अपने पांव पर मजबूती से खड़ा है विश्व का सबसे बड़ा संगठन
संघ, स्वयंसेवक और श्री गुरुदक्षिणा
नरेन्द्र सहगल
भारतवर्ष के सम्पूर्ण राष्ट्रजीवन के प्रतीक, भगवान भास्कर के उदय की प्रथम रणभेरी, भारतीय संस्कृति की पूर्ण पहचान और भारत के वैभवकाल से लेकर आजतक के कृमिक इतिहास के प्रत्यक्षदर्शी परम पवित्र भगवा ध्वज को श्रीगुरु मानकर राष्ट्र के पुर्नउत्थान में कार्यरत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक देश और विदेश में ‘भगवा जागरण’ के लिए कठिबद्ध है। भारतवर्ष पुनः जगद्गुरु के सिंहासन पर विराजमान हो, इस हेतु कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ते जा रहे हम स्वयंसेवक किसी की सहायता, अनुदान, आर्थिक सहारे और प्रमाण पत्र पर आश्रित नहीं हैं। सम्भवतः संघ ही विश्व का एकमात्र ऐसा विशाल संगठन है जो विचारधारा, उद्देश्य (परम वैभव), कार्यपद्धति (नियमित शाखा) और पवित्र साधनों (श्री गुरुदक्षिणा) के साथ अपने स्वयं के मजबूत आधार पर खड़ा है।
वास्तव में संघ की वास्तविक पहचान है संघ का स्वयंसेवक और स्वयंसेवक की पहचान है त्याग, बलिदान, तप, सेवा और समर्पण। इन सभी गुणों को हम स्वयंसेवक भगवा ध्वज से प्राप्त करते हैं। श्रद्धाभाव से किया गया समर्पण गुरु दक्षिणा कहलाता है। इस समर्पण की कोई सीमा अथवा परिधि नहीं होती। तन-मन-धन के समर्पण के साथ आत्मसमर्पण के अंतिम पड़ाव तक पहुंचना यही श्रद्धाभाव है। यहीं से मोक्ष की यात्रा प्रारम्भ होती है। यह भी सत्य है कि मनुष्य के अंतिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ की यात्रा का कोई एक मार्ग भी नहीं हो सकता। संत महात्मा ज्ञान के मार्ग से इस यात्रा को प्रारम्भ करते हैं। अनेक महापुरुष भक्ति के माध्यम से इस यात्रा पर निकलते हैं। कई सज्जन पुरुष नर सेवा – नारायण सेवा के रास्ते पर चलकर मोक्ष की ओर बढ़ते हैं। वीर योद्धा रणभूमि में प्राणोत्सर्ग करके मोक्ष प्राप्त करते हैं। भामाशाह जैसे धनाढ्य अपना सब कुछ राणा प्रताप जैसे वीर पुरुष को समर्पित करके राष्ट्र सेवा का अनूठा आनन्द लेते हैं। उनके लिए यही मोक्ष का सर्वोत्तम मार्ग है। संघ के स्वयंसेवक समाजसेवा, धर्मरक्षा और राष्ट्र भक्ति के रास्ते पर चलते हुए मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं।
बगदादी जैसे दुर्दांत दहशतगर्द समझते हैं कि दुनियाभर से सज्जनों को समाप्त करके जो बचेगा, वही उनके लिए खुदा की नियामत होगी। दहशतगर्दी के रास्ते से ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ की हुकूमत की स्थापना करना। अर्थात खुदा के बंदों का साम्राज्य खड़ा करना, यह मार्ग भी अपनाया जा रहा है। इसके खतरे से संसार कांप उठा है। विश्व में तलवार के जोर पर कत्लोगारत करके सज्जनों को एक ही मार्ग पर चलने के लिए बाध्य करने का रास्ता है यह। जाहिर है इस रास्ते में विवेक नाम की कोई चीज नहीं है, मानवता भी कहीं नजर नहीं आती।
इसी तरह एक और मानव समुदाय ने भी सेवा की आड़ में दुनियाभर में जिस साम्राज्य की स्थापना की थी उसने कई मानवीय सभ्यताओं को समाप्त कर दिया। गरीबी और गुरबत के मारे लोगों को सेवा के झांसे में फंसाकर अपने मजहब से शिकंजे में लेकर उनके मूल धर्म, समाज और राष्ट्र का दुशमन बना देना इनके मोक्ष का मार्ग बन गया। हमारे देश भारत के लोगों (हिन्दुओं) के गौरवशाली इतिहास को बिगाड़ने में कुछ हद तक सफल रहे इन लोगों ने हमारे राष्ट्रीय/धार्मिक अस्तित्व को समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परिणामस्वरूप आज हमारे देश में काले अंग्रेजों का बोलबाला है।
एक तीसरे वर्ग ने भी मजदूरों और किसानों के नाम पर पूरे विश्व पर अपना परचम लहराने की कोशिश की थी। लाल सलाम की भावुकता के साथ दुनिया के मजदूरों को एक हो जाने का आह्वान किया था। ‘पूंजीवाद का सर्वनाश और ‘मेहनतकशों का राज इन दो ध्येयवाक्यों के साथ ये लोग प्रारम्भ में तो बहुत शीघ्र ही सफलता की सीढ़ियां चढ़ गए। 70 से भी ज्यादा देशों में छा जाने में कामयाब हो गए। परन्तु जिस गति के साथ ये लोग आगे बढ़े थे उससे कहीं ज्यादा गति के साथ इनके ताश के सभी महल गिर गए। कारण स्पष्ट है यहां भी विवेक और मानवता नहीं थे। ये लोग तो धर्म, संस्कृति और राष्ट्रवाद के ही शत्रु साबित हुए। इनके लिए आत्मा परमात्मा की अवधारणा अफीम जैसे थी और है। इन्होंने भी मानवता का खून बहाने में कोई परहेज नहीं किया।
चौथी श्रेणी है भगवा रंग वालों की। ब्रह्माण्ड की उत्पति के साथ ही यह रंग अस्तित्व में आ गया था। सूर्य की पहली किरण ने इसी रंग का आवरण ओढ़ा था। तब से लेकर आज तक इस भगवा रंग के धवजवाहकों ने विवेक, मानवता, सेवा, समपर्ण का मार्ग नहीं छोड़ा। वैराग्य और बलिदान के करोड़ों उदाहरणों को अपने में समेटे हुए इस रंग के अनुयायियों ने कभी भी किसी पराए देश पर आक्रमण नहीं किया। कभी भी किसी की भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक स्वतंत्रता नहीं छीनी। किसी का बलात मतांतरण भी नहीं किया। अलबत्ता अन्य देशों के सताए, भगाए और प्रताड़ित लोगों को अपने घर में शरण दी। यह अलग बात है कि इनमें से कुछ जातियां आक्रांता के रूप में आईं थीं और हमारे ही धर्म-संस्कृति को जड़मूल से समाप्त करने के काम में जुटी रहीं। इतिहास साक्षी है कि जब तक हमारे देश में भगवा लौ प्रज्वलित रही, समाज संगठित और शक्तिशाली रहा। हमने अनेक आक्रांताओ को आत्मसात कर लिया। परन्तु जब भगवा लौ क्षीण हुई, हम परास्त हो गए। इतना ही नहीं हम सदियों पर्यन्त परतंत्र भी रहे। विदेशी और विधर्मी शक्तियों ने हमारे भूगोल, धर्म-संस्कृति और समाज पर कब्जा कर लिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने गहरे अध्ययन, विस्तृत अनुभव और प्रत्यक्ष व्यवहार के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला कि जब तक भारत में प्रचंड गति के साथ भगवा जागरण (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) नहीं किया जाएगा तब तक हमारी स्वतंत्रता, संस्कृति और भूगोल पर खतरे मंडराते रहेंगे। इसी मंथन में से संघ का जन्म हुआ। एक शक्तिशाली हिन्दू संगठन का कार्य प्रारम्भ हुआ और देखते ही देखते यह संगठन विश्व का सबसे बड़ा शक्तिशाली और अनुशासित संगठन बन गया। संघ के स्वयंसेवक आज राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सक्रिय हैं। सर्वविदित है कि भगवा ध्वज की छत्रछाया में इन स्वयंसेवकों ने राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में हिन्दुत्व अर्थात भारतीयता की अलख जगाई है। देश और विदेश में प्रगति की मंजिलें पार कर रहे संघ पर भले ही कितने आरोप लगे हों परन्तु संघ के स्वयंसेवक राष्ट्र के प्रति समर्पण और सेवा भाव के साथ अपना तन-मन-धन भगवा जागरण के लिए समर्पित कर रहे हैं।
संघ पर अब यह भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि संघ के सभी संगठनों को धन कहां से मिलता है। यह प्रश्न वही लोग उठाते हैं जो स्वयं सरकारी सहायता पर निर्भर हैं। जिन्होंने भ्रष्टाचार के माध्यम से धन के अंबार लगाए हैं। जिनके अस्तित्व का आधार ही धन है। इन्हें शायद यही समझ में नहीं आता कि संघ के अस्तित्व का आधार धन नहीं, स्वयंसेवक/कार्यकर्ता हैं।
संभवतः संघ विश्व का एकमात्र ऐसा संगठन है जिसकी समस्त गतिविधियों का संचालन स्वयंसेवक अपने धन से करते हैं। कार्यालयों, अधिकारियों के प्रवास, कार्यक्रमों के आयोजनों और नित्य प्रति की शाखा गतिविधियों पर व्यय होने वाले समस्त धन की व्यवस्था, स्वयंसेवक स्वयं स्फूर्ति से करते हैं। उल्लेखनीय है कि स्वयंसेवकों द्वारा श्रीगुरु दक्षिणा के रूप में अर्पित किया गया धन संघ की ही गतिविधियों पर व्यय होता है। इस धन में से एक रुपया भी कहीं और नहीं जाता। संघ में सदस्यता शुल्क, चंदा, उपहार, नोटों के हार जैसा कोई प्रचलन नहीं है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने एक अदभुत पद्धति का आविष्कार किया है, अपने श्रीगुरु परम पवित्र भगवा ध्वज के पूजन के रूप में वर्ष में एक बार श्रीगुरु दक्षिणा कार्यक्रम में स्वयंसेवक श्रद्धापूर्वक अपनी भेंट चढ़ाते हैं और आगामी वर्ष के लिए आर्शीवाद लेते हैं।
पूजा का अर्थ है समर्पण की भावना को प्रकट करना। अभावों में भी श्रद्धाभाव के साथ, कष्ट उठाते हुए भी, निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर जो भी दिया जाता है, वही सच्चा समर्पण है। इसी को श्रीगुरु दक्षिणा कहते हैं। संघ की मान्यता है कि आत्मत्याग, आत्मयज्ञ और आत्मबलिदान के द्वारा ही भगवा जागरण (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) की लौ प्रज्वलित होगी। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, योगेश्वर श्रीकृष्ण, जगदगुरु शंकराचार्य, समर्थ गुरु रामदास, श्री गुरु नानकदेव, तुलसीदास, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, स्वामी रामतीर्थ और महर्षि अरविंद जैसे हजारों संत महात्माओं ने भगवा ध्वज की लौ को प्रज्जवलित रखने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया था। हम स्वयंसेवक भी भगवा ध्वज के सामने अपना अधिक से अधिक समय और धन देने की प्रतिज्ञा के साथ श्रीगुरु दक्षिणा करते हैं।