बलिदान से पहले मातृभूमि की वंदना, अमर हो गए बिस्मिल, अशफाक, लाहिड़ी और रोशन सिंह
अमृत महोत्सव लेखमाला : सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ (भाग-11)
नरेन्द्र सहगल
बलिदान से पहले मातृभूमि की वंदना, अमर हो गए बिस्मिल, अशफाक, लाहिड़ी और रोशन सिंह
प्रथम विश्व युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात इंग्लैंड की साम्राज्यवादी लिप्सा बहुत अधिक बढ़ गई। इधर भारत में क्रांतिकारियों द्वारा किए जाने वाला सशस्त्र संग्राम भी अपने ही कुछ मुट्ठी भर गद्दारों की वजह से विफल हो गया। इस में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों तथा समर्थकों को सरकार ने खोज खोज कर ठिकाने लगा दिया। सैकड़ों क्रांतिकारियों को फांसी, देश निकाला, लंबी कैद देकर सशस्त्र क्रांति के इस प्रयास को दबा दिया गया। अपनी विजय के अहंकार में डूबे विदेशी शासकों ने स्वदेश की स्वतंत्रता के लिए जूझ रहे भारतीयों विशेषकर क्रांतिकारी युवाओं की ताकत को पूर्णतया समाप्त करने के सभी गैर कानूनी हथकंडे अपनाए। कुछ समय के लिए ही सही मां भारती के गले में पड़ी हुई गुलामी की जंजीरें और ज्यादा कड़ी हो गईं।
अब तक क्रांतिकारियों की प्रेरणा रहे लोकमान्य तिलक के बाद भारत की राजनीति में महात्मा गांधी का वर्चस्व हो जाने से अहिंसा वादी राजनीति का प्रभाव हो गया। महात्मा जी ने देशवासियों को “एक वर्ष में स्वराज” दिलाने के भरोसे के साथ सत्याग्रह का मार्ग अपनाया। महात्मा जी का वर्ष में स्वराज प्राप्त करने का स्वप्न तो साकार नहीं हो सका, परंतु सशस्त्र क्रांतिकारियों का यह विश्वास प्रबल हो गया कि इतने बड़े शक्तिशाली साम्राज्य से टक्कर लेने के लिए याचना युक्त सत्याग्रह नहीं सशस्त्र संग्राम की जरूरत है।
अतः क्रांतिकारियों ने पुनः संगठित होकर पहले से ज्यादा ताकतवर बनकर अंग्रेजों पर प्रहार करने की रणनीति पर विचार किया। दो पुराने क्रांतिकारियों सच्चिन्द्रनाथ सान्याल और योगेश चंद्र चटर्जी ने ‘हिंदुस्तान गणतंत्र सेना’ की स्थापना करके क्रांतिवीरों को एक मंच पर लाने का सफल प्रयास किया। इन दोनों के परिश्रम के पश्चात फलस्वरुप देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत कई छोटी बड़ी संस्थाओं ने हिंदुस्तान गणतंत्र सेना के साथ मिलकर काम करने का मन बना लिया।
सच्चिन्द्रनाथ सान्याल ने अब हिंदुस्तान प्रजातंत्र सेना का नया संविधान बनाकर इसके उद्देश्य की घोषणा की – “ब्रिटिश शासकों को उखाड़कर एक ऐसी स्वदेशी सरकार की स्थापना करना जिसमें जनता के अधिकार सुरक्षित होंगे।” शीघ्र ही कई प्रांतों तक इस क्रांतिकारी दल का काम खड़ा हो गया। प्रसिद्ध क्रांतिकारी पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को उत्तर प्रदेश का कमांडर बनाया गया। इसी प्रकार की व्यवस्था कुछ अन्य प्रांतों में भी कर दी गई।
जनवरी 1925 में इस नए क्रांतिकारी दल के नेता सच्चिन्द्रनाथ सान्याल ने एक विस्तृत घोषणा पत्र ‘क्रांतिकारी’ तैयार करके देशभर में सक्रिय क्रांतिकारियों के पास भेजा। सच्चिन्द्रनाथ लाहौर के नेशनल कॉलेज के एक प्रोफेसर जयचंद्र तथा क्रांतिकारी भगवती चरण ने इस घोषणापत्र के प्रचार प्रसार के लिए बहुत परिश्रम किया। 1915 के संग्राम की विफलता के बाद अंग्रेज सरकार मान बैठी थी कि सशस्त्र क्रांति का पूर्ण सफाया हो गया है। परंतु इस घोषणापत्र ‘क्रांतिकारी’ के सामने आने के बाद सरकार फिर चौकन्नी हो गई। नए दल के कार्यालय, घोषणा पत्र के लेखक और दल के संचालकों की खोज तेज कर दी गई।
हिंदुस्तान प्रजातंत्र सेना का कार्य केवल घोषणा पत्र और बयानबाजी तक ही सीमित नहीं था। इसका वास्तविक कार्य शस्त्रों का एकत्रीकरण और निर्माण था। गदर संग्राम में भाग लेने वाले अनेक अनुभवी क्रांतिकारी इस नए अभियान में शामिल हो गए। यह सभी लोग बम इत्यादि बनाने में कुशल थे। परंतु इस सारे क्रांति अभियान का संचालन करने के लिए पर्याप्त धन का अभाव आड़े आ रहा था। इस कमी को पूरा करने के लिए दल के नेताओं ने सरकारी खजानों पर हमले करके वहां के धन को अपने कब्जे में लेने के सफल / विफल प्रयास शुरू कर दिए। शीघ्र ही दल के पास पर्याप्त धन एकत्र हो गया। इसके साथ ही इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेज अफसरों के साथ सीधी टक्कर लेने का अभियान भी छेड़ दिया।
देखते ही देखते पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्र लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खां, रोशन लाल, मन्मनाथ गुप्ता इत्यादि क्रांतिकारी पुनः सक्रिय हो गए। हिंदुस्तान प्रजातंत्र सेना के प्रमुख संचालक सच्चिन्द्रनाथ सान्याल का दायां हाथ योगेश चंद्र चटर्जी अपने कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेजों के साथ हावड़ा स्टेशन पर पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। इन दस्तावेजों में हिंदुस्तान प्रजातंत्र सेना के 23 केंद्रों की जानकारी थी। इन दस्तावेजों में दल की कुछ महत्वपूर्ण बैठकों की जानकारी भी थी। परंतु सरकारी अधिकारियों को लाख सर पटकने के बाद भी दल की पूरी रूपरेखा और गतिविधियों की पूर्ण जानकारी नहीं मिल सकी।
हिंदुस्तान प्रजातंत्र सेना के नेताओं ने विदेशों से शस्त्र मंगवाने की व्यवस्था भी कर ली। जलमार्ग से भारत में पहुंचने वाले हथियारों को बंदरगाहों से प्राप्त करना और फिर उन्हें विभिन्न केंद्रों तक पहुंचाने के लिए अपार धन की जरूरत थी। दल के पास पर्याप्त धन के अभाव के कारण सशस्त्र क्रांति को आगे बढ़ाना अत्यंत कठिन था। अतः सभी प्रमुख क्रांतिकारियों ने किसी बड़े सरकारी खजाने को लूटने की योजना हेतु एक आवश्यक बैठक बुलाई। यह बैठक राम प्रसाद बिस्मिल की अध्यक्षता में एक गुप्त स्थान पर हुई।
इस बैठक में यह तय किया गया कि सरकार द्वारा रेलवे से भेजे जाने वाले ‘पोस्टल खजाने’ को अपने कब्जे में लेने के लिए सहारनपुर के निकट काकोरी नामक स्टेशन के पास गाड़ी रोककर ‘एक्शन’ किया जाए। इस वीरतापूर्ण कार्य को संपन्न करने के लिए 9 क्रांतिकारियों को चुना गया। यह तय किया गया कि गाड़ी की चेन खींचकर काकोरी से पहले एक निर्जन स्थान पर उसे रोका जाए। इसके तुरंत बाद खजाने को तोड़कर सारा धन निकाल लिया जाए।
9 अगस्त 1925 को सभी क्रांतिकारियों ने अपने-अपने हथियारों को संभाला और रात के समय सहारनपुर स्टेशन पर एकत्रित हो गए। निश्चित समय पर गाड़ी आई और यह सभी क्रांतिकारी उसमें सवार हो गए। इस गाड़ी में कुछ अंग्रेज सैनिक भी बकायदा शास्त्रों के साथ सफर कर रहे थे। तयशुदा योजना के अनुसार निश्चित स्थान पर चेन खींचकर गाड़ी रोक दी गई। अगले ही क्षण मजबूत लोहे की भारी-भरकम तिजोरी (धन का भंडार) को नीचे गिरा दिया गया। लोहे की तिजोरी इतनी सख्त थी कि क्रांतिकारियों द्वारा किए गए हथौड़े के पचासों प्रहारों से भी नहीं टूटी।
तभी निकट ही रिवाल्वर हाथ में लिए खड़े अशफाकउल्ला खां ने अपनी रिवाल्वर एक साथी को थमा कर स्वयं हथोड़ा उठाया और तिजोरी पर जमकर जोरदार प्रहार करने लगा। इस हट्टे-कट्टे तरुण क्रांतिकारी के सात-आठ पहाड़ों से ही तिजोरी का मुंह खुल गया। इन युवकों ने सारा धन निकाला और पहले से तैयार रखें थैलों में भरकर निश्चित योजना अनुसार वहां से अपने तयशुदा स्थानों में पहुंच गए।
कितने आश्चर्य की बात है कि जिस गाड़ी में यह ऐतिहासिक हादसा हुआ, उसी में एक मेजर सहित सेना के लगभग 20 अंग्रेज सिपाही खजाने के रक्षक के रूप में चल रहे थे। यह अगर चाहते तो फायरिंग करके सभी 9 क्रांतिकारियों को मार सकते थे। इनके पास तो शास्त्रों की भी कमी नहीं थी, जबकि क्रांतिकारियों के पास मात्र पांच रिवाल्वर और तिजोरी को तोड़ने वाले दो हथोड़े ही थे।
वास्तविकता तो यह है कि जब गाड़ी रुकी और क्रांतिकारियों ने अपने रिवाल्वर से दो-तीन हवाई फायर किए तो यह सभी अंग्रेज सिपाही और सार्जेंट मेजर डर से इतने घबरा गए कि उन्होंने अपने-अपने कंपार्टमेंट में दुबक कर दरवाजे खिड़कियां बंद कर लिये। जब सभी क्रांतिकारी अपना अति साहसिक काम कर रहे थे तभी एक मुसलमान यात्री गाड़ी से उतरा और क्रांतिकारियों की ओर लपका। राम प्रसाद बिस्मिल ने इसे वापस गाड़ी में जाने को कहा। जब यह नहीं माना तो अशफाक उल्ला खां ने आगे बढ़कर अपने रिवाल्वर की 2 गोलियां इसके सीने में उतार दीं।
हिंदुस्तान प्रजातंत्र सेना के यह 9 क्रांतिकारी सैनिक चुपचाप सुरक्षित अपने गुप्त स्थान लखनऊ के एक मोहल्ले में पहुंच गए। यद्यपि इस जोखिम भरे साहसिक एक्शन से क्रांतिकारियों को मात्र 5000 रुपये ही प्राप्त हुए, परंतु इस घटना ने सरकार की चूलें हिला कर रख दीं। दिल्ली से लेकर लंदन तक कोहराम मच गया। भारी पुलिस के बंदोबस्त के बावजूद भारी-भरकम सरकारी खजाने को लूट कर क्रांतिकारी सुरक्षित निकल गए।
प्रशासन को इतनी बड़ी चुनौती मिलने के पश्चात सरकारी अधिकारियों की घबराहट एवं भय का बढ़ जाना स्वभाविक ही था। सरकार ने इन स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। गुप्तचरों की सक्रियता और अंग्रेजभक्त लोगों की सहायता से प्रशासन ने 40 तथाकथित आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। परंतु मुख्य अभियुक्त सच्चिन्द्रनाथ बख्शी, चंद्रशेखर आजाद और अशफाकउल्ला खां सरकार की पकड़ से बाहर हो गए। कुछ दिन बाद अशफाकउल्ला खान और सच्चिदानंद भी गिरफ्तार कर लिए गए। परंतु चंद्रशेखर आजाद फिर भी पकड़ में नहीं आए। प्रारंभिक जांच के बाद 28 अभियुक्तों पर अभियोग चला कर शेष को छोड़ दिया गया।
इन अभियुक्तों पर ब्रिटिश शासन पर युद्ध छेड़ने, डाका डालने, कत्ल करने और प्रशासन के विरुद्ध बगावती षड्यंत्र करने के आरोप लगाए गए। सरकार ने इन क्रांतिकारियों के विरुद्ध 250 गवाह तैयार कर लिए। इस सारे एकतरफा नाटक पर दस लाख (आज के मूल्यानुसार दस करोड़) रुपये बर्बाद कर दिए गए। वकीलों और मुखबिरों को खरीदने के लिए इतना खर्च करना बहुत आवश्यक था। सरकार हर हालत में स्वतंत्रता संग्राम की उभरती हुई कलियों को मसल देना चाहती थी।
इन राष्ट्रभक्त क्रांतिकारी अभियुक्तों पर बहुत लंबे समय तक चले मुकदमे में आखिर अप्रैल 1927 को न्यायालय ने वही फैसला सुनाया जिसकी सभी उम्मीद कर रहे थे। पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफ़ाकउल्ला को मौत की सजा दी गई। शेष सभी अभियुक्तों को देश निकाला, उम्र कैद, 15 वर्ष से 5 वर्ष की कठोर कारावास की सजा दे दी गई। सभी क्रांतिकारियों ने भारत माता की जय के उद्घोषों के साथ मौत की सजा को सुना।
उल्लेखनीय है कि कोर्ट के फैसले के पश्चात सभी अभियुक्तों को विभिन्न जेलों में भेजकर फांसी के तख्तों पर लटकाया गया। जब अंग्रेज अफसरों ने इनसे इनकी अंतिम इच्छा पूछी तो प्रायः सभी ने एक ही इच्छा व्यक्त करते हुए कहा – “हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विनाश चाहते हैं।” अशफाक उल्ला खान ने तो बहुत ही राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत होकर अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहा – “कुछ आरजू नहीं है- बस आरजू है तो यह- रख दे कोई जरा सी खाक-ए वतन कफन पे”। अर्थात मेरी यही इच्छा है कि मेरी लाश पर मेरी मातृभूमि की मिट्टी रख दी जाए”।
अंग्रेजों के तख्त को हिला देने वाले काकोरी घटनाक्रम के प्रधान संचालक राम प्रसाद बिस्मिल की माता अपने वीर पुत्र से मिलने गोरखपुर जेल में गई। फांसी के पूर्व अपने बलिदानी पुत्र के दर्शन करना चाहती थी यह वीर प्रसूता माता। जेल के अंदर बने एक छोटे से कमरे में यह भेंट हुई। जैसे ही माता ने अपना आशीर्वाद देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो पुत्र राम प्रसाद बिस्मिल की आंखों में आंसू आ गए। मां ने हिम्मत के साथ बेटे के कंधे पर हाथ रख कर कहा – “अरे मेरा पुत्र होकर तू रो रहा है, तू तो अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए शहीद होने जा रहा है। मुझे तो तनिक भी उम्मीद नहीं थी कि तू मौत से डर जाएगा। मुझे तो अपने देशभक्त वीरव्रती पुत्र पर गर्व था। मेरा बेटा एक विशाल साम्राज्य के विरुद्ध लड़ता हुआ बलिदान हो रहा है। अगर तुझे मृत्यु से डर लगता है तो तू इस काम में पड़ा ही क्यों।
मौत के मुहाने पर खड़े राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा – “मां मैं मौत से कदापि नहीं डर रहा। यह आंसू तो मेरी मां के साथ मेरी ममता के आंसू है। मां विश्वास करो मैं हंसता हुआ फांसी के तख्ते पर जाऊंगा। मेरी इच्छा है कि मैं पुनः तुम्हारे जैसी वीरांगना माता की कोख से जन्म लूं और इसी प्रकार अपने देश के लिए बलिदान होता रहूं।” यह मां बेटे की अंतिम भेंट थी।
सरकार ने काकोरी घटनाक्रम के सभी कथित अभियुक्तों को मौत की सजा अथवा उम्रकैद दे दी, परंतु इस टोली के प्रमुख प्रेरक चंद्रशेखर आजाद तक अभी सरकारी गुप्तचरों, एजेंटों और मुखबिरों के हाथ नहीं पहुंचे। चंद्रशेखर आजाद अपने बालपन से ही विद्रोही और क्रांतिकारी स्वभाव के थे। मात्र 14 वर्ष की आयु में इस बाल क्रांतिकारी ने उस समय चल रहे सविनय अवज्ञा आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। इस कथित विद्रोही को पुलिस अफसर ने 12 कोड़ों की सजा दी। कोड़े खाते हुए चंद्रशेखर भारत माता की जय का उद्घोष करता रहा। इस बाल क्रांतिकारी की चमड़ी उधड़ गई परंतु चेहरे पर डर या घबराहट की एक रेखा भी नहीं उभरी।
चंद्रशेखर आजाद ने एक बार अपने साथियों से कहा था – “मैं गिरफ्तार होकर पुलिस के साथ जंजीरों में बंधकर बंदरिया की तरह नाचता हुआ जेल में नहीं जाऊंगा। जब भी ऐसा अवसर आएगा मैं अपने रिवाल्वर से कई पुलिस कर्मियों को ढेर करके अंतिम गोली अपने सीने में दाग दूंगा।”
यही हुआ, इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में चंद्रशेखर आजाद ने अपने को घिरा हुआ देखकर अपने रिवाल्वर से 15 पुलिसियों को यमलोक पहुंचा कर 16वीं गोली अपने माथे पर दाग दी। चंद्रशेखर आजाद बालपन से लेकर जीवन के अंत तक ‘आजाद’ ही रहे। काकोरी घटनाक्रम और फिर सरदार भगत सिंह इत्यादि के साथ सांडर्स वध वध इत्यादि पराक्रमी क्रांतिकारी कार्यों में मुख्य भूमिका निभाने वाले चंद्रशेखर आजाद ने 27 फरवरी 1931 को जंगे आजादी के एक निडर सेनापति की भांति लड़ते हुए अपने वतन के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।
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