कितना बदला जम्मू-कश्मीर?
बलबीर पुंज
जम्मू-कश्मीर से धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण को शुक्रवार (5 अगस्त) को तीन वर्ष पूरे हो जाएंगे। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि घाटी में इस दौरान क्या-क्या बदला है? एक विकृत वर्ग कुछ हालिया जिहादी घटनाओं को आधार बनाकर विमर्श बना रहा है कि धारा 370-35ए के हटने और कश्मीरी पंडितों के नरसंहार-पलायन पर आधारित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ बनने से घाटी में मजहबी कट्टरता बढ़ी है और गैर-मुस्लिमों- विशेषकर हिंदुओं पर हमले हुए है। क्या इसमें सच्चाई है?
नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और वामपंथी आदि के ‘गुपकार गठबंधन’ और कांग्रेस सहित अन्य स्वयंभू ‘सेकुलर’ दलों के मन की बात- खुली पुस्तक है। वे धारा 370-35ए को बहाल करने और घाटी में पुरानी व्यवस्था के पक्षधर हैं, जिसमें- शरीयत का दबदबा था, दलितों-वंचितों के अधिकार क्षीण, तो महिलाधिकार सीमित थे। पाकिस्तान-पोषित अलगगाववादियों को फुफकारने की स्वतंत्रता थी। राष्ट्रीय ध्वज गौण था। संवैधानिक ईकाइयों को केंद्रीय अनुदानों के हिसाब-किताब का अधिकार नहीं था।
बीते तीन वर्षों में जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में ऐसे कई मनोवैज्ञानिक परिवर्तन हुए हैं, जिन्हें शब्दों-आंकड़ों में बांधना कठिन है। फिर भी कुछ पर प्रकाश डालें, तो धारा 370-35ए के निरस्त होने और राज्य पुनर्गठन अधिनियम के बाद इस पूरे क्षेत्र में 890 केंद्रीय कानूनों का विस्तार हुआ है, तो 205 राजकीय कानूनों को निरस्त और 129 कानूनों में संशोधन किया गया है, जिससे दोनों केंद्र शासित प्रदेशों- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में समतामूलक व्यवस्था की स्थापना हुई है। अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों और सफाई कर्मचारियों के साथ अन्य पारंपरिक वनवासियों (गुज्जर-बकरवाल, गद्दी-सिप्पी समाज सहित) जैसे कमजोर वर्गों के अधिकारों को अब प्रासंगिक अधिनियमों के लागू होने के बाद सुनिश्चित किया जा रहा है। जनजाति समाज को वन अधिकार अधिनियम 2006 के अंतर्गत अधिकार मिलने से क्षेत्र में 11,000 सरकारी नौकरियां सृजित हुईं। इस वर्ष के आखिर तक वनवासी क्षेत्रों में 200 विद्यालयों का आधुनिकीकरण पूरा करने की योजना है।
राष्ट्रीय निवेशकों के साथ अंतरराष्ट्रीय निवेशक भी जम्मू-कश्मीर में निवेश हेतु उत्साहित हैं। इस संबंध में संयुक्त अरब अमीरात के 36 सदस्यीय उच्च स्तरीय व्यापार प्रतिनिधिमंडल ने 21-22 मार्च 2022 को श्रीनगर का दौरा भी किया था। दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्तियों के समूह जी-20 की बैठकें वर्ष 2023 में शेष भारत की भांति कश्मीर में भी आयोजित की जाएगी। धारा 370-35ए के प्रभावी रहते में बीते सात दशकों में यहां 17 हजार करोड़ रुपये का निवेश हुआ था, जबकि पिछले दो वर्षों में 38 हजार करोड़ रुपये से अधिक का निवेश आ चुका है और अब इसके लक्ष्य को 50,000 करोड़ रुपये तक बढ़ा दिया गया है। इससे प्रदेश में लाखों रोजगार सृजित होने की आशा है। एकल विंडो प्रणाली से भी उद्योग को बढ़ावा देने में प्रदेश के लिए लाभदायक सिद्ध हो रहा है। इस समय सरकारी विभाग की 130 सेवाएं ऑनलाइन उपलब्ध हैं। स्पष्ट है कि धारा 370 के क्षरण पश्चात यहां निवेश-विकास के मार्ग से कई अवरोधक हट रहे हैं।
अगस्त 2019 से पहले सरकारी परियोजनाओं के क्रियान्वयन की गति कितनी धीमी थी, यह इस बात से स्पष्ट है कि नवंबर 2015 में प्रधानमंत्री विकास पैकेज के अंतर्गत स्वीकृत 58,477 करोड़ की 53 परियोजनाओं में से जून 2020 तक केवल सात ही पूर्ण हो पाए थे, जबकि बीते दो वर्षों में 22 अन्य योजनाएं पूरी हो चुकी हैं, तो शेष के 2023 के अंत तक पूरे होने की संभावना है। 21,441 करोड़ रुपये की नौ परियोजनाएं लद्दाख में चल रही हैं। यह बदलाव केवल विकास-कार्यों तक ही सीमित नहीं। जम्मू-कश्मीर अपनी मूल सांस्कृतिक विरासत की पुर्नस्थापना की ओर भी अग्रसर है। इस्लामी हिंसा का शिकार हुआ अनंतनाग स्थित प्राचीन मार्तंड सूर्य मंदिर में वैदिक मंत्रोच्चार के साथ धार्मिक अनुष्ठान, श्रीनगर के ऐतिहासिक रघुनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार, जम्मू में तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम को देवालय बनाने की स्वीकृति मिलना और वर्षों से बंद सैकड़ों मंदिरों का दोबारा खुलना- इसका प्रमाण है।
यह ठीक है कि धारा 370-35ए के निष्प्रभावी होने के बाद नए-पुराने जिहादियों (यासीन मलिक सहित) पर कार्रवाई की जा रही है, किंतु इससे आतंकवादी हमलों पर लगाम नहीं लगी है। वर्ष 2018 में 417 आतंकी हमले हुए थे, जो 2021 में घटकर 229 रह गए। इन तीन वर्षों में जम्मू-कश्मीर में 21 हिंदुओं सहित 118 नागरिकों की आतंकी हमलों में मौत हुई, तो 128 सुरक्षाकर्मी बलिदान हुए हैं। राज्यसभा में 20 जुलाई को प्रस्तुत सरकारी वक्तव्य के अनुसार, अगस्त 2019 के बाद से कश्मीर में 5,502 कश्मीरी पंडितों को विभिन्न सरकारी विभागों में नौकरियां दी गईं और एक ने भी घाटी नहीं छोड़ी है। यह पक्ष इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हालिया नियोजित जिहादी हमलों के बाद आक्रोशित पीड़ित वर्ग ने घाटी से पलायन की बात की थी, जिसे कश्मीर के ‘यथास्थितिवादियों’ ने लपककर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया था। यह कोई पहली बार नहीं है। यह जमात बार-बार तंज कसते हुए पूछ रहा है कि धारा 370-35ए के हटने के बाद से कितने कश्मीरी पंडित घाटी वापस लौट पाए है? सच तो यह है कि उनका कश्मीरी हिंदुओं के हितों से कोई सरोकार नहीं।
वास्तव में, उपरोक्त जमात उस विभाजनकारी राजनीति को अप्रत्यक्ष रूप से न्यायोचित ठहराने का प्रयास कर रहा है, जिसका बीजारोपण घोर सांप्रदायिक शेख अब्दुल्ला ने 21 जून 1931 को खानकाह-ए-मौला मस्जिद में अपने राजनीतिक पदार्पण के साथ किया था। कालांतर में उस दृष्टिकोण को उनके पुत्र फारूख़, पोते उमर के साथ मुफ्ती परिवार सहित अन्य मानस बंधुओं ने आगे बढ़ाया। इसमें धारा 370-35ए वह रक्तबीज बने, जिसने कश्मीर में ‘काफिर-कुफ्र’ जनित ‘इको-सिस्टम’ के निर्माण और घाटी के इस्लामीकरण में निर्णायक भूमिका निभाई। इसकी वीभत्स परिणति वर्ष 1989-91 में तब देखने को मिली, जब अपनों की निर्मम हत्या, बलात्कार, लूटपाट और मंदिरों को तोड़े जाने के बाद हिंदुओं ने विवश होकर पलायन कर लिया। अब जिस मजहबी अलगाववाद, कट्टरता और घृणा को यहां दशकों से पोषित किया गया है, उसका समूल विनाश दो या तीन वर्षों में नहीं हो सकता। घाटी में अपनी मूल संस्कृति के अनुरूप बहुलतावाद, समरसता और समग्रता कब पुष्पित होगा, इसका उत्तर अभी भविष्य के गर्त में है।