भारत के इतिहास में जनजातीय समाज का अद्वितीय योगदान रहा है
कृष्ण मुरारी त्रिपाठी अटल
भारतीय सनातन संस्कृति आक्रमणकारियों के निशाने पर रही है। भारत की सामाजिक राजनीतिक-आर्थिक-आध्यात्मिक -वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की सर्वोत्कृष्टता तथा समृद्धि को देखकर विभिन्न विदेशी शक्तियों यथा- तुर्कों, मंगोलों, अरबों, मुगलों व अंग्रेजों ने तलवार की नोक एवं आपसी फूट तथा उदारवादी, क्षमादान की प्रवृत्ति का फायदा उठाकर समय-समय पर आक्रमण कर यहाँ की सत्ता एवं संसाधनों पर ही कब्जा नहीं जमाया अपितु, भारत की संस्कृति को विखण्डित करने के लिए क्रूरतम अत्याचारों से राष्ट्र को अपूर्णीय क्षति पहुँचाई है।
क्रूरताओं का अध्याय भीषण त्रासदियों से भरा पड़ा है। आक्रान्ताओं ने कभी हमारे असंख्य मन्दिरों को खण्डहर में बदल दिया तो कभी हमारे मन्दिरों पर गुम्बद बनवाकर उन्हें मस्जिदों का रूप दे दिया। हमारे धर्मग्रंथों को जलाया, स्त्रियों की इज्जत लूटी एवं नरसंहार से भारत की धरती को रक्त रंजित किया।
पाश्चात्य शैली का अन्धानुकरण कर भारत की आत्मा को संविधान में सेक्युलरिज्म की विष बेल के सहारे छलनी करने वाले सत्ताधारियों तथा उनके संरक्षण में वामपंथियों ने अकादमिक स्तर पर हमारे इतिहास बोध को विकृत तो किया ही साथ ही चेतना विहीन करने का घिनौना खेल भी खेला है। आक्रान्ताओं के चंगुल में वर्षों तक जकड़ी रहने एवं स्वातंत्र्योत्तर काल के बाद तक बौद्धिक नक्सलियों द्वारा दीमक की तरह खोखला करने के बावजूद भारतीय सनातन संस्कृति आज भी अपने अस्तित्व को बरकरार रखे हुए है।
भारत को खंडित करने वाले बाहरी एवं आन्तरिक आक्रान्ताओं की कुटिलताओं-कुठाराघातों के बावजूद भी ये षड्यन्त्रकारी भारत की संस्कृति को पूर्ण रूपेण नष्ट करने में विफल रहे हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति की जड़ें अनन्त गहराइयों से अपने विशालकाय सांस्कृतिक-आध्यात्मिक, परिवर्तनशील परिपाटी के माध्यम से धरातलीय चेतना में मानव के प्राण की भाँति रची-बसी हैं।
अंग्रेजों ने भी अन्य आक्रान्ताओं की तरह ही हमारी संस्कृति को नष्ट किया, कन्वर्जन करवाया, हमारे धर्मग्रंथों में मिलावट की तथा हमारी सनातनी शिक्षा व्यवस्था सहित हमारी चेतना को मूर्छित करने के ध्वंसात्मक कृत्य व्यापक पैमाने पर किए। ईसाई मिशनरियों ने जनजातियों का शोषण किया, भोले-भाले जनजातीय समाज को प्रलोभनों में फँसाकर उनका मतांतरण (conversion) करवाया, जिसका सिलसिला आज तक नहीं थम पाया।
अपने उन्हीं मंसूबों को मूर्तरूप देने के लिए ईसाई मिशनरी, भारत के अन्दर छिपे वामपंथी, बौद्धिक नक्सलियों द्वारा जनजातीय समाज को सनातन हिन्दू समाज से अलग बतलाने एवं उनकी जड़ों को काटने के कुत्सित षड्यंत्र लगातार चलाए जा रहे हैं। हमारे जनजातीय समाज को कभी “मूलनिवासी” तो कभी उन्हें भ्रमित करते हुए उनके अधिकारों के हनन की झूठी कहानियों से बरगलाने के लिए आर्थिक प्रलोभनों द्वारा लुभाकर अलगाववाद लाने के प्रयास किए जा रहे हैं, जबकि भारतीय संविधान में हमारे जनजातीय समाज के उत्थान एवं उनके अधिकारों के पर्याप्त उपबंध किए गए हैं।
इस षड्यंत्र में वैश्विक यूरोपीय शक्तियाँ पर्दे के पीछे से काम कर रही हैं। इसी कड़ी में विश्व मजदूर संगठन (आईएलओ) के ‘इंडिजिनस पीपुल’ शब्द का अर्थ प्रायः ‘मूलनिवासी शब्द’ से लगाया जाता है, जबकि विभिन्न राष्ट्रों के सम्बन्ध में इसका अर्थ परिभाषित करना अत्यन्त कठिन है। भारत के लिए मूलनिवासी तथा इण्डिजिनस पीपुल को परिभाषित करना कठिन है क्योंकि भारतीय इतिहास, आधुनिक इतिहास की थ्योरी से अलग चलता एवं माना जाता है तथा हमारा धार्मिक एवं पौराणिक कालक्रम लाखों-करोड़ों वर्षों के बोध का स्पष्ट संकेत करता है।
अब ऐसे में ‘इण्डिजिनस’ पीपुल की व्याख्या करना या कि सुपरिभाषित करना भारतीय दृष्टि के अनुसार महत्वहीन है। आधुनिक इतिहास में वर्णित आक्रांताओं के अलावा भारत भूमि में निवास करने वाला एवं राष्ट्र की पूजा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति यहाँ का ‘मूलनिवासी’ है। मूलनिवासी या अन्य किसी भी शाब्दिक भ्रमजाल के माध्यम से भारतीय जन को परिभाषित या पृथक्करण करना तो राष्ट्र की संस्कृति में ही नहीं है।
किन्तु विश्व मजदूर संगठन के गठन के उपरांत इसी ‘इण्डिजिनस पीपुल’ शब्द के भ्रमजाल में 13 सितम्बर 2007 को संयुक्त राष्ट्र (UN) द्वारा विश्व के जनजातीय समाज के अधिकारों के लिए घोषणा पत्र जारी किया गया। प्रतिवर्ष 9 अगस्त ‘अन्तरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, जिसकी घोषणा दिसंबर 1994 में की गई थी। भारत ने भी राष्ट्र की प्रजातांत्रिक प्रणाली एवं संवैधानिक दायरे के अनुसार सम्प्रभुता, अस्मिता, अखण्डता के आधार पर इस पर अपनी सहमति दी और माना गया कि इसका पालन भारतीय संविधान के अनुरूप ही किया जाएगा।
आज जनजातीय समाज को सनातन हिन्दू धर्म से अलग बतलाने के प्रयास एवं षड्यंत्र हो रहे हैं। इस ओर ध्यानाकर्षित करने की आवश्यकता है कि भारत के इतिहास में जनजातीय समाज का योगदान कभी भी किसी से कम नहीं रहा है। हमारे जनजातीय समाज में समय-समय पर ऐसे महापुरुष हुए, जिन्होंने अपनी सनातन संस्कृति पर हो रहे कुठाराघातों /धर्मान्तरण के विरुद्ध संगठित होकर पुरजोर विरोध किया।
महाराणा प्रताप के वन निर्वासन के दौरान उनकी सेना एवं सभी प्रकार का सहयोग करते हुए सरदार पूंजा जिन्हें बाद में महाराणा प्रताप ने ‘राणा’ की उपाधि दी, के नेतृत्व में हल्दीघाटी के युद्ध में मुगलों को परास्त करने में उनकी व सम्पूर्ण भील बन्धुओं की महती भूमिका रही, जिसकी निशानी आज भी ‘मेवाड़ और मेयो कॉलेज’ के चिन्ह में अंकित है।
टाट्या भील, जिन्हें जनजातीय समाज देवतुल्य पूजता है, ने मराठों के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध सशक्त लड़ाई लड़ी। गुलाब महाराज संत के रूप में विख्यात हुए तथा उन्होंने जनजातीय समाज का आह्वान धर्मनिष्ठा के लिए किया। कालीबाई एवं रानी दुर्गावती जैसी वीरांगनाओं के शौर्य एवं बलिदान ने जनजातीय समाज की नारी शक्ति के महानतम् त्याग एवं शौर्य की गूंज से सम्पूर्ण राष्ट्र में चेतना का सूत्रपात किया।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भीमा नायक ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए राष्ट्रयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दी। जनजातीय समाज के गोविन्द गुरु एवं ठक्कर बापा के समाज सुधार के कार्यों एवं उनकी सनातन निष्ठा से भला कौन परिचित नहीं होगा?
जनजातीय समाज के गौरव भगवान बिरसा मुंडा ने सनातन हिन्दू धर्म के प्रसार एवं ईसाई धर्मान्तरण के विरुद्ध रणभेरी फूँकी थी। उन्होंने मतांतरित बन्धुओं की सनातन हिन्दू धर्म की वैष्णव शाखा में वापसी के लिए ‘उलगुलान’ के बिगुल के रूप में क्रांति की ज्वाला को प्रज्ज्वलित किया था। वही तो हमारे सनातन हिन्दू समाज की सांस्कृतिक विरासत है। यदि जनजातीय समाज हिन्दू धर्म से अलग होता तो क्या भगवान बिरसा मुंडा धार्मिक पवित्रता, तप जनेऊ धारण करने, शाकाहारी बनने, मद्य (शराब) त्याग के नियमों को जनजातीय समाज में लागू करवाते?
ऐसे में यक्ष प्रश्न यही उठता है कि षड्यंत्रकारियों द्वारा जनजातीय समाज के गौरव एवं उनकी संस्कृति को नष्ट करने तथा उनकी सनातनधर्मिता को खंडित करने का षड्यंत्र नहीं तो क्या है?
सन् 1929 में गोंड जनजाति के लोगों के मध्य ‘भाऊसिंह राजनेगी’ ने सुधार आन्दोलनों में यह स्थापित किया था कि उनके पूज्य ‘बाड़ा देव’ और कोई नहीं, बल्कि शिव के समरूप ही हैं। भाऊसिंह राजनेगी ने धार्मिक पवित्रता का प्रचार करते हुए माँस-मदिरा त्याग करने का अह्वान किया था। इसी प्रकार उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में छोटा नागपुर के आराओं में ‘भगतों’ का सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए उदय, जिसमें उन्होंने गोरक्षा, धर्मान्तरण का विरोध, मांस-मदिरा त्याग करने का सन्देश देने वाली यात्रा एवं बलराम भगत का योगदान चिरस्मरणीय एवं इतिहास के पन्नों में दर्ज है।
अंग्रेजों द्वारा मिदनापुर (बंगाल) के लोधाओं को ‘अपराधी जनजाति’ घोषित कर दिया गया था। यह वही लोधा थे जो वैष्णव उपासना पद्धति में विश्वास रखते थे जो राजेंद्रनाथदास ब्रह्म के अनुयायी थे। असम की (सिन्तेंग, लुशई, ग्रेरो, कुकी) जनजातियों ने अंग्रेजों का विरोध किया था जो वैष्णव संत शंकरदेव के अनुयायी थे।
जनजातीय समाज में ऐसे अनेकानेक महापुरुष, समाज सुधारक, क्रांतिकारी हुए जिन्होंने सनातन हिन्दू संस्कृति, राष्ट्र की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करते हुए स्वयं को भारतीय मानस के ह्रदयतल में स्थापित कर लिया है। वामपंथियों/ईसाई मिशनरियों एवं बौद्धिक नक्सलियों द्वारा कभी आर्य आक्रमण की झूठी थ्योरी हो या ‘मूलनिवासी’ / विश्व आदिवासी दिवस के सहारे जनजातीय समाज को उनके पुरखों की संस्कृति से अलग करने एवं दिखाने के कुत्सित षड्यंत्र, जनजातीय समाज की अस्मिता, गौरव बोध को खत्म कर धर्मान्तरण के सहारे भारत की अखण्डता को खंडित करने का कुत्सित अभियान सफल नहीं होगा।