अरबी का प्राचीनतम ग्रंथ शायर-उल्-ओकुल
प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-12)
गुंजन अग्रवाल
अरबी कविताओं के संग्रह शायर-उल्-ओकुल की भूमिका में मक्का में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि के अवसर पर आयोजित होनेवाले वार्षिक मेले ‘ओकाज़’ (Okaz or Ukaz) का वर्णन है। स्मरण रहे, वर्तमान प्रचलित वार्षिक हज-यात्रा भी कोई इस्लामी-विशेषता नहीं है, बल्कि प्रागैस्लामी ‘ओकाज़’ (धार्मिक मेला) का ही परिवर्तित रूप है।
इस्तांबुल (Istanbul, Turkey) के प्रसिद्ध राजकीय पुस्तकालय Süleymaniye Library, जो प्राचीन पश्चिम एशियाई-साहित्य के विशाल भण्डार के लिए प्रसिद्ध है, के अरबी विभाग में प्राचीन अरबी-कविताओं का संग्रह ‘शायर-उल्-ओकुल’ (Eng.: Sayar-ul-Okul अर्थात् ‘कविता के बाद की सैर’) हस्तलिखित ग्रन्थ के रूप में सुरक्षित है। इस ग्रन्थ का संकलन एवं सम्पादन बग़दाद के ख़लीफ़ा हारून-अल्-रशीद के दरबारी एवं सुप्रसिद्ध अरबी-कवि अबू-अमीर अब्दुल अस्मई ने किया था, जिसे ‘अरबी-काव्य-साहित्य का कालिदास’ कहा जाता है।
सन् 1792 ई. में तुर्की के प्रसिद्ध शासक सलीम III (Selim III “Cilhandar”, “Ilhami” : 1789-1807) ने अत्यन्त यत्नपूर्वक किसी प्राचीन प्रति के आधार पर इसे लिखवाया था। इस दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थ के पृष्ठ लेखनयोग्य कच्ची रेशम की एक क़िस्म ‘हरीर’ (Hareer) के बने हैं, जिसके कारण यह सर्वाधिक मूल्यवान पुस्तकों में से एक है। इस ग्रन्थ के प्रत्येक पृष्ठ को सुनहरे सजावटी किनारी (बॉर्डर) से सुसज्जित किया गया है। जावा एवं अन्य स्थानों पर पाई गई अनेक प्राचीन संस्कृत-पाण्डुलिपियाँ ऐसे ही सुनहली किनारी से सुसज्जित हैं।
इस महान् ग्रन्थ का प्रथम अंग्रेजी-संस्करण सन् 1864 ई. में बर्लिन (Berlin, Germany) से प्रकाशित हुआ। द्वितीय संस्करण सन् 1932ई. में बेरुत (Beirut, Philistine) से प्रकाशित हुआ। सन् 1963 में प्रो. हरवंशलाल ओबराय (1925-1983) ने अपने इराक़-प्रवास के दौरान बग़दाद विश्वविद्यालय (University of Baghdad) में हुए अपने व्याख्यान के समय इस ग्रन्थ को वहाँ पुन:प्रकाशन हेतु सम्पादित होते देखा।
प्रो. ओबराय उस ग्रन्थ की महत्त्वपूर्ण कविताओं को नोट करके भारत लाए (1) कालान्तर में उन्होंने इन्हीं प्रागैस्लामी अरबी-कविताओं के आधार पर ‘A Glimpse of Pre-Islamic Arabia’ अथवा ‘Influence of Indian Culture on Arabia’ शीर्षक शोध-पत्र (2) लिखा, जिसे उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्त्व विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय तथा राजकीय संग्रहालय, एगमोर, मद्रास के संयुक्त तत्त्वावधान में दिनांक 12-14 फरवरी, 1982 को आयोजित ‘अखिल भारतीय इतिहास एवं संस्कृति सम्मेलन’ में पढ़ा। इस सम्मेलन में उपस्थित सम्पूर्ण देश के इतिहास एवं संस्कृति के लगभग दो सौ विद्वानों ने इस शोध-पत्र की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। इस सम्मेलन का उद्घाटन तमिलनाडु के तत्कालीन शिक्षा-मंत्री श्री सी. आरंगानायगम् ने किया था एवम् इसकी अध्यक्षता मद्रास विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ. एम. संतप्पा ने की थी। स्वयं मद्रास विश्वविद्यालय इसी शोध-पत्र पर डॉ. ओबराय को ‘डी. लिट्.’ की उपाधि देकर गौरवान्वित हुआ था। (3,4)
इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक ने बिड़ला मन्दिर (रीडिंग रोड, दिल्ली) से ही उस कविता को प्राप्त किया था— इसका उल्लेख उन्होंने अपने अनेक शोध-पत्रों में किया है। डॉ. ओबराय के इसी निबन्ध के आधार पर राम साठे (1920-2006), रामस्वरूप (1920-1998), अरुण शौरी (जन्म : 1941 ई.), ए. घोष, जय दुबाशी, हर्ष नारायण, अदिति चतुर्वेदी, सीताराम गोयल (1921-2003), डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल (1938-2019), महेश प्रसाद, मौलवी आलिम फ़ाज़िल, ईशदत्त शास्त्री, श्रीकृष्ण सिंह सोंढ़ आदि इतिहासकारों ने भी शोध-पत्र लिखा। स्मरण रहे, मूल कविता डॉ. ओबराय ने अपने इराक़-प्रवास के दौरान प्राप्त की थी।
‘शायर-उल्-ओकुल’ ग्रन्थ सम्प्रति अप्राप्य है। इसकी अनुपलब्धता के कारण कतिपय विद्वान् ‘मक्केश्वर महादेव’ के सम्पूर्ण कथानक को अनैतिहासिक एवं कपोल-कल्पित मानने लग गए हैं। किन्तु केवल ग्रन्थ की अनुपलब्धता के कारण ही उसे मनगढ़न्त घोषित नहीं किया जा सकता। संसार में कितने ही ग्रन्थ हैं, जो अब अप्राप्य हैं; यद्यपि पुस्तकालयों की सूची में उनका नाम उपलब्ध है। कितने ही ग्रन्थ चोरी से या कौड़ी के मोल खरीदकर बाहर ले जाए गए हैं। कितने ही ग्रन्थ योजनापूर्वक नष्ट कर दिए गए हैं। अनेक ग्रन्थ निजी पुस्तकालयों में सड़ रहे हैं। ‘शायर-उल्-ओकुल’ की एकाध प्रति कहीं-न-कहीं अवश्य होनी चाहिये। बिना किसी आधार के इतनी बड़ी इमारत खड़ी नहीं की जा सकती। जब डॉ. ओबराय ने स्वयं कहा है कि उन्होंने उस ग्रन्थ को देखा है, तब इसके विषय में सन्देह की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती। ‘शायर-उल्-ओकुल’ ग्रन्थ कहीं-न-कहीं अवश्य है, उसके प्रकाश में आने से अनुसन्धान का नया मार्ग खुलेगा।
अस्तु! ‘शायर-उल्-ओकुल’ ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में प्रागैस्लामी अरबी-कवियों का जीवनवृत्त एवं उनकी कविताएँ हैं। दूसरे भाग में इस्लाम के जनक मुहम्मद साहब की वाणी से लेकर ‘बानी उमय्या वंश’ (Bani Umayyads of Damascus : 661-750) के ख़लीफ़ाओं के काल तक के कवियों की जीवनियाँ एवं उनकी रचनाएँ संकलित हैं। तीसरे भाग में ‘बानी अब्बासी वंश’ (Bani Abbasids of Baghdad : 750-) के प्रारम्भ से लेकर संकलनकर्ता (अबू-अमीर अब्दुल असमई) के काल तक के कवियों की रचनाएँ संकलित हैं।
प्राचीन अरबी-कविताओं का यह संग्रह वस्तुतः एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है, जो प्राचीन अरबों के जनजीवन, शिष्टाचार, मर्यादाएँ, मनोरंजन, प्रचलित प्रथाओं तथा इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। इसके अतिरिक्त मुख्य रूप से प्राचीनकालीन अरबों के प्रधान तीर्थ ‘मक्का’ का भी बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है।
‘शायर-उल्-ओकुल’ की भूमिका में मक्का में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि के अवसर पर आयोजित होनेवाले वार्षिक मेले ‘ओकाज़’ (Okaz or Ukaz) का वर्णन है। स्मरण रहे, वर्तमान प्रचलित वार्षिक हज-यात्रा भी कोई इस्लामी-विशेषता नहीं है, बल्कि प्रागैस्लामी ‘ओकाज़’ (धार्मिक मेला) का ही परिवर्तित रूप है।
किन्तु, अरबी ‘ओकाज़’ क़ैथोलिक़-ईसाइयों के अबाध आनन्दोत्सव से भिन्न था। यह प्रतिभाशाली और विद्वान् व्यक्तियों को अरब पर समकालीन वैदिक-संस्कृति के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, साहित्यिक तथा अन्य विविध पक्षों पर वार्तालाप करने का उपयुक्त मंच प्रदान करता था। ‘शायर-उल्-ओकुल’ उल्लेख करता है कि उन वार्तालाप-वाद-विवादों में निकले हुए निष्कर्षों-निर्णयों का सम्पूर्ण अरब में व्यापक रूप से सम्मान किया जाता था। इस प्रकार, विद्वानों में परस्पर विचार-विमर्श करने एवं जनता को आध्यात्मिक शान्ति के लिए एकत्रित करने का स्थान उपलब्ध कराने की काशी-पद्धति का अनुसरण ही मक्का ने किया।
इस मेले का मुख्य आकर्षण मक्का के मुख्य मन्दिर मक्केश्वर महादेव (अब ‘अल्-मस्ज़िद-अल्-हरम्’) के प्रांगण में होनेवाला एक सारस्वत कवि-सम्मेलन था, जिसमें सम्पूर्ण अर्वस्थान से आमन्त्रित कवि काव्य-पाठ करते थे। ये कविताएँ पुरस्कृत होती थीं। सर्वप्रथम कवि की कविता को स्वर्ण-पत्र पर उत्कीर्णकर मक्केश्वर महादेव मन्दिर के परमपावन गर्भगृह में लटकाया जाता था। द्वितीय और तृतीय स्थानप्राप्त कविताओं को क्रमशः ऊँट और भेड़/बकरी के चमड़े पर निरेखितकर मन्दिर की बाहरी दीवारों पर लटकाया जाता था। इस प्रकार अरबी-साहित्य का अमूल्य संग्रह हज़ारों वर्षों से मन्दिर में एकत्र होता चला आ रहा था। यह ज्ञात नहीं है कि यह प्रथा कब प्रारम्भ हुई थी, परन्तु पैगम्बर के जन्म से 23-24 सौ वर्ष पुरानी कविताएँ उक्त मन्दिर में विद्यमान थीं।
(मक्केश्वर महादेव मंदिर में लगी इन कविताओं को किसने नष्ट किया?– अगले अंक में)
(लेखक महामना मालवीय मिशन, नई दिल्ली में शोध-सहायक हैं तथा हिंदी त्रेमासिक ‘सभ्यता संवाद’ के कार्यकारी सम्पादक हैं)
संदर्भ सामग्रीः
- प्रो. ओबराय ने अप्रैल, 1978 में दिए अपने एक भाषण, जिसका कैसेट हमारे पास उपलब्ध है, में ‘शायर-उल्-ओकुल’ की पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए कहा था— “सन् 1963 में अपने इराक़-प्रवास के दौरान इराक़ से लौटते समय मैंने उस ग्रन्थ का दर्शन किया और उसे अपनी डायरी में नोट किया था। भारत लौटने पर बाबू जुगलकिशोर बिड़ला ने एक बार मुझसे कहा कि कुछ रोचक प्रसंग सुनाइये तो मैंने उन्हें बताया कि इराक़ से मैं यह कविता लेकर आया हूँ। कविता सुनकर बिड़ला जी उछल पड़े। उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने तुरन्त उस कविता को एक बड़े लाल संगमरमर की पट्टी पर खुदवाकर दिल्ली के बिड़ला-मन्दिर में लगवाने का आदेश दिया। आज भी वह पत्थर बिड़ला-मन्दिर में लगा हुआ है।”
- Influence of Hindu Culture on Various Religion, Published by Dr. Harbans Lal Oberoi Institute of Research & Social Development, Ranchi, 1997
- ‘A Research Paper read and applauded in the All India History & Culture Conference, held in Madras, under the joint auspices of the Deppts. of Ancient Indian History, Deptt. of Archaeology, Madras University and Government Museum, Egmore, Madras on 12th, 13th and 14th February’ 82. The conference which was attended by more than 200 scholars of History & Culture from all over the country was inaugurated by Thiru. C. Aranganayagam, Education Minister of Tamil Nadu and presided over by Dr. M. Santappa, Vice Chancellor, University of Madras.’
- यह जानकारी लेखक को डॉ. हरवंशलाल ओबराय के अनुज श्री ब्रजभूषणलाल ओबराय से सन् 2007 में प्राप्त हुई