केरल : अकादमिक जगत में उत्कृष्टता का वाम कदाचरण
डॉ. आनंद पाटिल
केरल : अकादमिक जगत में उत्कृष्टता का वाम कदाचरण
‘गॉड्स ओन कन्ट्री’ अर्थात् केरल को भारत का सबसे ‘साक्षर’ राज्य माना जाता है। यहाँ महिला साक्षरता दर भी सर्वाधिक है। 2011 की जनगणना इस तथ्य की पुष्टि करती है। वामपंथी विचारधारा के चिंतक-संवाहक इसे ‘प्रगतिशील राज्य’ कहते हैं, परंतु शिक्षा-व्यवस्था में भ्रष्टाचार की गहरी जड़ों को देखते हुए कहना न होगा कि यह ‘प्रगतिशीलता’ केवल ‘बतरसी प्रगतिशीलता’ है, क्योंकि आचरण एवं व्यवहार में कठमुल्लापन, अनियमितता एवं भ्रष्टाचार कई स्तर-प्रस्तरों में व्याप्त है। बावजूद इसके केरल का विचारांध समाज इसी निमग्न दिखाई देता है।
इन दिनों केरल राज्य सरकार के अधीन विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में ‘भाई-भतीजावाद’ और ‘पक्षपात’ का मुद्दा चर्चा में है। इसे लेकर सत्तासीन वामपंथी दल (माकपा) और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच तल्खी एवं तनातनी बढ़ी हुई है। इस तनातनी के पीछे केरल के माकपा नेता एवं पूर्व राज्यसभा सांसद के. के. रागेश की पत्नी प्रिया वर्गीज की कन्नूर विश्वविद्यालय में मलयालम विषय के एसोसिएट प्रोफेसर पद पर नियुक्ति है। सूत्र बताते हैं कि राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने कुलाधिपति के रूप में अपने प्राधिकार का उपयोग करते हुए प्रिया वर्गीज की नियुक्ति पर रोक लगायी है और शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त अनियमितता, राजनीतिक हस्तक्षेप एवं भाई-भतीजावाद पर प्रहार किया है।
आश्चर्य की बात है कि भ्रष्टाचार में लबालब कांग्रेस पार्टी उसके आश्रय में पली-बढ़ी विचारधारा के ध्वजधारक दल को दलदल में छोड़कर राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के समर्थन में खड़ी दिखायी दे रही है। इस आचरण के कारण स्थानीय लोग उसे ‘चिकना घड़ा’ कहने से नहीं चूक रहे हैं।
ध्यातव्य है कि के. के. रागेश मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के निजी सचिव भी हैं। इसलिए माकपा अपने नेता के समर्थन में खड़ी हो गयी है और राज्यपाल द्वारा नियुक्ति पर रोक लगाने के निर्णय को असंवैधानिक बताते हुए कह रही है कि ‘शोध में प्रिया वर्गीज के अंक सबसे कम थे, किन्तु साक्षात्कार में सर्वाधिक अंक थे।’ इससे यह अनुमान होता है कि नियमों में प्रचंड हेराफेरी हुई है। प्रिया वर्गीज की एसोसिएट प्रोफेसर पद पर नियुक्ति करने के लिए नियमों की धज्जियाँ उड़ाये जाने के आरोपों के बीच राजनीतिक हस्तक्षेप एवं प्रभाव से होनेवाली नियुक्ति को दृष्टिगत रखते हुए यह प्रतीत हो रहा है कि राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान पूरी भर्ती प्रक्रिया की जाँच करायेंगे। स्मरणीय है कि कुलपति का कार्यकाल बढ़ाए जाने से ठीक पहले नवंबर में हुए साक्षात्कार में प्रिया वर्गीज को प्रथम रैंक दिए जाने के बाद विवाद खड़ा हो गया था। आरिफ मोहम्मद खान ने कल एक अन्य प्रसंग में अकारण ही नहीं कहा कि लोकतंत्र में जो लोग नेता का चयन करते हैं, उनके अंदर चेतना पैदा होनी चाहिए कि हमारा नेतृत्व कैसा है।
स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आलोक यह उल्लेखनीय है कि केरल में बिना घूसखोरी के किसी भी पद पर नियुक्ति संभव नहीं है। अर्थात् राजनीतिक हस्तक्षेप एवं प्रभाव से इतर नियुक्तियों में घूसखोरी केरल सरकार, व्यवस्था एवं समाज व्यवस्था का चाल-चलन एवं चरित्र उजागर करती है। कहा जा रहा है कि सहायक प्रोफेसरों की नियुक्ति में 30-35 लाख और सह-प्रोफेसरों की नियुक्ति में 45-50 लाख केरल के शिक्षा संस्थानों का वर्तमान ‘बाजार भाव’ है। वाम-वाम का नाम जपने वाले सुशिक्षित खरीददार भी बहुत हैं। यहाँ तक कि राजनीतिक प्रभाव के साथ-साथ घूस देने वालों की संख्या भी कम नहीं है। कुल मिलाकर, ‘समतामूलक समाज’ (साम्यवाद) का राग अलापने वाले सबसे साक्षर एवं सुशिक्षितों का यह मूल चरित्र है। कहना न होगा कि हाशिये का समाज ऐसे सरकारी पदों पर पहुँचने के लिए न तो राजनीतिक प्रभाव का आधार ले सकता है, न ही लाखों रुपयों में अपने लिए कोई पद ही खरीद सकता है। इस सबके बावजूद केरल का हाशिये का समाज कहिए अथवा आयातित वैचारिकी की शब्दावली में ‘सर्वहारा’, पूरी तरह से वामपंथी विचारधारा की चपेट में है। इस सबके बावजूद यह सत्य है कि विचारांधता के कारण ही केरल में वामपंथ सत्तासीन है।
यह नियुक्तियों में ‘पूँजी का खेल’ और ‘राजनीतिक प्रभाव’ है, परंतु केरल के सुशिक्षितों में ‘विचारधारात्मक कट्टरता’ भी नियुक्तियों का मूल आधार है। शैक्षिक संस्थानों पर अपनी पकड़ बनाने और उसे बनाये रखने के लिए वामपंथ अनुयायी हरसंभव प्रयास करते हैं। यहाँ तक कि वे महाविद्यालय-विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने के लिए भी योजनाबद्ध पद्धति से तैयारी करते हैं और संपूर्ण तंत्र को हाइजैक कर लेते हैं। 2021 में दिल्ली विश्वविद्यालय के महाविद्यालयों में प्रवेश का वह प्रसंग स्मरणीय है कि केरल बोर्ड के विद्यार्थियों को किसी की भी तुलना में उच्चतम अंक (अधिकांश 100% प्रतिशत) प्राप्त थे। वे कोई-न-कोई गणितबाजी करके सबसे अधिक सीटें प्राप्त कर लेते हैं। 2021 में हिंदू कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में राजनीति विज्ञान (ऑनर्स) में प्रवेश प्राप्त करने वाले अधिकतर विद्यार्थी केरल राज्य बोर्ड से थे। यह विचारधारा के विस्तार के लिए युवा पीढ़ी को तैयार करना और उन्हें कमान सौंपने के एजेण्डे से किया गया दुस्साहस था। इसी प्रकार तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय में भी केरल के प्रदर्शनकामी, आंदोलनजीवी एवं आज़ादी नारावीर युवाओं की भीड़ है और इस भीड़ ने प्रायः नानाविध षड्यंत्र कर विश्वविद्यालय में अपनी तरह का भीड़तंत्र खड़ा किया है और यह तंत्र अप्रसंग अशांति फैलाने में सफल रहता है।
यह पहलू (हथकंडा) इस बात को और अधिक दृढ़ बनाता है कि विचारधारा के प्रचार-प्रसार हेतु वामपंथानुयायी कोई क़सर नहीं छोड़ते। वे रहस्यात्मक ढंग से या व्यवस्था को धता बताते हुए अथवा छल-साधन से अपनी उपस्थिति (जगह) सुनिश्चित करते हैं। यहाँ तक कि वामपंथियों के छल-साधन एवं जुगाड़ को केन्द्र सरकार के विश्वविद्यालयों की भर्तियों में भी सहज देखा जा सकता है। वे येनकेन प्रकारेण अपने लिए पद सुनिश्चित (आरक्षित) कर लेते हैं। इस दृष्टि से भारत की शिक्षा व्यवस्था में एक अपनी ही तरह का ‘विशिष्ट आरक्षण’ प्रचलन में है – ‘वामपंथी आरक्षण’, जो कि अदृश्य होकर भी दृश्यमान है। इस पूरी प्रक्रिया में इतना स्पष्ट है कि ‘समतामूलक समाज’ एक बड़ा भ्रमजाल है। केरल में होने वाली नियुक्तियों में उन्हीं को स्थान मिलता है, जो या तो धनवान हैं, या वामपंथी राजनीति के प्रभावी नेताओं के संबंधी। प्रश्न यह है कि देश-तोड़क विचारधारा के विचारांध अनुयायियों (शिक्षक एवं शिक्षार्थी) की भीड़ से शैक्षिक संस्थान एवं व्यापक रूप में देश को कैसे बचाया जाए?
शिक्षा में नवाचार और मजहबी मानसिकता : परदे में रहने दो, परदा न उठाओ
इस तथाकथित प्रगतिशील केरल में शिक्षा में नवाचारों पर मजहबी खंजर चल रहा है। केरल इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) के महासचिव पीएमए सलाम ने ‘जुम्मे के दिन’ केरल सरकार की नयी शिक्षा-व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगा कर विवाद खड़ा कर दिया। स्मरणीय है कि केरल सरकार ने जेंडर-न्यूट्रल पॉलिसी को लागू किया है। इस नीति के अंतर्गत लड़के-लड़कियाँ कक्षाओं में एक-दूसरे के बगल में बैठ कर शिक्षा ग्रहण करेंगे। वास्तव में, यह सह-शिक्षा (को-एजुकेशन) का विस्तारित स्वरूप है, परंतु कट्टरपंथी एवं मजहबियों की दृष्टि में ऐसी उदारवादी योजनाएँ तथा चिंतन के लिए ठेठ अस्वीकृति एवं चेतावनी है। पीएमए सलाम यह दावा कर रहे हैं कि लड़के-लड़कियों का एक-दूसरे के बगल में बैठना ख़तरनाक है। ऐसा करने से वे पढ़ाई से विचलित हो जायेंगे।
जबकि केरल में समलैंगिकता भी सर्वाधिक चर्चित विषय है। केरल में एलजीबीटी समर्थकों की प्रचुर संख्या है। इसी क्रम में संभोग के लिए पार्टनर बदलने के मामले भी प्रकाश में आये हैं। अर्थात् लैंगिक दृष्टि से एक प्रकार की अस्थिरता केरल के समाज में चर्चित है। इस प्रकार ‘विचलन’ के लिए कई आधार हैं, परंतु सलाम व्यक्तिगत आस्था पर मंडराते संकट को दृष्टिगत रखते हुए ‘नैतिकता’ वाला पाठ पढ़ा रहे हैं। केरल में लैंगिक दृष्टि से फैली अस्थिरता और विचलन की दृष्टि से ‘जेंडर-न्यूट्रल’ बच्चों में मनोसंतुलन की दृष्टि विकसित करने में सार्थक पहल सिद्ध हो सकती है, परंतु ऐसा प्रतीत होता है, मानो पुरातनता (कठमुल्लापन) से ग्रसित कट्टरपंथी मजहबी किसी भी प्रकार का संतुलन ही तो नहीं चाहते। वे हर प्रकार से स्वयं को अन्यों से अलग दिखाने का प्रयास करते हैं। नहीं भूलना चाहिए कि स्वयं को ‘भारतेतर संस्कृति’ कहने-कहाने वालों ने देश के टुकड़े कर दिये थे।
यद्यपि सलाम ‘जेंडर-न्यूट्रल’ को धार्मिक मुद्दा नहीं कह रहे हैं, तथापि ‘नैतिकता का लबादा’ चढ़ाने के बावजूद उन्होंने उसका सांप्रदायीकरण कर दिया है। स्मरणीय है कि पिछले दिनों हिजाब विवाद चर्चा में रहा है और कई मुस्लिम युवतियों ने भी हिजाब के समर्थन में अपनी आवाज़ उठायी है। ऐसे में, क्या यह नहीं कहा जा सकता कि मजहबी मानसिकता से ग्रस्त समाज को यह भय भी हो सकता है कि ‘जेंडर-न्यूट्रल’ की आड़ में धीरे-धीरे बाकी सारे ‘समान नियम’ ही न लागू हो जाए?
यह भी स्मरणीय है कि कट्टरपंथी मजहबी प्रायः उदारवादी चिंतन का विरोध करते हैं। ऐसे समाज में स्त्री को समानाधिकार केवल दीवास्वप्न ही कहा जा सकता है। जबकि इस पूरे प्रसंग में रह-रह कर यह प्रश्न उठता है कि न जाने क्यों प्रगतिशील एवं समतामूलक समाज की पक्षधर सत्ता में सहभागी मजहबियों को प्रगतिशीलता, उदारता एवं समता में विश्वास नहीं है।
वैसे, केरल में ‘जेंडर-न्यूट्रल’ नवीन विषय नहीं है। केरल के एर्नाकुलम जिले के वलयनचिरंगारा में एक प्राथमिक सरकारी स्कूल द्वारा 2018 में जेंडर-न्यूट्रल यूनिफॉर्म लागू किया गया था। इस निर्णय को लागू करने के उद्देश्य को रेखांकित करते हुए विद्यालय प्रशासन ने कहा कि लड़के-लड़कियों को समानता की दृष्टि से देखा जाना चाहिए और दोनों को समान स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। वैसे, वामपंथ के गढ़ ‘समता’ की बात करना और उसे क्रियान्वित करने के उदाहरण अत्यल्प हैं। कथनी और करनी में तारतम्य की स्थापना हो जाए, तो क्या कहना। वैसे, यह देखना होगा कि केरल सरकार मुस्लिम लीग द्वारा उठाये गये इस मुद्दे को किस हद तक अनदेखा-अनसुना करती है। यदि अनदेखा-अनसुना करती है, तो क्या और कैसे परिणाम होंगे। कई प्रश्न हैं, परंतु अति गंभीर प्रश्न है – क्या वामपंथी सरकार अपने मजहबी समर्थकों को ‘समता’ का पाठ पढ़ा पायेगी?