आज के अफगानिस्तान में, भविष्य की आहट
बलबीर पुंज
आज के अफगानिस्तान में, भविष्य की आहट
अफगानिस्तान का हिंदू-सिख विहीन होना, अब अंतिम चरण में है। यहां 18 जून को काबुल स्थित करत-ए-परवान गुरुद्वारे में हुए आतंकवादी हमले, जिसमें दो लोगों (एक सिख सहित) की मौत हो गई थी- उसके बाद भारत सरकार ने हिंदुओं-सिखों को आपातकालीन ई-वीजा जारी कर दिया। इन सब लोगों के भारत लौटने पर शायद ही अफगानिस्तान में हिंदू-सिख-बौद्ध का नाम लेने वाला बचेगा। किसी समय विश्व का यह भू-भाग हिंदू-बौद्ध परंपरा का एक प्रमुख केंद्र था। यह विनाशकारी परिवर्तन लगभग एक हजार वर्ष में अपनी तार्किक परिणति में पहुंचा है। क्या इस सांस्कृतिक संहार पर खुलकर चर्चा नहीं होनी चाहिए? जिस दर्शन के कारण अफगानिस्तान में यह सब हुआ, क्या उसके रक्तबीज भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद नहीं? क्या अफगानिस्तान के वर्तमान में पाकिस्तान, बांग्लादेश और खंडित भारत में गैर-इस्लामी अनुयायियों के भविष्य को देखना गलत होगा?
तालिबान शासित अफगानिस्तान में शेष बचे इस अंतिम करत-ए-परवान गुरुद्वारे पर आतंकवादी हमले की जिम्मेदारी आतंकी संगठन ‘इस्लामिक स्टेट’ (आई.एस.) की अफगान इकाई आईएस खुरासन प्रोविंस (आई.एस.के.पी.) ने ली है। बकौल मीडिया, आईएसकेपी का कहना है कि उसने भारत में भाजपा द्वारा निलंबित-निष्कासित नेताओं- नूपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल द्वारा पैगंबर साहब के तथाकथित ‘अपमान’ का बदला लिया है। क्या वाकई ऐसा है? वर्ष 2020 में इसी जिहादी संगठन ने काबुल के एक अन्य गुरुद्वारे पर हमला करके 25 निरपराधों (अधिकांश सिख) को मौत के घाट उतार दिया था। लगभग आठ माह पहले तालिबानियों ने गैर-मुस्लिमों- विशेषकर हिंदू-सिखों से ‘इस्लाम अपनाने’ या ‘अफगानिस्तान छोड़ने’ में से कोई एक विकल्प चुनने के लिए कहा था। यही नहीं, चाहे हामिद करजई का शासन (2001-14) हो या फिर अशरफ गनी की सरकार (2014-21)– उसमें भी हिंदुओं-सिखों को निशाना बनाकर दर्जनों हमले हुए। 1970 के दशक में अफगानी हिंदुओं-सिखों की संख्या लगभग सात लाख थी, जिनकी संख्या गृहयुद्ध, मजहबी शासन और तालिबानी जिहाद के बाद निरंतर घटते हुए आज हाथों में उंगलियों जितनी रह गई है। अब यदि 18 जून की आतंकवादी घटना पैगंबर साहब के तथाकथित अपमान का बदला था, तो इस प्रकरण से दशकों पहले तक अफगान हिंदुओं-सिखों को किस ‘अपराध’ की सजा दी जा रही थी? क्या इसका उत्तर उन सभी के गैर-इस्लामी होने में नहीं छिपा?
आज जो कुछ अफगानिस्तान में हिंदू-सिखों ने झेला है, ठीक वैसा ही अनुभव उन्होंने अन्य गैर-मुस्लिमों के साथ इस्लामी पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी किया है। स्वतंत्रता के समय पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) में हिंदुओं-सिखों की जनसंख्या 15-16 प्रतिशत, तो पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में हिंदू-बौद्ध की संख्या 28-30 प्रतिशत थी। 75 वर्ष बाद इनकी संख्या क्रमश: डेढ़ प्रतिशत और नौ प्रतिशत भी नहीं रह गई है। इसका कारण उस कालक्रम में छिपा है, जिसमें उन्हें इस्लाम अपनाने के लिए विवश होना पड़ा, मजहबी उत्पीड़न से बचने के लिए भारत सहित अन्य देशों में पलायन करना पड़ा और जिसने इन विकल्पों की अवहेलना की- उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। कश्मीर में आज भी हिंदुओं को इसी नियति से गुजरना पड़ रहा है- आतंकियों द्वारा चिन्हित करके हिंदुओं को मौत के घाट उतारना, इसका प्रमाण है। यह ठीक है कि शेष खंडित भारत में इस्लाम के नाम पर इन मध्यकालीन गतिविधियों को खुलकर करना असंभव है। किंतु ‘लव-जिहाद’ के माध्यम से इसके कुप्रयास जारी है। बीते वर्ष ही उत्तरप्रदेश पुलिस ने एक बड़े इस्लाम मतांतरण गिरोह का भंडाफोड़ किया था। चिंताजनक बात यह है कि इस प्रकार के क्रियाकलापों को हिंदूविरोधी विचाराधाराओं (वामपंथ सहित) से प्रत्यक्ष-परोक्ष सहानुभूति मिलती रहती है।
करत-ए-परवान गुरुद्वारे पर हमले को लेकर अनेकों समाचारपत्रों और न्यूज चैनलों ने यह तो बताया कि कैसे अफगानिस्तान में हिंदुओं और सिखों की संख्या निरंतर घट रही है, किंतु किसी ने भी इस स्थिति के मुख्य कारणों और जिम्मेदार दर्शन पर चर्चा करने का साहस नहीं दिखाया। आज जैसा अफगानिस्तान दिखता है, वह सहस्राब्दी पहले ऐसा नहीं था। यहां तक, तब अफगानिस्तान नाम का कोई देश तक नहीं था। पुरातात्विक उत्खनन से भी स्पष्ट हो चुका है कि आज का अफगानिस्तान, भारतीय सांस्कृतिक विरासत का अंग रहा है। बारहवीं शताब्दी तक– वर्तमान अफगानिस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर मुख्य रूप से हिंदू-बौद्ध और शैव मत के प्रमुख केंद्रों में से एक था। वैदिक काल में अफगानिस्तान- भारत के पौराणिक 16 महाजनपदों में से एक गांधार था, जिसका वर्णन महाभारत, ऋग्वेद आदि हिंदू ग्रंथों में मिलता है। यह मौर्यकाल और कुषाण सम्राज्य का भी हिस्सा रहा, जहां बौद्ध मत फला-फूला। चौथी शताब्दी में कुषाण शासन के बाद छठी शताब्दी के प्रारंभ में हिंदू-बौद्ध बहुल काबुलशाही वंश का शासन आया, जो नौवीं शताब्दी के आरंभ तक रहा। इसके बाद हिंदूशाही वंश की स्थापना राजा लगर्तूमान के मंत्री कल्लर ने की, जिसके शासकों का कालांतर में महमूद गज़नवी से सामना हुआ।
नवंबर 971 में जन्मा गज़नवी जब 17 वर्ष की आयु में खलीफा बना, तब उसने प्रतिवर्ष भारत के विरुद्ध जिहाद छेड़ने की प्रतिज्ञा ली। 32 वर्ष के शासनकाल में वह केवल एक दर्जन से अधिक बार भारत पर हमला करने में सफल रहा, जिसमें उसने ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा लेकर तलवार के बल पर स्थानीय हिंदुओं-बौद्ध को इस्लाम अपनाने के लिए विवश किया, उन्हें मौत के घाट उतारा और लूटपाट के बाद सोमनाथ सहित कई मंदिरों-मूर्तियों को खंडित कर दिया। जब हिंदूशाही शासक गजनवी के हाथों पराजित हुए, तब क्षेत्र का मजहबी स्वरूप और चरित्र बदलना प्रारंभ हुआ, जिसमें सुन्नी इस्लाम का वर्चस्व स्थापित हुआ- जिसका प्रभाव वर्तमान अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भी प्रत्यक्ष है। उसी गज़नवी मानसिकता से प्रेरित होकर बामियान में चौथी-पांचवी शताब्दी में निर्मित भगवान बुद्ध की जिस विशालकाय प्रतिमा को औरंगजेब आदि ने क्षति पहुंचाई थी, उसे तालिबानियों ने मार्च 2001 में अपने कमांडर मुल्ला उमर के निर्देश पर पूरी तरह ध्वस्त कर दिया।
काबुल के आतंकवादी हमले में एक दिलचस्प घटनाक्रम भी सामने आया। तालिबान ने जहां जवाबी कार्रवाई करते हुए आईएसकेपी के जिहादियों को मारने का दावा किया, तो सिखों से तालिबानी गृहमंत्री और घोषित आतंकवादी सिराजुद्दीन हक्कानी मिले। अभी अफगानिस्तान में तालिबान और आईएसकेपी के बीच प्रभुत्व का संघर्ष चल रहा है। वास्तव में, यह दोनों ऐसे जुड़वां भाई है, जिनका जन्म एक ही विषाक्त गर्भनाल से हुआ है, जो आपस में सहयोग भी करते हैं और एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से भी देखते हैं। तालिबान और आईएसकेपी दोनों ही इस्लाम के प्रति निष्ठा रखते हैं और गजनवी मानसिकता को अंगीकार किए हुए हैं, किंतु दोनों में रणनीतिक अंतर है। आईएस के लिए मुसलमानों में राष्ट्रीयता, नस्लीय और भोगौलिक पहचान का कोई अर्थ नहीं, जबकि तालिबान अफगानी पहचान से जुड़ा है। तालिबान जहां अफगानिस्तान तक सीमित रहना चाहता है, वही आईएस स्वयं को वैश्विक बनाने पर आमादा है।
इस पृष्ठभूमि में आज जैसा पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान दिख रहा है, क्या खंडित भारत भविष्य में उसका एक संस्करण बन सकता है? इस भयावह आशंका का स्पष्ट कारण उस परिदृश्य में मिलता है, जिसमें मुस्लिम समाज का एक वर्ग आज भी उन इस्लामी आक्रांताओं- गजनवी, गौरी, बाबर, औरंगजेब, अब्दाली, टीपू सुल्तान आदि को अपना नायक मानता है, जिनके चिंतन और क्रियाकलापों ने ही भारतीय उपमहाद्वीप के एक तिहाई से अधिक क्षेत्र को हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन आदि स्थानीय निवासियों से मुक्त कर दिया है।