कांग्रेस का पंजाब में दांव क्या गुल खिलाएगा…?
बलबीर पुंज
हाल ही में कांग्रेस ने पंजाब में अपना मुख्यमंत्री बदला। प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन हो- यह बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल का विशेषाधिकार होता है और समय आने पर जनता उस पर अपना निर्णय सुनाती है। पंजाब की स्थिति थोड़ी अलग है। पाकिस्तान के साथ उसकी 425 किलोमीटर सीमा साझा होती है और यह इस्लामी देश पंजाब में हिंसक खालिस्तान आंदोलन के नाम पर देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा को चुनौती देता रहता है। इस पृष्ठभूमि में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने जो आशंका व्यक्त की है, उसे नजरअंदाज करना खतरनाक है।
आखिर कैप्टन अमरिंदर को क्यों हटाया गया? यह निर्विवाद सत्य है कि उनके खिलाफ कांग्रेस के भीतर विद्रोह भड़काने में पार्टी के पारिवारिक चौकड़ी का प्रत्यक्ष-परोक्ष हाथ है। कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व कैप्टन के स्वाभिमानी और बेबाक रवैये से अप्रसन्न था। विरोधी दल का मुख्यमंत्री होने के नाते कैप्टन का केंद्र सरकार से कई नीतियों (कृषि कानून सहित) पर टकराव था। परंतु जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता की होती, तब वे राजनीतिक विरोध को पीछे रखते हुए केंद्रीय एजेंसियों के साथ तालमेल बैठाकर चलते थे। क्या कैप्टन अमरिंदर को संवेदनशील पंजाब के मुख्यमंत्री पद से हटाने के पीछे कहीं राष्ट्रविरोधी शक्तियों की कोई भूमिका तो नहीं?
“काफिर-कुफ्र” अवधारणा की वैचारिक नींव पर खड़ा पाकिस्तान, भारत को हजारों घाव देकर मौत के घाट उतारना चाहता है, जिसमें कश्मीर सहित कई क्षेत्रों को अशांत करना- उसका घोषित एजेंडा है। चार दशक पहले पंजाब में सिख अलगाववाद को खड़ा करने और इसे आज भी असफल रूप से भड़काने में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी- आई.एस.आई. और वहां के हुक्मरानों की प्रत्यक्ष भूमिका है, जो “ऑपरेशन टोपाक” के अंतर्गत वर्ष 1947, 1965 और 1971 के युद्ध में मिली शर्मनाक पराजय का बदला लेना चाहते हैं।
यदि पाकिस्तानी सत्ता-अधिष्ठान अंग्रेजों की “बांटो और राज करो” नीति के गर्भ जनित विकृत खालिस्तान दर्शन को आधार बनाकर पंजाब में सिख अलगाववाद को भड़काने का प्रयास कर रहा है, तो उसे उपयुक्त माहौल देने में कांग्रेस की विभाजनकारी राजनीति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। क्या यह सत्य नहीं कि 1980 के दशक में अपने राजनीतिक विरोधी अकाली दल को हाशिए पर डालने के लिए इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने पंजाब में जरनैल सिंह भिंडरांवाले जैसे भस्मासुर को आगे किया था? उस समय जहां कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने सिखों के सर्वमान्य नेता संत लौंगोवाल और सरदार प्रकाश सिंह बादल की लोकप्रियता घटाने के लिए भिंडरावाला को संत की उपाधि से नवाजा, तो भिंडरावाला को हाजिरी देने देश के तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह उसके दरबार पहुंच गए।
अल्पकाल में ही भिंडरावाला की करतूतों से इंदिरा गांधी को बोध हो गया कि उन्होंने जहरीले दोमुंहे सांप को पाला है। उसपर अंकुश लगाने के लिए इंदिरा ने ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार’ सैन्य अभियान को स्वीकृति दी, जिसमें स्वर्ण मंदिर की पवित्रता तो भंग हुई ही, साथ ही 300 से अधिक निर्दोष श्रद्धालु भी मारे गए। क्षुद्र राजनीतिक लाभ के लिए इंदिरा ने जो मार्ग चुना, उन्हें उसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। इसके बाद ही दिल्ली-एनसीआर सहित देश के कुछ क्षेत्रों में कांग्रेस-प्रायोजित नरसंहार में सैकड़ों-हजार निर्दोष सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया। पंजाब ने 1995 तक पाकिस्तान प्रोत्साहित आतंकवाद का दंश झेला। हजारों हिंदुओं और सिखों ने इसके खिलाफ आवाज उठाकर और बलिदान देकर देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता की रक्षा की। अलगाववाद की आग में कई निर्भीक पत्रकारों (पंजाब केसरी परिवार के पुरोधा लाला जगत नारायण और उनके सुपुत्र रमेश सहित) के साथ हरचंद सिंह लोंगोवाल, बेअंत सिंह, जनरल अरुण श्रीधर वैद्य, हित अभिलाषी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सैकड़ों कार्यकर्ता भी झुलस गए।
क्या कांग्रेस ने अपनी गलतियों से कोई सबक लिया? इसका उत्तर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के उस “आउटसोर्स्ड” वामपंथी चिंतन में छिपा है, जिसमें भारत की सनातन संस्कृति से घृणा, मजहबी अलगाववादियों-आतंकवादियों से सहानुभूति के साथ राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सुरक्षा का भाव गौण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से द्वेष के कारण भाजपा नीत राजग-3 सरकार को सत्ता से हटाने के लिए कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व- किसानों-आढ़तियों के एक वर्ग (अधिकांश समृद्ध या नव-धनाड्य) द्वारा संचालित कृषक आंदोलन में शामिल अलगाववादी तत्वों की सुविधाजनक अनदेखी करके उनका परोक्ष समर्थन कर रहा है।
इस मामले में कैप्टन अमरिंदर का रवैया भिन्न है। वह कृषि कानून विरोधी किसान आंदोलन के समर्थक तो है, किंतु वे इसे पाकिस्तान के हाथों की कठपुतली बनने देने को तैयार नहीं है। कैप्टन पहले ही खुलासा कर चुके थे कि जब से कृषक आंदोलन प्रारंभ हुआ है, तब से पंजाब में एकाएक पाकिस्तानी घुसपैठ बढ़ने के साथ सीमापार से हेरोइन और हथियार भेजे जाने के मामले भी अचानक बढ़ गए है। उनका स्पष्ट कहना था, “जब तक मैं हूं, किसी खालिस्तानी और पाकिस्तानी या अन्य किसी आतंकवादी गतिविधि को राज्य के अमन-चैन में बाधा पैदा करने नहीं दूंगा।” क्या उनके इस्तीफे का इससे कोई संबंध है?
दुर्भाग्यपूर्ण तो यह भी है कि पंजाब में कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने कैप्टन अमरिंदर सिंह के स्थान पर उस व्यक्ति का चुनाव किया है, जिसपर एक महिला अधिकारी को आपत्तिजनक संदेश भेजने का आरोप है। “मीटू” अभियान के अंतर्गत इस मामले का खुलासा हुआ था। यह विडंबना है कि जब अक्टूबर 2018 में बतौर केंद्रीय राज्यमंत्री एमजे अकबर पर एक महिला पत्रकार ने मीटू संबंधित आरोप लगाया था, तब उन्हें मंत्रिपद छोड़ना पड़ा था। किंतु पंजाब में कांग्रेस ने मीटू आरोपी चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री का पद दे दिया। इस प्रकार का विकृत चिंतन कांग्रेस में नया नहीं है। अभी कुछ दिन पहले ही कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी ने महिला सम्मान की नई परिभाषा निर्धारित की थी कि कौन नेता अपने बगल में कितनी महिलाओं को साथ लेकर चलता है। इसपर उन्होंने बौद्धिक पंगुता का परिचय देते हुए एक हास्यास्पद तुलना भी की थी।
चन्नी से पहले पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में प्रदेश पार्टी ईकाई के पूर्व अध्यक्ष सुनील कुमार जाखड़ के नाम की चर्चा थी। किंतु गांधी परिवार की निकटवर्ती अंबिका सोनी ने कहा कि पंजाब में पगड़ीधारी को ही मुख्यमंत्री होना चाहिए। तब जाखड़ का पत्ता कटा और इससे खिन्न होकर कहा, “मामले को हिंदू बनाम सिख बनाना पंजाब का अपमान है, जिसका चरित्र सेकुलर है।” यह विकृत स्थिति तब है, जब स्वतंत्र भारत में पंजाब के पहले मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव- हिंदू थे।
वास्तव में, यह छद्म-सेकुलरवाद की पराकाष्ठा है, जिसमें वृहत हिंदू समाज को जाति-पंथ के आधार पर बांटने और इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को एकजुट करने का विषैला दर्शन है। पंजाब के अतिरिक्त देश के जिन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक है- जैसे जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश- वहां वे अपनी आस्था के कारण मुख्यमंत्री बनने के मापदंड पर खरा नहीं उतरते। इसके पीछे सबसे बड़ा तर्क दिया जाता है कि संबंधित क्षेत्र की आबादी अपने समाज से बाहर के व्यक्ति को स्वीकार नहीं करेगी। इस विकृत मानसिकता के कारण जम्मू-कश्मीर में कभी कोई गैर-मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं बन पाया।
प्रतिकूल इसके हिंदू बहुल केरल, महाराष्ट्र, असम, राजस्थान, बिहार, आंध्रप्रदेश और गुजरात में क्रमश: सी.एच.मुहम्मद (1979), अब्दुल रहमान अंतुले (1980-82), अनवारा तैमूर (1980-81), अब्दुल गफूर (1985-86), बरकतुल्ला खान (1971-73), ईसाई वाई.एस.राजशेखर रेड्डी (2004-09), जगनमोहन रेड्डी (2019 से लगातार) और जैन समाज से विजय रुपाणी (2016-21) बन मुख्यमंत्री चुके है। यही नहीं, हिंदू बहुल भारत में कई गैर-हिंदू राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति भी बन चुके है। स्पष्ट है कि मजहबी विभाजन के बाद खंडित भारत का सनातन हिंदू चरित्र ही बहुलतावाद, लोकतंत्र और सेकुलरवाद जैसे मूल्यों की गारंटी है। सनातन हिंदुओं की जनसंख्या में ही इन सभी जीवनमूल्यों की सुरक्षा निहित है। इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस का पंजाब में दांव क्या गुल खिलाएगा, वह छह माह पश्चात होने वाले चुनाव के परिणाम से स्पष्ट हो जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)