शालिवाहन से ईसा ने कहा था- मर्यादा रहित म्लेच्छ प्रदेश में ईसा मसीह बनकर आया हूँ
प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-4)
गुंजन अग्रवाल
पिछले अंक में हमने चर्चा की थी कि ईसा मसीह 29-30 वर्ष की अवस्था में स्वदेश लौटे। वह अपने देशवासियों के लिए भारत के विवेक का सन्देश लेकर आये। उन्होंने ‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’ (Old Testament) के सिद्धान्त के स्थान पर भारत के सर्वे भवन्तु सुखिनः का सन्देश दिया। इस पर उन्हें क्रूस पर लटका दिया गया। लेकिन मृत्यु के तीन दिनों पश्चात् उनकी कब्र खुली हुई मिली और उनका कुछ पता न चला कि वह कहाँ चले गए थे। अब आगे….
‘ज़र्मन एसोसिएशन फ़ॉर अमेरिक़न स्टडीज़’ के वरिष्ठ निदेशक तथा माडगे़बर्ग़ विश्वविद्यालय में अमेरिक़ी-साहित्य एवं संस्कृति के प्राध्यापक होल्ज़र क़र्स्टन (Holger Kersten) ने नोतोविच के काम को आगे बढ़ाया तथा अनेक वर्षों तक कश्मीर, लद्दाख, नालन्दा और काशी में छानबीन की। क़र्स्टन ने इन सभी स्थानों से अनेक प्रमाण इकट्ठे किए और सिद्ध किया कि ईसा अपनी माँ मेरी (Mary : first Century BC) के साथ तुर्की, पर्शिया, पश्चिमी यूरोप और सम्भवतः इंग्लैण्ड होते हुए भारत आए थे। उन्होंने न केवल सोलह वर्षों तक भारत में अध्ययन किया, बल्कि उनका निधन भी भारत में हुआ। उन्होंने अपनी पुस्तक ज़ीसस लिव्ड इन इण्डिया (Jesus Lived in India : His Unknown Life Before and After the Crucifixion ) में तथ्यों और तर्कों से प्रमाणित किया है कि ईसा मसीह सूली से बच निकलकर एक बार फिर से भारत आ गये थे और कश्मीर में जीवन का अन्तिम समय व्यतीत किया। उन्होंने बताया कि मारी (पाक़िस्तान) में मेरी की और कश्मीर में ईसा की समाधि बनी हुई है। उन्होंने ‘भविष्य महापुराण’ के प्रतिसर्ग पर्व के चतुर्थ खण्ड के द्वितीय अध्याय के अन्तिम 12 श्लोकों को भी उद्धृत करते हुए इसे प्रमाणित किया है।
एक ब्रिटिश फ़िल्म-निर्माता क़ेंट वाल्विन (Kent Walwin) कहते हैं, “बचपन में ईसा के परिवार के नाज़रथ (Nazareth इज़रायली शहर) में रहने के प्रमाण मिलते हैं, लेकिन जब उन्हें दूसरी बार नाज़रथ में देखा गया, तब वह 30 वर्ष के थे। यीशू ने कहा था कि जितने दिन वह गायब रहे, उन्होंने अपनी बुद्धि के कद में विकास किया।” वर्ष 2009 का ‘दयावती मोदी कला, संस्कृति एवं शिक्षा पुरस्कार’ लेने भारत आए वाल्विन ने बताया कि उनकी अगली फ़िल्म ‘यंग़ ज़ीसस : द मिसिंग़ ईयर्स’ (Young Jesus : the missing years) (Apostolic Gospels ईसा के जीवन पर प्राचीन धार्मिक वर्णन) और अभिलेखीय सामग्री पर आधारित है। ग़ास्पेल्स के अनुसार ईसा को 13-14 वर्ष की उम्र में अन्तिम बार पश्चिम एशिया में देखा गया था। वाल्विन का कहना है कि फ़िल्म का पहला हिस्सा ग़ास्पेल्स पर और दूसरा हिस्सा पूरी तरह अभिलेखीय सामग्रियों पर आधारित होगा, जिसमें ईसा के भारत से सम्पर्क के कई सन्दर्भ मिलते हैं।
भविष्य महापुराण में ईसा मसीह और भारतीय नरेश शालिवाहन की भेंट का वृत्तांत आया है। इसके अनुसार उज्जयिनी-नरेश सम्राट् शकारि विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन एक बार हिम शिखर पर गये। उन्होंने हूण देश के मध्य स्थित पर्वत पर एक सुन्दर पुरुष को देखा। उसका शरीर गोरा था और वह श्वेत वस्त्र धारण किए था। उस व्यक्ति को देखकर शकराज ने प्रसन्नता से पूछा— “आप कौन हैं?” उसने कहा, “मैं ईशपुत्र हूँ और कुमारी के गर्भ से उत्पन्न हुआ हूँ।” राजा ने पूछा— “आपका कौन-सा धर्म है?” ईशपुत्र ने कहा— “महाराज! सत्य का विनाश हो जाने पर मर्यादा रहित म्लेच्छ प्रदेश में मैं ईसा मसीह बनकर आया हूँ।”
भविष्य महापुराण में दी हुई परमार-नरेशों की वंशावली के अनुसार उज्जयिनी-नरेश शकारि विक्रमादित्य ने 100 वर्ष, उनके पुत्र देवभक्त ने 10 वर्ष और देवभक्त के पुत्र शालिवाहन ने 60 वर्षों तक शासन किया। यह तो विदित ही है कि शकारि विक्रमादित्य का राज्यारोहण 57 ई.पू. में हुआ था। उसी वर्ष उन्होंने ‘विक्रम संवत्’ या ‘कृत संवत्’ का प्रवर्तन किया था, जिसका ईसवी सन् 2020 में 2076वाँ वर्ष चल रहा है। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 57ई.पू. से 43 ई. तक शासन किया। उनके बाद उनके पुत्र देवभक्त ने 43 ई. से 53 ई. तक शासन किया। तत्पश्चात् 53 ई. में शालिवाहन का शासन प्रारम्भ हुआ, जिन्होंने 78 ई. में ‘शालिवाहन शक संवत्’ प्रारम्भ किया। इस प्रकार महाराज शालिवाहन का समय ईसा की प्रथम शताब्दी (ईसा मसीह के समकालीन) ही है। भविष्य महापुराण में दी हुई वंशावली एवं हमारी कालगणना एकदम सटीक एवं इतिहास सम्मत है।
अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् प्रो. हरवंशलाल ओबराय (1925-1983) ने प्रतिपादित किया है कि ईसा और ईसाई गहराई से श्रीकृष्ण की भगवद्गीता से प्रभावित रहे हैं। वस्तुतः ईसा (Jesus) ईसाइयत के पैगंबर का नाम था और ‘क्राइस्ट’ (Christ) तो केवल उनका उपनाममात्र था। ज़ीसस से पूर्व ‘क्राइस्ट’ नाम के किसी व्यक्ति की ज़ानक़ारी नहीं है, जबकि यहूदियों में ‘ज़ीसस’ नाम काफ़ी प्रचलित था। तब उन्होंने ‘क्राइस्ट’ नाम कहाँ से पाया? यह शब्द ‘कृष्ण’ से व्युत्पन्न है। बंगाली लोग ‘कृष्ण’ का उच्चारण ‘क्रिष्टो’ करते हैं। वे भजन गाते हैं— ‘हरे क्रिष्टो हरे क्रिष्टो, क्रिष्टो-क्रिष्टो हरे हरे’। आज भी उनके नाम हैं— क्रिष्टो मुखर्जी, क्रिष्टो दास इत्यादि। संस्कृत में कई बार ‘ण’ का रूप बदलकर ‘ट’ हो जाता है, जैसे— षट् + कोण = षट्कोण, किन्तु षट् + मुख = षण्मुख (छः मुखों वाला अर्थात् कार्तिकेय)। ज़मशेदपुर का एक प्रसिद्ध क्षेत्र ‘बिष्टुपुर’ कहलाता है, किन्तु वह मूलतः ‘विष्णुपुर’ है।
विश्व प्रसिद्ध अमेरिक़ी-लेखक, इतिहासकार एवं दार्शनिक विलियम ज़ेम्स ड्यूराण्ट (William James Durant : 1885-1981) ने लिखा है : ‘भारतवर्ष हमारी जाति की मातृभूमि थी और संस्कृत यूरोपीय भाषाओं की माता। वह हमारे दर्शन की माता थी; अरबों के माध्यम से वह हमारे गणित की माता थी; बुद्ध के माध्यम से वह ईसाई-आदर्शों की जननी है।’
अरब, पश्चिम के सन्दर्भ में भारतवर्ष का निकटतम और सर्वोत्तम शिष्य रहा है। उसने भारत से गणित और खगोल विज्ञान सीखा। अरबी-भाषा में अंकगणित को ‘इल्म-ए-हिंदसः’ कहते हैं। हिंदसः अर्थात् हिंद से प्राप्त। यह एक रोचक तथ्य है कि अरबी-लिपि दाएँ से बाएँ लिखी जाती है, किन्तु अरबी में अंक बाएँ से दाएँ लिखे जाते हैं। यह भी इस बात का प्रमाण है कि ‘अरबी-संख्याएँ’ कहलाने वाली संख्याएँ मूलतः अरबी नहीं, बल्कि भारतीय हैं। अरबों के माध्यम से जब ये भारतीय अंक यूरोप पहुँचे तो यूरोपवासियों को लगा कि ये अंक मूल रूप से अरबों द्वारा आविष्कृत हैं। अतएव आज भी यूरोप में एक से नौ एवं शून्य के भारतीय अंकों को ‘अरेबिक़ न्यूमेरल्स’ (Arabic numerals अरबी गणनांक) कहते हैं।
बग़दाद के 7वें ख़लीफ़ा अल्-मामुन (Abu Jafar Abdullah al-Mamun ibn Harun (also spelled Almamon, Al-Maymun and el-Mâmoûn, reign : 813-833) का दरबारी गणितज्ञ-विद्वान् अबु अब्दुल्लाह मुहम्मद इब्न मुसा-अल्-ख़्वारिज़्मा (Abu Abdullah Muhammad ibn Musa al-Khwarizma) अपनी भारत-यात्रा के दौरान भारतीय गणितज्ञों के सम्पर्क में आया और उसने बग़दाद लौटकर भारतीय गणितशास्त्र और गणित-ज्योतिष से बग़दादवालों को परिचित कराया। सन् 820 ई. में उसने ‘अल्-क़िताब अल्-ज़ब्र वल्-मुक़ाबला’ (‘Al-Kitab al-Jabr wa-l-Muqabala’) नामक अपने अरबी-ग्रन्थ में संस्कृत से बीजगणित का आविष्कार किया, जो यूरोपीय-भाषाओं में ‘अल्ज़ेब्रा’ (Algebra) कहलाया। भारतीय-गणितज्ञ और खगोलविद ब्रह्मगुप्त (598-668) का 628 ई. का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त’ बग़दाद लाकर उसका अरबी-अनुवाद किया गया था, जो ‘सिंदहिंद’ (Sindhind) के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार जब अरबवासियों ने हमारे देश के हाथी के बारे में जाना तो उन्होंने इसे ‘अलिफ़-हिंद’ (भारत का पशु नंबर एक) कहकर पुकारा तो उसी को यूरोपीय-भाषाओं में ‘एलिफ़ेंट’ (Elephant) कहा गया।
अरबों ने भारत से आयुर्वेद की भी शिक्षा ली और अर्वस्थान से यह विद्या यूरोप गयी। बग़दाद के पाँचवें और सर्वाधिक प्रसिद्ध ख़लीफ़ा हारुन-अल्-रशीद (Hârûn al-Rashîd : 786-809) हिंदू-वैद्यों की ख्याति से बड़े प्रभावित थे और उन्होंने आयुर्वेद की शिक्षा तथा अस्पतालों के गठन के लिए बग़दाद में कई वैद्यों को निमन्त्रित किया। लॉर्ड अम्प्टभिल (Lord Amptbhill) कहते हैं कि आधुनिक और मध्ययुगीन चिकित्सा-पद्धति पाश्चात्य लोगों ने अरबों द्वारा भारत से सीखी।
अरब पर भारतीय-सांस्कृतिक प्रभाव का अन्वेषण एक चुनौतीपूर्ण विषय है जो गहन शोध की अपेक्षा करता है।
अगले अंक में- मक्का एक महान् हिंदू-तीर्थस्थल था!
(लेखक महामना मालवीय मिशन, नई दिल्ली में शोध-सहायक हैं तथा हिंदी त्रेमासिक ‘सभ्यता संवाद’ के कार्यकारी सम्पादक हैं)
सुन्दर,संग्रहणीय तथा सोचने की प्रेरणा देता आलेख,जिससे भविष्य पुराण की उपयोगिता भी परिलक्षित है। यह स्थापित है कि पुराण, इतिहास के भी अंग है,स्रोत हैं।
अद्भुत तथ्य।।।।।।