कर्मों में कुशलता ही योग है
डॉ. आयुष गुप्ता
सामान्य से विशेष की ओर गमन और पुनः विशेष से सामान्य की यात्रा मानव मस्तिष्क में ज्ञान की तीक्ष्णता का मुख्य साधन है। हम प्रारम्भिक काल में सामान्य से विशेष की ओर यात्रा करते हैं। कर्मों में कुशलता ही योग है, यह योग का सामान्य परिचय है। हम जिस कार्य को करते हैं, उसमें तल्लीनता, एकाग्रता और अत्यन्त रमण यह योग का सामान्य परिचय है। योग कोई हिमालय पर जाकर करता है, कोई अपना कार्य कुशलता से करके करता है। यदि फुटबॉल खेलने वाला अपना पूरा ध्यान और शक्ति खेल पर केन्द्रित करता है, तो वह उस खिलाड़ी का योग है। जूते बनाने वाला मोची यदि तल्लीनता से जूते सिलकर तैयार करता है तो वह उस स्तर का योग है। किसी भी कार्य को पूरी शक्ति एवं ध्यान केन्द्रित करके करना अपने-अपने स्तर का योग है। क्षत्रिय का योग अपनी सीमाओं का यथाशक्ति रक्षण है। यह अलग-अलग स्तर का योग स्वयं तो स्तरीय योग है ही, साथ-साथ महायोग का साधन भी है, क्योंकि जब तक अपने कार्यों में दक्षता, लगन और ध्यान नहीं होगा, तब तक योग सिद्ध नहीं होगा। कोई कहे कि वह एक छात्र है, उसका पढ़ने में मन नहीं लगता, या खेलने में मन नहीं लगता या किसी भी कार्य में मन नहीं लगता तो वह आजीवन योग को सिद्ध नहीं कर सकता। यदि ऐसा व्यक्ति आसन आदि लगा भी ले तो उसकी यह क्रिया शारीरिक व्यायाम ही कहलाएगी, उसे योग की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
आज पाश्चात्य जगत से आयातित जो योग है वह आंशिक है, केवल शारीरिक है, क्योंकि महायोग की साधना अभ्यास के बिना नहीं सिद्ध हो सकती। यदि व्यक्ति किसी भी एक कार्य में तन, और मन लगाकर अपनी समस्त इन्द्रियों को उसमें स्थिर कर ले तो वह महायोग की प्रथम सीढ़ी चढ़ जाता है। कोई सोचे मेरा किसी कार्य में मन नहीं लगता, मैं योग का कोर्स करके योग प्रशिक्षक बन जाता हूँ, तो उससे बड़ा स्वयं को और छात्रों को छलने वाला कोई नहीं हो सकता। क्योंकि योग का प्रथम सोपान ही है, अभ्यास द्वारा इन्द्रिय और मन का नियन्त्रण। प्रारम्भिक स्तर के सामान्य प्रशिक्षु के लिए योग की परिभाषा है – ‘योगः कर्मसु कौशलम्’।
जब अपने कार्य में तल्लीनता आ जाएगी तो योग के द्वितीय सोपान पर स्वतः पहुँच जाएंगे क्योंकि कार्यों में कुशलता का अर्थ है कार्यों में आपने अपनी इन्द्रियों और मन को लगाना सीख लिया, मतलब आप अपने मन के अनुसार अपने कार्यों में अपनी इन्द्रियों का नियन्त्रण सीख गए। अब योग साधना का दूसरा सोपान है कि जो इन्द्रिय नियन्त्रण आपने सीखा है, वह नियन्त्रण स्थिर हो जाए अर्थात यदि कार्य आपकी रुचि का नहीं, तब भी आप अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित कर सकें। यह क्रिया आपको इन्द्रियसंयम का अभ्यास कराएगी। इसे ही षट्कसंपत्ति में शम, दम आदि का नाम दिया गया। यह दीर्घकालीन अभ्यास आपके इन्द्रिय संयम को बिना बल के बिल्कुल आसानी से होने वाला बना देगा। आपको अब अपनी इन्द्रियों और मन को रोकने के लिए न किसी रुचि के विषय की आवश्यकता रहेगी, न किसी बाह्य बल की। यह संयम आप अनायास करने में समर्थ होंगे। महायोग की सिद्धि में इस अवस्था में आप तृतीय सोपान पर हैं।
तृतीय सोपान पर आप किसी भी विषय पर बिना किसी बल के, बिना किसी प्रयास के और अरुचिकर विषय पर भी अपने इन्द्रियों और मन को केन्द्रित करने में सक्षम होंगे। अभी तक आपका यह अभ्यास धीरे धीरे दो बातों को छोड़ चुका है – आपकी रुचि और आपका बल। आपके अभ्यास में अब केवल एक वस्तु बची है, वह है विषय। जिस वस्तु, विचार या तत्व को ध्यान में रखकर आप अभ्यास कर रहे हैं, अगले सोपान में आपको उसे भी त्यागना है। वह आपकी साधना का चतुर्थ सोपान होगा। यदि आप किसी मूर्त या भौतिक वस्तु पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं, तो उस वस्तु को हटाकर विचार या शून्यता अथवा अपनी परिकल्पना में ध्यान करके अपनी इन्द्रिय और मन का संयम कीजिए। चतुर्थ चरण में उस विषय में जब आप ध्यान केन्द्रित करेंगे तो वह विषय आपकी ध्यान शक्ति और इन्द्रिय संयम से आपकी चित्तवृत्ति के समान हो जाएगा। आपके ध्यान में और उस ध्येय में एकाकारता हो जाएगी। अब ध्येय वस्तु भी आपकी चित्तवृत्ति के आकार से आकारित हो जाएगी। अभी विषय तो समाप्त हुआ, किन्तु चित्तवृत्ति शेष है। आपको यह अभिमान है कि मैं चित्तवृत्ति से युक्त हूँ। आपने क्रमशः पहले रुचि को हटाया, बलपूर्वक संयम को हटाया, विषय को हटाकर किसी अमूर्त सत्ता पर पहुंचे, अमूर्त सत्ता को भी आपने चित्तवृत्ति तक पहुंचा दिया। चित्तवृत्ति आपका अहंकार है, आपने धीरे धीरे सब कुछ समाप्त कर दिया। अब आप बिल्कुल महायोग के द्वार पर हैं। बस आपको अपनी चित्तवृत्ति को नियंत्रित करना है, और यह अन्तिम और पञ्चम सोपान है जो लगातार अभ्यास से होगा और अन्ततः सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि पर अन्त होगा। आपने अपनी रुचि के कार्य से प्रारम्भ किया था और चित्तवृत्ति के निरोध पर पहुंच गए। महायोग की परिभाषा भी है – योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।
भाव यही है कि धीरे धीरे सभी साधनों को छोड़ते हुए स्वत्व की ओर गति करना। छोटा बच्चा पहले कुछ दिन सपोर्टर वाली साइकिल चलाता है, सपोर्टर हटा कर कुछ दिन गिरते पड़ते बिना सपोर्टर वाली साइकिल का योग सिद्ध करता है। फिर 16 इंच, 18 इंच और 22 इंच की साइकिल में अनायास बिना गिरे सिद्धहस्तता प्राप्त करता है, यही है सामान्य से विशेष की यात्रा। इस महायोग की प्रक्रिया में साधन है अष्टांग योग। कुछ नैतिक नियम यम हैं, कुछ शारीरिक व्यायाम आसन हैं, अपना ध्यान अपनी प्राणवायु पर केन्द्रित करना प्राणायाम है और इस प्रकार यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान के मार्ग से होते हुए समाधि तक की यात्रा इसी योग प्रक्रिया का सहायक अंग है। योग कोई रॉकेट साइंस नहीं केवल अभ्यास की चरमावस्था है।
(लेखक तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य हैं)