आपातकाल : अनुशासन का शर्मनाक पर्व (भाग दो)
जयराम शुक्ल
कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ का नारा इंदिरा इज इंडिया गली कूँचों तक गूंजने लगा। इसी बीच मध्यप्रदेश में पीसी सेठी को हटाकर श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री बनाया गया। समाचार पत्रों की हालत यह कि पहले पन्ने से लेकर आखिरी तक इंदिरा गांधी, संजय गाँधी उनके चमचों की खबरों से पटे। हर सप्ताह कहीं न कहीं रैलियाँ, सभाएं। भीड़ जोड़ने का काम स्कूल के प्राचार्यों, हेडमास्टरों को दे दिया गया। शहर में कोई बड़ा नेता आता तो स्कूलों के सामने बसें लगवा दी जातीं और रैली सभाओं में हम बच्चे भीड़ बढ़ाने, नारे लगाने के लिए भेजे जाते।
जब नवमी पढ़ रहा था तभी श्यामाचरण शुक्ल का हमारे शहर दौरा बना। वे यहाँ हवाई जहाज से आने वाले थे। उनकी सभा के लिए यहाँ के सबसे बड़े खेल के मैदान में पंडाल लगाया गया। मेरी याद में इतना बड़ा पंडाल आज तक नहीं देखा। जिस दिन मुख्यमंत्री को आना था, चार बसें स्कूल के दरवाजे पर लगवा दी गईं। कक्षाएं स्थगित कर बच्चों को बस में हवाई पट्टी भेज दिया गया। वहां पता चला कि श्यामाचरण शुक्ल आने वाले हैं, हम लोगों को उनका स्वागत करना है।
पहले तो अच्छा लगा कि जिंदगी में पहली बार निकट से हवाई जहाज और मुख्यमंत्री देखने को मिलेंगे। लेकिन घंटे भर इंतजार करते-करते मुट्ठियों में रखे गेंदे के फूल सूखने लगे जो हम बच्चों को मुख्यमंत्री के ऊपर बरसाने थे। हम प्यास से बिलबिलाने लगे। भूख भी लग आई, ऊपर से क्वाँर-कार्तिक की तेज धूप। कुल मिलाकर कर पहली बार इमरजेंसी इतनी जालिम लगी।
नेता पर बरसाने के लिए दिए गए फूल ही चबाकर कर भूख शांत करने की जैसी ही चेष्टा की वैसे ही नारा गूँज उठा ..श्यामा भैय्या आए हैं, नई रोशनी लाए हैं। वस्तुस्थिति यह थी कि हम बच्चों के आँखों के सामने दिन-दोपहर ही भूख-प्यास के मारे अँधेरा छाने लगा था। सामने से खुली जीप पर बंद गले की नीली कोट पहने श्यामाचरण जी मुस्कराते हुए निकल गए। हम लोग कैसे भी वापस शहर पहुंचे.. और शेष समय इमरजेंसी और उसके नेताओं को गरियाते हुए बिताया जिनकी वजह से भूखे-प्यासे मरना पड़ा।
शाम को कौतूहल देखने सभा स्थल गए तो पता चला कि यहां भीड़ जोड़ने का जिम्मा दूसरे स्कूलों पर है। सभा में स्कूली बच्चों के झुंड थे। उधर नेताओं के भाषण चल रहे थे। शाम की आकाशवाणी की न्यूज बुलेटिन में मुख्यमंत्री की रैली और सभा में उमड़ी भारी भीड़ का जिक्र था और स्थानीय अखबारों का पहला पन्ना उनकी तस्वीरों व भाषणों से भरा था। समूचे देश में यही चल रहा था। जमीन उत्तरोतर खिसक रही थी, पर प्रायोजित भीड़ ऊपर के नेताओं को ऐसे ही चकमा देती रहती। 77 में भीड़ और रैलियों के ऐसे ही खुफिया फीडबैक की वजह से इंदिरा जी आम चुनाव के लिए राजी हुईं।
आपातकाल हटा और नेता लोग जेल से छूटने लगे। फिर चुनाव हुआ। जिसमें जेपी के संरक्षण में बनी जनता पार्टी की सरकार ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार को हटा दिया। इस साल मैं दसवीं पढ़ रहा था। तब तक मैं यमुना प्रसाद शास्त्री के परिवार में एक सदस्य के तौर पर शामिल हो चुका था। उनकी आभा की छाया में रहते हुए मोरार जी भाई देसाई, चंद्रशेखर, बाबू जगजीवन राम, मधु दंडवते, सुरेंद्र मोहन, राजनारायण आदि दिग्गजों को निकट से देखा। किसी नेता के यहां बड़े-बड़े हाकिम अफसर कैसे ड्यूटी बजाते हैं, यह भी देखा। उन पुलिस वालों को भी देखा जिन्होंने आपातकाल में जिन नेताओं को हथकड़ियां पहनाईं थी, अब वे उनकी चिरौरी कर रहे थे। किशोरवय स्कूली छात्र के लिए यह कौतुक भी जबरदस्त था जो मेरी जिंदगी के हिस्से लिखा था।
हम लोगों ने राजनीति का दुरुपयोग भी किया। स्कूल में हमारी क्लास में बड़े अफसरों के कई बिगड़ैल बेटे जो हम देहाती छात्रों का मजाक उड़ाते थे, उनके अफसर पिताओं के नाम की सूची बना ली। शास्त्री जी के यहां जो भी मंत्री आते थे, उन्हें वही सूची थमाकर कहते कि इनको रीवा से भगा दीजिए। वैसे भी जनता पार्टी की प्रदेश सरकार में शास्त्री जी के कई शिष्य थे जो पहली बार में ही कैबिनेट मंत्री बन गए। बहरहाल ग्यारवीं में जब उन छात्रों को क्लास में नहीं देखा तो अंदाज लगा लिया कि निश्चित ही इनके पिताओं को सरगुजा-बस्तर भेज दिया गया होगा। आपातकाल में उन मुख्यमंत्री जी के स्वागत में जितने कष्ट झेले थे, जनता राज के मजे ने उसे भुला दिया। स्कूली छात्र जीवन में आपातकाल लगने और फिर उतरने की इतनी ही राम कहानी से अपन का वास्ता पड़ा। अब आगे वह सब जो इंदिरा के आपातकाल के बारे में पढ़ने व सुनने को मिला…
जनता सरकार कैसे गिरी.. ऐसे विषयों की समझ तब बननी शुरू हुई, जब 1983-84 में पत्रकारिता का छात्र था। समाचारों की दुनिया के मुहाने पर बैठकर जल्द ही उन सभी जिज्ञासाओं का समाधान तलाशता था, जो बेचैन किया करती थीं। अखबारों में व्यंग्य स्तंभों का चलन उन दिनों काफी लोकप्रिय था। इसी तरह के किसी स्तंभ में एक किस्सा पढ़ा जो कुछ यूँ था – दैवयोग से एक बार किन्नरों के घर एक बच्चा पैदा हुआ। दूसरों के बच्चों के जन्मने पर नाचने गाने वाले किन्नरों के ही घर जब यह सुअवसर आया तो फिर कैसा जश्न हुआ होगा समझ सकते हैं। नाचने गाने की खुशी के बाद इस बात पर बहस चल पड़ी कि बच्चे को नाम किसका दिया जाए। बहस गंभीर होती गई। एक बूढ़े किन्नर ने सुझाया कि वरिष्ठता के क्रम में सभी एक-एक करके उसका बाप होने का सुख लें। समझाइश काम कर गई। सब बारी-बारी से उसे लाड प्यार करने लगे। जब आखिरी किन्नर की बारी आई तो उसने देखा बच्चे की सांस थम गई है, नाड़ी भी नहीं चल रही। यानि कि लाड प्यार के चक्कर में इतना भी ख्याल नहीं रहा कि इसे दूध और घुट्टी वगैरह भी चाहिए। बच्चे की आसमयिक मौत हो गई। 77 की जनता पार्टी की सरकार 80 आते-आते इसी तरह गिर गई।
इमरजेंसी क्यों लगी? इस पर दर्जनों पुस्तकें आ चुकी हैं। हजारों से ज्यादा विश्लेषण और आलेख छप चुके। अब भी हर साल इसकी बरसी पर लेख आते हैं। आपातकाल को दूसरी गुलामी कहा जाता है। गिरफ्तार होने वाले अब लोकतंत्र के सेनानी हैं।कई सरकारों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भाँति पेंशन बाँध दी और भी कई सुविधाएं दी।
आपातकाल को नागरिक अधिकारों पर सबसे बड़ा हमला माना गया। आज भी इसकी डरावनी तस्वीर पेश की जाती है। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी आत्मकथा “बियांड द लाइन्स” में आपातकाल के कारणों का तथ्यपरक ब्योरा दिया है। लेकिन इस ब्योरे के पूर्व की कथा संक्षेप में जाननी चाहिए।
सन् 71 में बांग्ला विजय ने इंदिरा जी के कद को लार्जर दैन लाइफ बना दिया। कांग्रेस के ओल्ड गार्ड्स (नेहरूकालीन नेता) जल्द ही ठिकाने लगा दिए गए। अटलबिहारी वाजपेयी जैसे नेता ने लोकसभा में इंदिरा जी को दुर्गा कहकर महिमामंडित किया। इंदिरा जी के कद के सामने सब बौने थे। बैंकों और खदानों के राष्ट्रीयकरण तथा राजाओं के प्रिवीपर्स को बंद करने के फैसले की वजह से दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां भी इंदिरा जी की भक्त हो गईं। जनसंघ का दायरा सिमटा हुआ था। सोशलिस्ट पार्टियों का सबसे प्रभावी धड़ा कांग्रेस में शामिल हो चुका था। शेष सोशलिस्टी आपस में लड़ झगड़ रहे थे। विपक्ष में ऐसा कोई नहीं था जो इंदिरा जी की स्वेच्छाचरिता के विरुद्ध कुछ कह सके।
इंदिरा जी अपने मुख्यमंत्रियों को ताश के पत्तों की तरह फेंट रहीं थी। इसी फेंटाफेंटी के बीच बिहार के समस्तीपुर में ललित नारायण मिश्र की हत्या हो गई। गुजरात में चिमनभाई पटेल सरकार के विरुद्ध छात्र और युवाओं ने मोर्चा खोल लिया। ‘गली-गली में शोर है चिमनभाई चोर है’ का नारा इसी आंदोलन में गूंजा था, जिसने बाद में अन्य नेताओं से जुड़कर विस्तार पाया। बिहार में अब्दुल गफूर के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। यहां भी छात्र इस सरकार के विरुद्ध आंदोलित थे।
इस बीच राजनीति से दूर सर्वोदय आंदोलन से जुड़े जयप्रकाश नारायण से सत्ता की स्वेच्छाचरिता देखी नहीं गई। उन्होंने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा कि वे अपने मुख्यमंत्रियों के भ्रष्टाचार और सत्ता की स्वेच्छाचरिता पर लगाम लगाएं। एकछत्र साम्राज्ञी बन चुकीं इंदिरा जी को जेपी की यह समझाइश नागवार लगी। जबकि जेपी ने यह पत्र साधिकार लिखा था क्योंकि वे इंदिरा जी को अपनी भतीजी मानते थे। यह इतिहास जानता है कि कमला नेहरू और जेपी के बीच सीता और लक्ष्मण जैसे रिश्ते रहे। जेपी नेहरू द्वारा प्रस्तावित उप-प्रधानमंत्री का पद भी अस्वीकार कर चुके थे।
जेपी के पत्र के जवाब में इंदिरा जी ने समाचार पत्रों में यह तंज कसा कि “उद्योगपतियों के पैसे से पलने वाले कुछ लोग भ्रष्टाचार की बात करते हैं”। यह बयान पढ़कर जेपी ने अपना आर्थिक ब्योरा, आमदनी और खर्च, सब कुछ लौटती डाक से इंदिरा जी को भेज दिया। इंदिरा जी के इस बयान को उन्होंने एक चुनौती के मानिंद लिया और उसी दिन तय कर लिया कि इस स्वेच्छाचारी सरकार को जड़ से उखाड़ फेकेंगे।
विपक्ष लस्त-पस्त था। जेपी ने छात्रों और युवाओं में उम्मीद देखी। उन्होंने गुजरात जाकर छात्रों के “नवनिर्माण आंदोलन” को अपना समर्थन दिया। आंदोलन की चरम परिणति चिमनभाई सरकार के त्यागपत्र से हुई। इस सफलता की आँच पूरे देश ने अनुभव की। बिहार में अब्दुल गफूर सरकार के विरुद्ध मोर्चा खुल गया। जेपी ने ‘युवा छात्र संघ’ की स्थापना करके देश भर के विद्रोही छात्रों और युवाओं को जोड़ लिया।
बिखरे समाजवादी, पुराने गांधीवादी उनसे जुड़ने लगे और अभियान में जनसंघ भी जुड़ गया। नानाजी देशमुख जेपी के सहयोगी व प्रमुख रणनीतिकार बनकर उभरे। देश भर में विपक्षी एकता की एक लहर सी चल पड़ी। सबके निशाने पर इंदिरा गांधी ही थी। जन आक्रोश को समझने की जगह उसे सख्ती से कुचला जाने लगा।
इसी बीच यानि कि 1974 में मध्यप्रदेश में दो बड़ी राजनीतिक घटनाएं हुईं। सेठ गोविंददास के निधन से जबलपुर लोकसभा सीट रिक्त हो गई। भोपाल दक्षिण विधानसभा सीट में भी कुछ ऐसी ही स्थितियों के चलते उप चुनाव की नौबत आ गई। जबलपुर से छात्र नेता शरद यादव और भोपाल दक्षिण से बाबूलाल गौर संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी घोषित हुए। दोनों ही चुनावों में काँग्रेस की बुरी गत हुई। इन परिणामों ने विपक्षी एकता के लिए फेवीकोल का काम किया।
बियांड द लाइंस में कुलदीप नैय्यर लिखते हैं – इंडियन एक्सप्रेस में नियुक्ति के कुछ दिन बाद ही गोयनका जी से यह सुनकर हैरान हो गया कि इंदिरा जी संविधान को भंगकर जेपी सहित तमाम विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंसना चाहती हैं। मैंने तो यह समाचार नहीं बनाया, लेकिन जनसंघ के मुखपत्र मदरलैंड ने इसे मुखपृष्ठ पर छापा।” इंदिरा जी ने जेपी आंदोलन को निजी चुनौती की तरह लिया।
कभी-कभी संयोग या दुर्योग स्वमेव जुड़ते जाते हैं। 12 जून, 1975 का इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला कुछ इसी तरह का ही था। रायबरेली से इंदिरा गांधी के चुनावी प्रतिद्वंदी रहे सोशलिस्टी राजनारायण की याचिका पर फैसला देते हुए जज जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। इस फैसले की दो मामूली कारण थे। एक ओएसडी यशपाल कपूर ने पीएमओ से बिना त्यागपत्र दिए चुनाव प्रचार में हाथ बंटाया, दूसरा इंदिरा जी की सभाओं के लिए यूपी सरकार के अफसरों ने व्यवस्थाएं कीं। ऐसे आरोप प्रायः हर दूसरी चुनावी याचिका में लगते हैं, पर इस फैसले से एक इतिहास रचा जाना बदा था। हाईकोर्ट ने अपील के लिए 15 दिन दिए थे। इसी बीच 15 जून 1975 को जेपी ने पटना के गांधी मैदान में छात्रों युवाओं की विशाल जनसभा में संपूर्ण क्रांति का आह्वान कर दिया।
कुलदीप नैय्यर लिखते हैं – चुनाव से जुड़ा कानून कितना ही सख्त क्यों न हो, मेरा अपना ख्याल था कि यह फैसला एक चींटी को मारने के लिए हथौड़े का प्रयोग करने की तरह था। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश कृष्णा अय्यर ने फैसले पर स्टे दे दिया और अपील के निपटारे तक के लिए व्यवस्था दी कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट से लेकर दिल्ली के सुप्रीमकोर्ट तक के फैसलों पर कालांतर में अंगुलियां उठीं।
आश्चर्य की बात यह कि सुप्रीम कोर्ट में फैसले के विरुद्ध अपील करने वाले वीएन खेर बाद में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस तक पहुंचे। जबकि, यह अपील उन्होंने इंदिरा जी के निर्देश पर नहीं स्वतः ही उत्साहित होकर दायर की थी।
खैर, इंदिरा जी इस्तीफा देने का मन बना चुकीं थी। उप चुनाव से चुनकर आने तक के लिए कमलापति त्रिपाठी को प्रधानमंत्री बनने की बात भी हो चुकी थी। यदि ऐसा होता तो लोकतंत्र में आपातकाल का कलंक टल जाता। पर, जिन दो लोगों ने इसे टलने नहीं दिया उनमें से एक थे संजय गांधी और दूसरे पं. बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे। दून स्कूल से फेल और इंग्लैण्ड में रोल्स रायस में मैकेनिकी कर नककटाई करवा चुके संजय गांधी की महत्वाकांक्षा परवान पर थी और यह अच्छा मौका था, जब सत्ता के सूत्र वे अपने हाँथों सँभाल लें।
परिणाम यह हुआ कि कैबिनेट की स्वीकृति लिए बगैर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलकर 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। इसके बाद जो कुछ हुआ वह देश ने और समूची दुनिया ने देखा।