कसाई (फ़िल्म समीक्षा)

कसाई (फ़िल्म समीक्षा)

  कसाई (फ़िल्म समीक्षा)

डॉ. अरुण सिंह

हिन्दू समाज के पितृसत्तात्मक झुकाव को अतिशय रूप से बढ़ा-चढ़ाकर घृणास्पद स्वरूप में प्रदर्शित करना फिल्मकारों का पुराना शगल रहा है। अभी पिछले दिनों आयी फ़िल्म “कसाई” का विषय ऑनर किलिंग नहीं है और यदि निर्देशक का मंतव्य इसे ऑनर किलिंग दिखाना है तो यह सर्वथा अनुचित है। उत्तर भारत के हिन्दू समाज में एक ही गाँव अथवा समुदाय में रहने वाले युवक और युवती के बीच प्रेम, दैहिक संबंध और विवाह सामाजिक रूप से कभी भी स्वीकार्य नहीं रहे। यह सनातनी सामाजिक व्यवस्था पुरातन काल से चली आ रही है, क्योंकि एक ही गाँव में रहने वाले लोग कुटुम्बीजन होते हैं। भिन्न जाति या समुदाय के होने पर भी समान गाँव में ऐसा नहीं होता। सगोत्र विवाह भी वर्जित माना गया है। पाश्चात्य आधुनिकता के आड़ में विधिक राय अलग हो सकती है, लेकिन यह व्यवस्था समाज में अब भी मान्य है।

फ़िल्म के कथानक का संबंध पूर्वी राजस्थान से है। ग्राम निकाय के चुनावों में सत्ता हेतु जो सामाजिक वैमनस्य और विध्वंस पैदा होता है, वह कई संदर्भों में यथार्थपूर्ण है। ग्राम सत्ता के प्रजातांत्रिक चुनाव में जातीय और कुटुम्बी शत्रुता इस हद तक पहुंच जाती है कि रिश्ते-नाते, सौहार्द और मित्रता सब अनर्गल सत्ता-लिप्सा की नोक पर रख दिये जाते हैं। यही इस फ़िल्म की मुख्य विषयवस्तु है। सूरज की हत्या इसी सत्ता-संघर्ष में होती है। सूरज के पिता को पता है कि मिसरी और सूरज का संबंध उसकी चुनावी महत्वाकांक्षा में रोड़ा है। मिसरी उसके कुटुम्बीजन की ही बेटी है। समाज ऐसे संबंधों को स्वीकार नहीं करता। अतः उसकी प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती है। लखन सूरज की हत्या नहीं करना चाहता, वह बस चुनाव जीतना चाहता है। अपने क्रोध में वह हत्या कर बैठता है। सरपंच पूर्णाराम अपने अनुभव के अनुसार परिस्थिति को संभालना चाहता है, पर सत्ता के लिए अंधे पुत्र के आगे उसका वश नहीं चलता। सरपंच चुनाव प्रायः कोई आदर्श चुनाव नहीं होता। धनबल- बाहुबल लगता है इसमें। यहाँ दो या अधिक प्रतिद्वंद्वियों में कटु प्रतिस्पर्धा होती है, जो किसी भी सीमा तक चली जाती है। ग्राम पंचायतें सत्ता की जड़ें हैं परंतु सेंगरपुर पंचायत में इन जड़ों को दीमक लग चुकी है। देश की शीर्ष सत्ता पर सवाल उठाने वाले लोग ही प्रायः इस ग्रामीण सत्ता के वाहक बनते हैं।

फ़िल्म की सारी घटनाएँ सत्ता के चहुँओर ही घूमती हैं। कसाई लखन नहीं है, कसाई सत्ता की उत्कट लिप्सा है। कसाई पीपल पर नहीं रहता, वह समाज के अंतस् में घुस गया है, जिसमें सनातन मूल्यों का क्षरण हो रहा है। रामायण-महाभारत काल से यह कसाई समाज में रहता आया है। परंतु इसकी समाप्ति हेतु फिर से कृष्ण उपदेश की आवश्यकता पड़ती है। संप्रति, ग्रामीण सत्ता के धृतराष्ट्रों व दुर्योधनों को विदुरनीति की आवश्यकता है।

मीता वशिष्ठ, रवि झंकाल व अन्य सभी कलाकारों का अभिनय यथार्थ को प्रकट करने पर बल देता है।

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