आखिर इतना अधीर क्यों है विपक्ष?
कुमार अज्ञात
चीन से निपटना पाकिस्तान से निपटने जितना आसान नहीं है और सरकार को अपनी रणनीति बनाने के लिए निश्चित रूप से कुछ समय चाहिए, लेकिन इस अवधि में सरकार की हर बात पर अविश्वास प्रकट करना और गलत नेरेटिव फैलाना एक जिम्मेदार विपक्ष के लिए उचित नहीं है। देश के अन्य सभी दलों ने केन्द्र सरकार पर भरोसा जताया है और कांग्रेस अलग थलग दिख रही है। यह बात कांग्रेस, इसके कार्यकर्ताओं और इसके तथाकथित बुद्धिजीवियों को समझनी चाहिए।
हमारे देश में सत्ता हस्तांतरण लोकतांत्रिक प्रक्रिया के जरिए बहुत आसानी से होता रहा है। सभी राजनीतिक दलों ने जनता का आदेश मानते हुए इसे स्वीकार भी किया है। लेकिन 2014 के बाद और अब 2019 में जब से भाजपा को फिर से जनादेश मिला है, विपक्ष और खासकर कांग्रेस बहुत ज्यादा अधीर दिख रही है। देशहित से जुडे तमाम मुददों पर कांग्रेस तथा इसकी विचारधारा से प्रभावित और जुड़े हुए लोग जो लाइन लेते हैं और उस लाइन को व्यक्त करने के लिए जिस तरह नैरेटिव फैलाने का प्रयास करते हैं, वह यह दिखाता है कि सत्ता से दूर होना इस पार्टी और इसके पाले पोसे लोगों को कितना बेचैन कर रहा है।
हमारे यहां की चुनाव व्यवस्था और इसके बाद शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण पूरी दुनिया के लिए एक प्रेरणा रही है। विविध विचार, संस्कृतियों और भाषाओं वाले इस देश मे पंचायत से लेकर राज्य और देश तक सत्ता हस्तांतरण बहुत आसानी से होता आया है। इसके लिए हमारे देश के राजनीतिक दल और उनके करोड़ों कार्यकर्ता साधुवाद के पात्र हैं। जनता जो आदेश देती है, वे उसे शिरोधार्य करते हैं। यह एक स्वस्थ और परिपक्व लोकतंत्र की पहचान भी है, लेकिन पिछले छह वर्षों में केन्द्र में सत्ता से बाहर हुए दलों, विशेषकर कांग्रेस में जिस तरह की बेचैनी दिख रही है और इस बेचैनी के चलते वह जिस तरह देशहित को भी दरकिनार कर रही है, उससे भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं दिख रहे हैं।
हम अब तक यह देखते आए हैं कि जो भी दल विपक्ष में रहता है, वह सरकार की नीतियों की आलोचना तो करता है, जो उचित भी है, लेकिन जब देश की बात आती है और जब ऐसे मुददे सामने आते हैं कि हमें एक राष्ट्र के रूप में अपनी मजबूती दिखानी होती है तो विपक्ष सरकार के साथ खड़ा नजर आता है। पूरा देश जानता है कि अटल बिहारी वाजपेयी कांग्रेस के प्रखर आलोचक रहे, लेकिन जब 1971 के युद्ध के बाद हुई जीत के बाद इन्हीं वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा था। कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधि बना कर भेजा था। देश की आजादी के बाद 49 साल तक इस देश में कांग्रेस ने राज किया है, ऐसे में करगिल को छोड दें तो सारे युद्ध और बडे संकट कांग्रेस सरकारों के समय ही आए हैं, लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं कि तमाम तरह के वैचारिक टकराव और मतभेदों के बावजूद जब देश की बात आई तो विपक्ष ने पूरी तरह से तत्कालीन सरकारों का साथ दिया।
लेकिन आज हम स्थितियां बिल्कुल उलट देखते हैं। देश से जुड़े हर मुददे पर जिस तरह के बयान और विचार कांग्रेस के नेता, इनके कार्यकर्ता और इनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में जुड़ा रहा बुद्धिजीवी वर्ग प्रकट करता है, वह यह दिखाता है कि सवाल खड़े करने की वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर यह पूरा वर्ग सिर्फ अपना एजेंडा पूरा कर रहा है। वर्ष 2014 में कांग्रेस या यूं कहें कि यूपीए का सत्ता से बाहर होना जनता का स्वाभाविक निर्णय था और इसके पर्याप्त कारण भी मौजूद थे। शुरूआत में तो यह लगा भी कि कांग्रेस ने इसे सहर्ष स्वीकार किया है, लेकिन बाद में एक के बाद एक राज्यों में भाजपा की जीत के बाद कांग्रेस की बेचैनी बढ़ती गई और यह बेचैनी कई बार इस तरह सामने आई कि लगा यह दल राजनीति के अलावा कुछ नहीं जानता। कांग्रेस और इसके नेताओं ने पुलवामा, बालाकोट जैसे मसलों पर भी सरकार का साथ नहीं दिया। सेना की सफलताओं पर सवाल खड़े किए और हर मुददे को चुनाव से जोड़ कर देखा। हालांकि इसका नुकसान खुद कांग्रेस को ही हुआ और इसकी हार पहले से भी ज्यादा गहरी हो गई।
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में नागरिकता संशोधन विधेयक, ट्रिपल तलाक, रामजन्म भूमि जैसे मुददों पर सरकार के निर्णयों और सफलता ने कांग्रेस की बेचैनी को और बढ़ा दिया। शाहीन बाग जैसे आंदोलन खड़े किए गए और देश के नागरिकों के पूरे वर्ग को सरकार के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की गई। इन मुददों पर कांग्रेस की राजनीति समझ भी आती है, क्योंकि मुसलमान उसका बड़ा वोट बैंक है और अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए इसके नेताओं ने एड़ी चोटी का जोर भी लगाया।
लेकिन इसके बाद कोरोना और अब चीन के साथ सीमा विवाद वाले मुददे पर कांग्रेस के नेताओं का रुख बहुत निराश करने वाला है। कोरोना एक वैश्विक आपदा है जिससे निपटने में दुनिया के विकसित देश भी विफल रहे हैं। ऐसे में भारत जैसे देश में इससे निपटने के लिए केन्द्र सरकार ने जो कुछ किया, उसमें कांग्रेस और राज्यों में इसकी सरकारें सहयोग करतीं तो देश का नुकसान बहुत कम होता। प्रवासी श्रमिकों की समस्या सबसे पहले राजस्थान, महाराष्ट्र और दिल्ली जैसे कांग्रेस और इसके समर्थित दलों की सरकारों वाले राज्यों से शुरू हुई। इन्हें रोकने का प्रयास करने के बजाए इन सरकारों ने इस बात का प्रयास किया कि ज्यादा से ज्यादा श्रमिक उनके राज्यों से निकल जाएं, क्योंकि इनमें से बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों की है जहां भाजपा और इसके समर्थित दलों की सरकारें है। यह एक तरह से इन राज्यों में “अनरेस्ट“ फैलाने की कोशिश थी। राजस्थान से उत्तर प्रदेश श्रमिकों को बसों के जरिए भेजने का कांग्रेस का नाटक सबने देखा भी।
कोरोना के बाद अब चीन से सीमा विवाद वाले मामले पर भी कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बयान यह बता रहे हैं कि देश के संकट से ज्यादा इनके लिए राजनीति जरूरी है। हालांकि अपने बयानों के जरिए इसके नेता खुद ही सवालों के घेरे में आ रहे हैं, लेकिन पूरे देश में इस तरह का नेरेटिव फैलाने की कोशिश की जा रही है कि केन्द्र सरकार इस मामले में पूरी तरह विफल रही है और चीन का मुकाबला नहीं कर रही है, जबकि आज तक के इतिहास में चीनी सेना को हमारे सैनिकों द्वारा दिया गया यह सबसे कड़ा जवाब था और सरकार ने भी अब तक की सरकारों के मुकाबले चीन की कार्रवाई पर सबसे कड़ी प्रतिक्रिया दी है। चीन से निपटना पाकिस्तान से निपटने जितना आसान नहीं है और सरकार को अपनी रणनीति बनाने के लिए निश्चित रूप से कुछ समय चाहिए, लेकिन इस अवधि में सरकार की हर बात पर अविश्वास प्रकट करना और गलत नेरेटिव फैलाना एक जिम्मेदार विपक्ष के लिए उचित नहीं है। देश के अन्य सभी दलों ने केन्द्र सरकार पर भरोसा जताया है और कांग्रेस अलग थलग दिख रही है। यह बात कांग्रेस, इसके कार्यकर्ताओं और इसके तथाकथित बुद्धिजीवियों को समझनी चाहिए। राजनीति करना राजनीतिक दल का धर्म है। वह विपक्ष में है तो सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर सवाल खड़े करना और उनकी आलोचना करना भी उसका धर्म है, लेकिन समय, काल, परिस्थितियों का ध्यान रखना और भाषा का संयम रखना भी उसका धर्म है।
यह बात सही है कि जो दल 49 वर्ष तक सत्ता में रहा हो, उसके लिए और इन वर्षों के दौरान सत्ता सुख का प्रसाद पाने वाले इसके बुद्धिजीवियों के लिए यह कठिनाई का समय है, लेकिन देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के अपने कुछ नियम और परम्पराएं हैं, उनका सम्मान सभी को करना चाहिए और फिर यह तो वह वर्ग है जो लोकतांत्रिक मूल्यों और सहिष्णुता की जबरदस्त वकालत करता है। फिर आखिर क्यों जनता द्वारा खुद को नकारा जाना सहन नहीं कर पा रहा है? सवाल तो है, लेकिन क्या जवाब मिलेगा?
(ये लेखक के निजी विचार हैं)