अरुणाचल की बौद्ध संस्कृति से मेरा पहला साक्षात्कार

अरुणाचल की बौद्ध संस्कृति से मेरा पहला साक्षात्कार

नीलू शेखावत

अरुणाचल की बौद्ध संस्कृति से मेरा पहला साक्षात्कारअरुणाचल की बौद्ध संस्कृति से मेरा पहला साक्षात्कार

असम की ओर से अरुणाचल में प्रवेश करते ही बौद्ध सम्प्रदाय की सुगंध आने लगती है। ऊंचाई पर फरफराती रंगीन झंडियां बरबस हमारा ध्यान खींचती हैं। कहते हैं बौद्ध सम्प्रदाय में इन रंगीन झंडियों का विशेष महत्व है। कुछ लोग इन्हें पंचशील का प्रतीक मानते हैं तो कुछ पंचतत्वों का। अरुणाचल में इन्हें दारचो(क) कहा जाता है, जिन पर बौद्धों के पवित्र मंत्र लिखे होते हैं। ऊंचाई पर टांगने का मंतव्य यही कि इन मंत्रों को छूकर जितनी दूर तक हवा जाती है, उतनी दूर तक का वातावरण पवित्र हो जाता है।

दूसरे प्रकार की धम्म ध्वजा (शायद लुंगदर कहते हैं) वह होती है, जो किसी ऊंचे स्तंभ पर फहराई जाती है। मंत्रों का अंकन इस पर भी होता है, किंतु इसकी स्थापना किसी मठ आदि विशेष स्थान पर ही होती है और वर्ष में एक बार किसी विशेष दिन पर (विशेष रूप से नववर्ष लोसार पर) इन्हें बदला जाता है। पुराने हो चुके ध्वज का कपड़ा मिलना भी किसी सौभाग्य से कम नहीं।

स्कूली पढ़ाई पढ़ने वाले हम सबने बौद्ध सम्प्रदाय के बारे में न्यूनाधिक जानकारी तो प्राप्त की ही है, किंतु अरुणाचल का बौद्धत्व कुछ अर्थों में विशिष्ट है। यहां स्थानीयता का योग इसे अनूठा बनाता है। यहां का तिब्बती समाज देवी, देवता, भूत, पिशाच, तंत्र मंत्र और अवतारवाद में गहन आस्था रखता है।

यहां के गोम्पा (बौद्ध मंदिर) में सुनहरे धातुओं की मुकुट आभूषणों से युक्त विशाल मूर्तियां किताबी ज्ञानियों को विस्मित कर देती हैं। यद्यपि इस सम्प्रदाय के अध्येताओं के लिए इसमें विस्मय जैसा कुछ नहीं। सेस्सा से कुछ ऊंचाई पर जाते समय मार्ग में एक छोटे से गोम्पा ने हमारा ध्यान आकर्षित किया। पीली झालर और स्वर्ण मंडित कलश वाले इस पीताभ मंदिर में, जहॉं मैं बुद्ध की प्रतिमा होने की अपेक्षा कर रही थी, वहां कोई और मूर्ति थी। ज्ञात हुआ पद्म पर विराजित मुकुट व त्रिशूलधारी, छोटे छोटे नयन नक्श और पतली छोटी मूंछों वाले देवता बुद्ध नहीं, बुद्ध  के अवतार हैं।

ओह! यही पद्मसंभव हैं। तिब्बत में वज्रयान के प्रसारक (स्थानीय मान्यतानुसार प्रवर्तक) पद्मसंभव को राहुल सांकृत्यायन ने भले ही साधारण भिक्षु कहकर किनारे कर दिया हो, किंतु यहां के अधिकांश मंदिरों में यह बड़े ही ठरके से त्रिशूल कांधे पर धारे पूजित होते मिलेंगे।

दरअसल गुरु पद्मसंभव को तिब्बत में तिब्बती बौद्ध सम्प्रदाय के संस्थापकों में से एक माना जाता है, जो आठवीं सदी में भारत से तिब्बत गए थे। एक मान्यतानुसार पद्मसंभव के बारे में बुद्ध शाक्य मुनि की भविष्यवाणी कहती है-

“हे मेरे  शिष्य आनंद! मेरे जाने के बारह वर्ष बाद, (जिसे बारह सौ वर्ष माना गया) एक व्यक्ति जो मुझसे कहीं अधिक श्रेष्ठ होगा, जो कि संसार का भगवान होगा, उसका नाम पद्मसंभव होगा।”

मान्यता के अनुसार, बुद्ध अमिताभ ने चक्रवर्ती राजा इंद्रभूति को अपने पिता के रूप में चुना क्योंकि वे धर्म और प्रजा के पालक थे। राजा का कोई उत्तराधिकारी नहीं था, इसलिए राजा दिन रात दान करते, जिससे उसका पूरा खजाना खाली हो गया। दुबारा धन अर्जन  के लिए वह नाग रानी से मिलने के लिए समुद्र में नाग द्वीप  गए और इच्छाधारी मणि का वर मांगा। राजा की कहानी सुनकर नाग रानी को दया आ गई और उसने अपना सबसे कीमती मणिरत्न उसे दे दिया। जब वह महल लौट रहे थे, तभी उन्हें एक झील में लगभग आठ वर्ष का एक अद्भुत बालक एक बहुरंगी कमल के भीतर बैठा मिला। आश्चर्यजनक रूप से, बच्चा एक परिपक्व व्यक्ति की तरह बात करता रहा था। राजा ने इस दिव्य-बालक के साथ बातचीत के बाद, उसे अपना उत्तराधिकारी बनने के लिए कहा, जिसे बालक ने स्वीकार कर लिया।

पद्मसंभव जब बड़े हुए तब उन्हें लगा, राजा बनकर मानव जाति का आध्यात्मिक कल्याण संभव नहीं, इसलिए वे सन्यासी बन गए और उन्होंने अनेक रहस्यवादी साधनाएं कीं। अपनी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ाई। भारत के बौद्ध तांत्रिकों से तंत्र का ज्ञान प्राप्त किया और बाद में इस साधना पर अभ्यास करने के लिए अपने प्रमुख तिब्बती शिष्यों को भी यहां भेजा। हिमाचल प्रदेश में स्थित रिवालसर झील उन्हीं की स्मृति है।

राहुल सांस्कृत्यायन व तिब्बती सम्प्रदाय पर लिखने वाले अन्य विद्वान शांतरक्षित को पद्मसंभव के गुरु और तिब्बत में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में अंकित करते हैं, किंतु स्थानीय मान्यतानुसार वह भी इनके प्रशंसक थे। क्या ‘ॐ मणि पद्मे हुंम’ इन्हीं के नाम का जप है? मैं नहीं जानती।

पद्मसंभव के अतिरिक्त इन गुम्पाओं में शिव हैं, लक्ष्मी हैं, सरस्वती हैं, किंतु उनका स्वरूप नितांत बौद्ध है। यहां देवी-देवताओं के इतने विग्रह और प्रतीक विराजमान हैं कि जितने हिन्दू मंदिरों में भी नहीं मिलते। इन्हें शायद मंडल कहा जाता है। इनके चित्रण की एक विशिष्ट शैली है, जिसे थांगा पेंटिंग्स के नाम से जाना जाता है। जानकार इसका उद्गम नालंदा मानते हैं।

मंदिर के मुख्य विग्रह के बाजू में स्वाध्याय हेतु कई सारी डेस्क और गद्दीदार आसन क्रम से लगे हुए हैं। उन पर पांडुलिपि जैसे बिना बाइंड किए ग्रंथ, जिनकी लिपि शायद तिब्बती है, रखे हुए हैं। सभी डेस्कों पर चमकीले पारचे के कपड़ों का कवर! मैंने इस कपड़े का उपयोग गोम्पा के अतिरिक्त यहॉं किसी भी स्त्री पुरुष को किए नहीं देखा।

सब कुछ इतना शांत और व्यवस्थित मानो किसी प्राचीन ऋषि आश्रम की जीवंत व्याख्या हो। जिस वज्रयान को हमने पुस्तकों में वाममार्गी और न जाने क्या क्या कहकर कोसते हुए पढ़ा, उसका इतना सौम्य और सम्मानित रूप आपको विस्मित किए बिना न छोड़ेगा। किसी भी चीज को निकट से देखे बगैर पूर्वग्रह पालना ठीक नहीं। फिर यहां का बौद्ध सम्प्रदाय न शुद्ध बोन रहा, न शुद्ध बौद्ध है और न ही खाली वज्रयान। यहां यह सबका मिश्रण बनकर लोक रंग में रंगा हुआ है फिर सुंदर तो होना ही है।

इन गोम्पाओं की चित्रकारी के भी क्या कहने! सुदूर पहाड़ी और वन्य स्थानों में भी कला का सौंदर्य अद्वितीय है। पृष्ठ भाग में गोम्पा से जुड़े हुए ही तीन-चार कक्ष जो अपनी प्रकृति से किन्हीं एकांतसेवियों का निवास लग रहे थे, के प्रत्येक दरवाजे पर पैचवर्क और कशीदेकारी के परदे लगे थे, जो राजस्थान की याद दिला रहे थे। पूर्व और पश्चिम में कितना कुछ एक जैसा है। सचमुच कला की कोई सरहद नहीं होती।

गोम्पा में गोल पत्थर के कुछ शिला लेख भी दिखे, जिन पर तिब्बती भाषा में कुछ उत्कीर्णित था, शायद मंत्रादि हों। वहीं पर पानी से भरी प्लास्टिक की कुछ बोतलें भी रखी थीं। अभिमंत्रित जल हो सकता है इनमें। अरुणाचल के प्रत्येक घर मंदिर की तरह यहां भी दलाई लामा की तस्वीर विराजित की गई है। जिसे हम ‘दलाई’ उच्चारित करते हैं वह शब्द वास्तव में ‘त-ले’ है जो मंगोल लोगों की देन है। मंगोली भाषा में त ले का अर्थ ‘सागर’ होता है। पहले को छोड़कर बाकी सभी अवतारी लामाओं के नाम के अंत में ‘र्ग्य-म्छो’ नाम लगता है, जो सागर का ही पर्याय है। इसीलिए मंगोलों ने ‘त ले लामा कहना शुरू किया जो धीरे धीरे दलाई लामा बन गया।

मैंने राहुल सांकृत्यायन की तिब्बत में बौद्ध धर्म पुस्तक पढ़ी है। आज फिर से पढ़ रही हूं। मुझे इस सम्प्रदाय के बारे में और अधिक जानना है। तवांग जाने की इच्छा बलवती हो रही है, किन्तु इस बार तो संभव नहीं। सबसे बड़े तिब्बती बौद्ध केंद्र (मठ) की नाक के नीचे से वापस लौटना अखर रहा है। ईश्वर ने चाहा तो फिर आऊंगी।

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