करौली : गंगा-जमनी संस्कृति बनाए रखने का दायित्व क्या सिर्फ हिन्दुओं का है?
करौली : गंगा-जमनी संस्कृति बनाए रखने का दायित्व क्या सिर्फ हिन्दुओं का है?
जयपुर। नव संवत्सर के अवसर पर राजस्थान के करौली शहर में निकाली गई वाहन रैली पर पथराव की घटना ने एक बड़ा प्रश्न खड़ा किया है। वह यह कि क्या गंगा-जमनी संस्कृति बनाए रखने का दायित्व सिर्फ हिन्दुओं का है? यदि मुसलमान हिन्दुओं के धार्मिक त्योहारों पर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों या अपने मजहबी स्थलों के सामने से हिन्दुओं की शोभायात्रा तक बर्दाश्त नहीं कर सकते तो वे फिर गंगा-जमनी संस्कृति की बात किस आधार पर करते हैं? दिन में तीन बार प्रतिदिन मस्जिद से अजान का हिन्दू समाज विरोध नहीं करता, मुसलमानों के मजहबी आयोजनों को भी पूरा सम्मान मिलता है, ताजिए भी हिन्दू बहुल क्षेत्रों से गुजरते हैं, लेकिन कभी कोई पथराव की घटना नहीं होती। किसी मंदिर या हिन्दुओं की छतों पर पत्थर या असलहों के जमावड़े का समाचार भी सुनने में नहीं आता, यह सब मुस्लिम बहुल क्षेत्रों या मस्जिदों में ही क्यों होता है? करौली में भी मुसलमानों के घरों व मस्जिद से पत्थरबाजी हुई। क्या यह घटना मुसलमानों की असहिष्णुता का प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं है? और जैसा कि कांग्रेस राज में अक्सर होता है मुसलमानों का पक्ष लेकर उन्हें ही पीड़ित बताने के प्रयास किए जाते हैं, करौली मामले में भी यही हो रहा है। और सेक्युलरों की चुप्पी गुनाहगारों का हौंसला बढ़ा रही है।
नव संवत्सर के अवसर पर करौली में जो कुछ हुआ, वह निंदनीय है और बाद में भी जो कुछ हुआ, वह निश्चित रूप से नहीं होना चाहिए था। लेकिन सेक्युलरों, प्रदेश की सरकार और इसके मुखिया का यह साबित करने का प्रयास करना कि धार्मिक भावनाएं भड़काने वाले नारों की प्रतिक्रिया में पथराव हुआ, पूरी तरह गलत है और यह बात स्वयं पुलिस की ओर से दर्ज की गई एफआईआर (FIR) साबित करती है।
घटना के तथ्य यह बताते हैं कि –
- जो वाहन रैली निकाली गई, उसके लिए प्रशासन से पूर्व अनुमति ली गई थी और पुलिस का जाब्ता उस रैली के साथ चल रहा था। यानी यह रैली गैरकानूनी ढंग से नहीं निकाली गई थी।
- रैली की अनुमति लेते समय प्रशासन को यात्रा मार्ग बताया गया था, यानी ऐसा भी नहीं था कि रैली के लिए अनुमति किसी और मार्ग की ली गई और उसे जबर्दस्ती मस्जिद के सामने से निकाला गया।
- रैली में धार्मिक भावनाएं भड़काने वाले नारे लगाने का आरोप लगाया गया है, जबकि पुलिस की एफआईआर में ऐसे किसी भी नारे का उल्लेख नहीं है। इसके उलट एफआईआर तो यह कहती है कि रैली पर अचानक पथराव की घटना हुई और इसके बाद दुकानों और मकानों के बाहर खड़े लोगों ने लाठियों और डंडों से रैली में शामिल लोगों और पुलिस जाब्ते पर जानलेवा हमला किया। यदि नारे वास्तव में भड़काऊ थे तो अभी तक इसका एक भी वीडियो क्यों नहीं सामने आया? उलटे सेक्युलरों की ओर से उत्तर प्रदेश की एक पुरानी घटना का वीडियो इस घटना के साथ जोड़कर वायरल किया गया, यानी भड़काऊ नारे लगाने के दावे में जरा भी दम नहीं है।
- इस पूरी रैली की पुलिस ने वीडियोग्राफी करवाई है। जिसे देख कर यह पता किया जा सकता है कि किस तरह के नारे लगाए गए और किस तरह उसी क्षेत्र के पार्षद मतलूब अहमद की उपस्थिति में पथराव किया गया।
- पुलिस ने इस पार्षद मतलूब अहमद को आरोपी बनाया है, लेकिन अभी तक वह पुलिस की पकड़ से बाहर है जो गले नहीं उतर रहा है।
- इस मामले में अब सरकार का प्रयास बहुसंख्यक समाज को मूल रूप से दोषी ठहराने और पुलिस को बलि का बकरा बनाने का लग रहा है। इसके साथ ही दोषियों की गिरफ्तारी में सामाजिक संतुलन बनाने के भी प्रयास किए जा रहे हैं, शायद वोट बैंक के नाराज हो जाने का डर है।
प्रदेश की कांग्रेस सरकार जो कुछ कर रही है, उससे वह तुष्टीकरण के मामले में स्वयं ही एक्सपोज हो रही है, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के बाद जो सबसे बड़ा प्रश्न मुंह बाए खड़ा है, वह यही है कि क्या गंगा-जमुनी संस्कृति बनाए रखने का दायित्व हिन्दुओं का ही है? क्या मुस्लिम समुदाय इसमें अपनी ओर से कोई योगदान नहीं देगा और अपनी कोई दायित्व नहीं समझेगा?
ताली बजाने के लिए हाथ तो दोनों चाहिए।