ओस नहीं ये आंसू हैं
तड़के उठकर विचरण करने जाता हूं
तो पाता हूं कि मानव गण सोया है
मगर …..
धरती जागी है…. कल का खाता खोले… मनुष्य के उस पर ढाए जुल्मों का लेखा-जोखा करती …..
दरख्तों के दर्द पर मरहम मलती ….
रात भर ….धरती जागी है।
फूलों की कोपलों पर चमकती ये बूंदें….
ओस नहीं, ये आंसू हैं।।
पृथ्वी, वृक्ष पर प्रहार करते ये राक्षस
स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं और
सहमी सी यह प्रकृति …एक मां का पात्र बखूबी निभाते इन्हें क्षमा किए जाती है।
अपने बच्चों को नालायक हुआ देख
मातृ पीड़ा से नम आंखों में पानी.. अरे
ओस नहीं, ये आंसू हैं।।
जल, वायु व माटी को प्रदूषित करते
हर पल जहर उगलते … नाशुक्रे हम
मां की ममता से बेपरवाह ….
उसी की कोख में घाव करते हम
मूक खड़े प्रतीक्षा करते ईश्वर के
अगले अवतार की …वो जो “यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत”
पर ही प्रत्यक्ष रूप में आएंगे और मां के गालों
पर ढलती हुई बूंदों को पोंछ जायेंगे
अरे ये बूंदें करीब से देख मानव …
ओस नहीं, ये आंसू हैं।।
सभ्यता व संस्कृति को कुचल प्रगति पाई
यह तो घाटे का सौदा नजर आता है भाई
वटवृक्ष, पीपल, नीम को भूल सफेदे अपनाए अब सुदूर पश्चिम इसी बड़े, बूढ़े पीपल, कल्पतरु व नीम को स्वास्थ्य दाता बतलाए।
यह दौड़ यह भूख यह मारामारी क्यों छाई है ? पशु पक्षी का वध करते, वृक्ष काट मां के पवित्र शरीर को नग्न करते …..
वातावरण की थाली में छेद करते…..
प्रलय की ओर अग्रसर मनुष्य …ठहर ……
पल भर तो ठहर ….
और झांक धरती मां की डबडबाई आंखों में ..
और इस तथ्य को समझ ले अरे भाई …
कि ये …..
ओस नहीं, ये आंसू हैं।।
कर्नल परीक्षित बिश्नोई
प्रकृति के प्रति संवेदना और मानव जनित विनाश के प्रति चेतावनी! साधुवाद!