कश्मीर में अमन चैन के दुश्मन हैं इस्लामिक जिहादी

कश्मीर में अमन चैन के दुश्मन हैं इस्लामिक जिहादी

प्रमोद भार्गव

कश्मीर में अमन चैन के दुश्मन हैं इस्लामिक जिहादीकश्मीर में अमन चैन के दुश्मन इस्लामिक जिहादी​

कश्मीर घाटी में हिंसा और हत्या का नया दौर शुरू हुआ है।  इस्लामिक जिहादियों ने सरकारी विद्यालय में घुसकर एक सिख महिला  प्राचार्या सतिंदर कौर और हिन्दू शिक्षक दीपक पंडित की पहचान करके हत्या कर दी। जबकि मुस्लिम शिक्षकों को  छोड़ दिया। जिहादियों का पहचान-पत्र देखकर हत्या का तरीका बताता है कि अब इस्लामिक जिहादी घाटी में सांप्रदायिक-सद्भाव को रक्तरंजित कर देना चाहते हैं।  क्योंकि इसके पहले ये लोग अलग-अलग हमलों में तीन आम नागरिकों की हत्या कर चुके हैं। मारे गए लोगों में से एक कश्मीरी पंडित माखनलाल बिंदरू श्रीनगर के प्रसिद्ध दवा विक्रेता थे। दूसरी घटना श्रीनगर के लाल बाजार क्षेत्र में बिहार के गोलगप्पे बेचने वाले वीरेंद्र पासवान की हत्या थी। वह बिहार के भागलपुर का रहने वाला था। तीसरी घटना बांदीपोरा में घटी, जिसमें मोहम्मद सफी लोन की आतंकियों ने निर्मम हत्या कर दी थी। साफ है, इस्लामिक जिहादियों ने इनकी हत्या करके सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का प्रयास किया है। दरअसल घाटी की बदलती स्थिति को आतंकी कुबूल नहीं कर पा रहे हैं। नतीजतन वे सिलसिले वार बचे-खुचे अल्पसंख्यकों की हत्याएं करके ऐसी दहशत पैदा करना चाहते है कि घाटी से तीन दशक पहले खदेड़ दिए गए हिंदुओं की वापसी की जो आशाएं बंधी हैं, उन पर पानी फिर जाए। इस दहशतगर्दी के पीछे एक कारण यह भी है कि धारा-370 और 35-ए की समाप्ति के बाद विस्थापित गैर-मुस्लिमों की संपत्तियों से अवैध कब्जे हटाने की मुहिम तेज हो गई है। 1990 के बाद यह पहला अवसर है कि विस्थापितों की जायदाद से कब्जे छुड़ाकर वास्तविक भूमि-स्वामियों को संपत्ति सौंपी जा रही हैं। लिहाजा पाकिस्तान परस्त आतंकी चाहते हैं कि कश्मीरी हिंदुओं की वापसी मुश्किल बनी रहे।

कश्मीर का इकतरफा सांप्रदायिक चरित्र तब गढ़ना शुरू हुआ था, जब 31 साल पहले नेशनल कांफ्रेस के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री डॉ. फारूख अब्दुल्ला के घर के सामने सितम्बर 1989 में भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टीकालाल टपलू की हत्या जिहादियों ने कर दी थी। अलगाववादी हड़ताल तथा उग्र व हिंसक प्रदर्शन करने लगे। 9 जनवरी 1990 को चरमपंथियों ने तुगलकी फरमान सुनाया था कि ‘कश्मीरी पंडित एवं अन्य हिंदु काफिर हैं।’ इसी समय मस्जिदों से ऐलान किया गया, ‘हम क्या चाहते? निजाम-ए-मुस्तफा, रलीव, गलीव, चलीव (धर्म बदल लो, मारे जाओ या भाग जाओ) अपनी युवा पत्नियों और कुंवारी कन्याओं को यहीं छोड़ जाओ।’ इस ऐलान के साथ ही उन्मादी भीड़ गैर-हिंदुओं पर टूट पड़ी थी। इसके बाद हिंदुओं से जुड़ी 150 शैक्षिक संस्थाओं में आग लगा दी गई। 103 मंदिरों, धर्मशालाओं और आश्रमों को तोड़ दिया गया। पंडितों की दुकानों और कारखानों को लूट लिया। आगजनी और लूट की 14,430 घटनाएं घटीं। 20,000 से ज्यादा पंडितों की खेती योग्य जमीन छीनकर उन्हें भगा दिया गया। 1100 से ज्यादा पंडितों की निर्मम हत्याएं कर दी गईं। नतीजतन 95 प्रतिशत पंडित घर छोड़ने के लिए विवश हो गए और 19 जनवरी 1990 अल्पसंख्यक हिन्दुओं के सामूहिक पलायन का क्रम शुरू हो गया। उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य में कांग्रेस तथा नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन की सरकार थी और  डॉ. फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। इन बेकाबू हालातों को नियंत्रित करने में राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाने की बजाय 20 जनवरी 1990 को एकाएक अब्दुल्ला कश्मीर को जलता छोड़ लंदन भाग गए। केंद्र में वीपी सिंह प्रधानमंत्री और मुफ्ती मोहम्मद सईद गृहमंत्री थे। कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने सेना के हस्तक्षेप के लिए केंद्र सरकार से गुहार लगाई, लेकिन मंडल-कमंडल के राजनैतिक खेल में लगे वीपी सिंह ने देश की संप्रभुता को सर्वथा नजरअंदाज कर दिया। गोया, घाटी में आतंक व अलगाववाद को फलने-फूलने का खुला अवसर मिल गया। इस पूरे घटनाक्रम में यासीन मलिक और बिट्टा कराटे उर्फ फारूख अहमद डार की प्रमुख भूमिका रही थी, जिसे इन दोनों अलगाववादियों ने सार्वजनिक मंचों से स्वीकारा भी था। बिट्टा और मलिक नरसंहार और अगजनी के अरोपों में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद हैं, लेकिन उन्हें अभी वह सजा नहीं मिली है, जिसके वे वास्तव में कसूरवार हैं।

​1990 में शुरू हुए इस पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरपंथियों का मूल उद्देश्य घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था। इस मंशापूर्ति में वे सफल भी रहे। देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। ऐसा हैरान कर देने वाला दूसरा उदाहरण अन्य किसी देश में नहीं है। पूरे जम्मू-कश्मीर में लगभग 45 लाख कश्मीरी अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से 7 लाख से भी ज्यादा विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। घाटी में मुस्लिम एकरूपता इसलिए है, क्योंकि वहां से मूल कश्मीरी हिंदुओं का पलायन हो गया है और जो शरणर्थी हैं, उन्हें बीते 74 वर्षों में न तो देश की नागरिकता मिली है और न ही वोट देने का अधिकार मिला है। इन क्रमवार हमलों के बाद कश्मीर में एक बार फिर अल्पसंख्यक पलायन को विवश हो रहे हैं। दरअसल अनुच्छेद-370 हटने के बाद भी हालातों में सुधार नहीं हो पा रहा है, तो इसका एक बड़ा कारण मजहबी कट्टरता पर चोट नहीं कर पाना है। अफगानिस्तान में तालिबानी कब्जे के बाद इस सोच को बल मिला है। स्पष्ट है कि यह समस्या अब राजनैतिक व संवैधानिक नहीं रह गई है, बल्कि अब धार्मिक चरमपंथ के रूप में सामने आ रही है। इस हिंसक उन्माद की सोच पाकिस्तान से निर्यात आतंकवाद तो है ही, घाटी में कुकुरमुत्तों की तरह मस्जिदों और मदरसों में फैला, वह इस्लामिक शिक्षा का तंत्र भी है, जो आतंक की फसल बोने और उगाने का काम करता है। यही कारण है कि जितने भी इस्लामिक देश हैं, उनमें न तो अल्पसंख्यकों का जनसंख्यात्मक घनत्व बढ़ रहा है और न ही उन्हें नागरिक समानता के अधिकार मिल रहे है। कश्मीर में भी जिहादी चाहते हैं कि गैर-मुस्लिम या तो इस्लाम स्वीकार करें या फिर घाटी छोड़ जाएं।    ​

दरअसल मुस्लिमों की इस दोषपूर्ण मंशा को संविधान निर्माण के समय ही डॉ. भीमराव अंबेडकर ने समझ लिया था। शेख अब्दुल्ला ने जब जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने की मांग की तो अंबेडकर ने सख्त लहजे में कहा था कि ‘आप चाहते हो कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, कश्मीरियों की आर्थिक सुरक्षा करे, कश्मीरियों को संपूर्ण भारत में समानता का अधिकार मिले, लेकिन भारत और अन्य भारतीयों को आप कश्मीर में कोई अधिकार देना नहीं चाहते? मैं देश का कानून मंत्री हूं और मैं अपने देश के साथ कोई अन्याय या विश्वासघात किसी भी हालत में नहीं कर सकता हूं।’ विडंबना देखिए कि मुस्लिम समाज देश में हर जगह बृहद हिंदू समाज के बीच अपने को सुरक्षित पाता है, किंतु जहां कहीं भी हिंदु अल्पसंख्यक मुस्लिमों के बीच रह रहे हैं, उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। बावजूद पं नेहरू के अनावश्यक दखल से कश्मीर को विशेष दर्जा मिल गया। इस भिन्नता का संकट देश बंटवारे से लेकर अब तक भुगत रहा है। यही कारण है कि इस बंटवारे के बाद पाकिस्तान से जो हिंदू, बौद्व, सिख और दलित शरणर्थी के रूप में जम्मू-कश्मीर में ही ठहर गए थे, उन्हें मौलिक अधिकार आजादी के 74 वर्षों बाद भी पूरी तरह नहीं मिले हैं। इनकी संख्या लगभग 70-80 लाख है, जो 56 शरणार्थी शिविरों में सभी सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से वंचित रहते हुए बद से बदतर जिंदगी का अभिशाप धारा-370 हटने से पहले तक भोगते रहे हैं।

वर्तमान में कश्मीरी पंडितों का घर वापसी का मुद्दा वैसा नहीं रह गया है, जैसा शुरू के कुछ वर्षों तक था। दरअसल 31 साल की इस लंबी अवधि में एक पूरी पीढ़ी बदल जाती है, जो विस्थापन के समय बालक थे, वे अब युवा हो चुके हैं और जो उस समय जवान थे, वे अब बूढ़े हो रहे हैं। अपनी मूल जड़ों से अलग होकर विस्थापितों ने बदहाल शिविरों में कैसे दिन गुजारे, इसकी कल्पना ही रूह कंपा देने वाली है। देश की राजधानी दिल्ली समेत कई हिस्सों में आज भी कश्मीरी पंडित शरणार्थियों का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। बावजूद अनेक युवाओं ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त की और समाज पर छाप छोड़ी है, लेकिन उन्हें जम्मू-कश्मीर का मूल नागरिक होने के पश्चात भी लाचारी का जो जीवन गुजरना पड़ा है, उससे पूर्व की केंद्र व राज्य सरकारों तथा घाटी के समुदाय विशेष के लोगों का अपराध कम नहीं हो जाता ? आखिर किसी भी सभ्य और संवैधानिक व्यवस्था में ऐसी स्थिति को किसी भी हाल में स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि देश के ही एक हिस्से के नागरिकों को जान बचाने के लिए घर-बार छोड़कर पलायन को मजबूर होना पड़ा हो। यह सवाल जहां कानूनी राज्य व्यवस्था पर है वहीं उस राजनीतिक प्रक्रिया पर भी है, कि वह 31 साल बीत जाने के बावजूद विस्थापितों का पुनर्वास नहीं कर पाई है। जबकि उस गलती को नरेंद्र मोदी सरकार ने सुधार दिया है, जो कश्मीर को विशेष दर्जा देने के अधिकार के साथ नेहरू से हुई थी। बहरहाल, गैर-मुस्लिमों की हत्या का जो नया दौर शुरू हुआ है, उससे कश्मीरियत तो कलंकित हुई ही है, संपूर्ण विपक्ष का चेहरा भी बेनकाब हुआ है। आखिर ये सभी दल यह सामूहिक प्रयास और साझा संकल्प क्यों नहीं करते कि पंडितों समेत जो भी निर्वासित लोग हैं, उन्हें बसाने की पहल की जाए?

(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)

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