे। तब 63 सांसद निलंबित हुए थे। इसी तरह 13 फरवरी 2014 को 18 सांसद निलंबित हुए थे। 4 अगस्त 2015 को 25 सांसद 5 दिन की अवधि के लिए निलंबित किए गए थे। 2021 में कृषि कानूनों पर हंगामा करने वाले 12 सांसदों को राज्यसभा में निलंबित किया गया। जुलाई 2022 को राज्यसभा में 19 सांसद निलंबित हुए। मूलभूत प्रश्न है कि सदनों के भीतर हंगामा और विकल्पहीनता में सदस्यों का निलंबन क्या संसदीय प्रणाली का अनिवार्य हिस्सा बन गया है? क्या अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखने का एक मात्र विकल्प आचारहीनता ही है? सांसद और विधायक विशेषाधिकार से युक्त माननीय होते हैं। उनका आदर्श आचरण संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करता है और आचरण की थोड़ी सी त्रुटि भी आमजनों को संसदीय व्यवस्था से निराश करती है। संसदीय व्यवस्था से जुड़े महानुभाव सम्यक चिंतन करें।