कश्मीर में अभी बाकी है लड़ाई

कश्मीर में अभी बाकी है लड़ाई

बलबीर पुंज

 

कश्मीर में अभी बाकी है लड़ाईकश्मीर में अभी बाकी है लड़ाई

गत दिनों जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय होने की 75वीं वर्षगांठ मनाई गई। इसे लेकर देश-प्रदेश में कई कार्यक्रमों का आयोजन हुआ, जिसमें से एक में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक महत्वपूर्ण संदेश दिया। 27 अक्टूबर को घाटी स्थित बडगाम पहुंचे राजनाथ ने कहा, “अपने बाकी बचे हिस्से गिलगित और बाल्टिस्तान तक पहुंचे बिना जम्मू-कश्मीर अधूरा है। अभी तो हमने उत्तर दिशा की ओर चलना शुरू किया है। हमारी यात्रा तो तब पूरी होगी, जब हम 22 फरवरी 1994 को संसद में सर्वसम्मति से पारित हुए प्रस्ताव को अमल में लाएंगे… आने वाले समय में पाकिस्तान को उसके कर्मों का परिणाम जरूर मिलेगा।” निसंदेह, कश्मीर पर भारत सरकार का यह दृष्टिकोण विलंबपूर्ण, किंतु स्वागतयोग्य है।

संपूर्ण जम्मू-कश्मीर का क्षेत्रफल लगभग 2,22,236 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से 78,114 और 37,555 वर्ग किमी क्रमश: पाकिस्तान और चीन के अवैध कब्जे में है। इसके अतिरिक्त, पाकिस्तान ने अपने द्वारा कब्जाए कश्मीर का 5,180 वर्ग किमी भूखंड, 1963 में एक समझौते के अंतर्गत चीन को अनुचित रूप से दे दिया था। यह पाकिस्तानी कुटिलता का ही प्रमाण है कि उसने गुलाम कश्मीर की पहचान बदलने हेतु उर्दू को राजकीय भाषा का दर्जा दिया है, जबकि उसकी 40 लाख की आबादी में 70 प्रतिशत लोग पोठोहारी भाषी है, जोकि पंजाबी भाषा की एक उप-भाषा है। ऐसा ही विरोधाभास उसके ‘कौमी-तराने’ को लेकर भी है।

वास्तव में, पाकिस्तान की भांति पीओके न केवल भारत का भूगौलिक हिस्सा है, अपितु वह अनादिकाल से सांस्कृतिक भारत का भाग भी है, जहां हजारों वर्ष पहले वैदिक ऋचाओं का जन्म हुआ था। सदियों पहले आदि गुरु शंकराचार्य ने अपनी ‘दिग्विजय यात्रा’ का समापन प्राचीन कश्मीर में किया था। तब उस स्थान पर मां सरस्वती देवी को समर्पित शारदा पीठ और विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी, जिसने आदि शंकराचार्य द्वारा बौद्ध और जैन भिक्षुओं के साथ गहन विचार-विमर्श के बाद मूर्त रूप लिया था। देवी शक्ति के 18 महाशक्तिपीठों में से एक इस पीठ के अवशेष गुलाम कश्मीर के नीलम घाटी, जोकि नियंत्रण रेखा से मात्र 17 किलोमीटर दूर है— वहां स्थित हैं, जिसमें मंदिर के नाम पर केवल एक प्रवेश द्वार और उसपर बना अर्धमंडलाकार भाग ही शेष है। विभाजन से पहले लाखों-करोड़ हिंदू तीर्थाटन करने शारदा पीठ जाते थे। भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसे असंख्य हिंदू-बौद्ध देवी-देवताओं के पूजास्थल है, जो आठवीं शताब्दी के बाद ‘काफिर-कुफ्र’ दर्शन प्रेरित जिहाद का शिकार हुए थे— इसी में से एक अनंतनाग स्थित मार्तंड मंदिर भी है।

सच तो यह है कि कश्मीर का बहुआयामी संकट, स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं.नेहरू की अदूरदर्शिता की देन है, जिसमें कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में ले जाना, जनमत-संग्रह का वचन देना, 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में बढ़ती हुई भारतीय सेना को रोककर अचानक संघर्षविराम की घोषणा करना, धारा 370-35ए के अंतर्गत कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देना और घोर सांप्रदायिक शेख अब्दुल्ला पर अत्याधिक विश्वास करके देशभक्त महाराजा हरिसिंह को कश्मीर से निष्कासित करना आदि शामिल है।

अक्सर, कश्मीर को लेकर दो बड़े मिथकों का प्रचार-प्रसार किया जाता है। पहला- 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने स्वतंत्र भारत के साथ विशेषाधिकारों की शर्त पर विलय किया था। दूसरा- पं.नेहरू द्वारा कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ ले जाने के बाद भी भारत, घाटी में जनमत संग्रह की प्रक्रिया में बाधा डाल रहा है। क्या वाकई ऐसा है?

जिस ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने हस्ताक्षर किया था, उसके प्रारूप का एक-एक शब्द और सभी विराम-चिह्न वही थे, जिसपर शेष 560 से अधिक रियासतों ने भारत में विलय के दौरान हस्ताक्षर किए थे या उसकी प्रक्रिया में थे। ये सभी विलय तीन विषयों- रक्षा, विदेशी मामलों और संचार के अंतर्गत हुए थे। ऐसा इसलिए, क्योंकि 1947 तक स्वतंत्र भारत का संविधान अस्तित्व में नहीं था और ब्रितानियों द्वारा स्थापित व्यवस्था के अनुरूप काम हो रहा था।

विलयपत्र पर हस्ताक्षर करते हुए महाराजा हरिसिंह ने लॉर्ड माउंटबेटन को संबोधित करते हुए जो पत्र लिखा था, उसमें उन्होंने कहीं भी इसका उल्लेख नहीं किया कि रियासत के लोग भारत से विलय का विरोध या उसके विरुद्ध आंदोलन कर रहे हैं या फिर कोई ‘आजादी’ चाहते हैं। किंतु कुटिल माउंटबेटन ने चतुराई दिखाते हुए इसमें ‘विवाद’ शब्द जोड़ दिया। पिछले 75 वर्षों से पाकिस्तान, उसके द्वारा वित्त पोषित अलगाववादी, जिहादी/आतंकी संगठन, वामपंथी सहित कई असंख्य भारतीय पासपोर्ट धारक माउंटबेटन के इसी पत्र को हथियार बनाकर भारत विरोधी एजेंडे को बढ़ावा दे रहे हैं।

महाराजा हरि सिंह ने अन्य कई रियासतों की भांति विभाजन और स्वतंत्रता से एक माह पहले भारत में विलय का अनुरोध किया था। किंतु पं.नेहरू ने कश्मीर को ‘विशेष मामला’ बताकर इससे इनकार कर दिया। यह पं.नेहरू द्वारा लोकसभा के भीतर 24 जुलाई 1952 को दिए भाषण से भी स्पष्ट है। तब उन्होंने कहा था, “जुलाई (1947) में जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय का अनौपचारिक मामला हमारे सामने आया था… हमने स्पष्ट कर दिया कि जम्मू-कश्मीर को इसके लिए उतावला नहीं होना चाहिए, यद्यपि उनके कई नेता इसके लिए इच्छुक थे। यह विलय तभी टिकेगा, जब महाराजा के बजाय लोगों द्वारा इसकी पहल हो। हमने महाराजा के साथ वहां के लोकप्रिय नेताओं को सूचित किया कि विलय जल्दबाजी में नहीं किया जाना चाहिए…।” यही नहीं, पं.नेहरू ने अक्टूबर 1947 में तब भी विलय को लेकर टालमटोल किया था।

आखिर इस अक्षम्य भूल का कारण क्या था? इसका उत्तर कश्मीर में वर्ष 1931 पश्चात के घटनाक्रम में मिलता है, जब शेख अब्दुल्ला ने घाटी पहुंचकर मस्जिदों से इस्लामी नारों के साथ ‘काफिर’ महाराजा हरि सिंह के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। इसमें शेख को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से ब्रितानियों के साथ अपने परम मित्र और महाराजा से व्यक्तिगत शत्रुभाव रखने वाले पं.नेहरू का समर्थन प्राप्त था। यह ठीक है कि पं.नेहरू को शेख का असली रूप 1953 में दिखा, किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

जब पं.नेहरू वर्ष 1948 में कश्मीर के आतंरिक मामले को यूएन ले गए, तब वहां तीन क्रमिक चरण संकल्प को अपनाया गया। जनमत संग्रह तभी पूरा होगा, जब पहले चरण के संपूर्ण समापन के बाद दूसरे और इसी तरह तीसरे चरण के लिए आगे बढ़ा जाएगा। तब पहले चरण में पाकिस्तान को अपने सैनिकों, कबाइलियों और अपने नागरिकों को जम्मू-कश्मीर छोड़ने के लिए कहा गया था। क्या अभी तक ऐसा हुआ?

यह ठीक है कि धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण पश्चात घाटी में परिवर्तन की बयार बह रही है। वर्ष 1989-90 के बाद सिनेमाघरों की वापसी हुई है। 75 वर्षों में पहली बार सर्वाधिक डेढ़ करोड़ से अधिक (जनवरी-अक्टूबर 2022) पर्यटक प्रदेश में पहुंचे हैं। हजारों करोड़ रुपयों की केंद्रीय विकास परियोजना के साथ 56 हजार करोड़ के निवेश प्रस्ताव मिले हैं। परंतु इसका यह अर्थ बिल्कुल भी नहीं कि हमने अलगाववाद और ‘काफिर-कुफ्र’ चिंतन के विरुद्ध युद्ध जीत लिया है। आज भी हिंदुओं को भयभीत करने हेतु इक्का-दुक्का कश्मीर पंडितों की हत्या हो रही है। यदि कश्मीर में बहुलतावाद जैसे जीवनमूल्यों का विस्तार ऐसे ही होता रहा, तो निकट भविष्य में संभावना है कि कश्मीर अपनी विशेष पहचान के साथ शेष भारत के साथ घुलमिल जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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