लोक आस्था का सैलाब कैला देवी का लक्खी मेला
मनोज गर्ग
लोक आस्था का सैलाब कैला देवी का लक्खी मेला
राजस्थान राज्य के करौली जिले में त्रिकूट पर्वत के मध्य बने कैला देवी के मंदिर की ख्याति आज देश के दूर-दराज क्षेत्रों तक ही नहीं देश के बाहर भी है। करौली जिला मुख्यालय से 23 किलोमीटर दूरी पर कैला देवी का भव्य मंदिर स्थित है। यहीं पर प्रतिवर्ष कैला देवी का प्रसिद्ध लक्खी मेला लगता है। मंदिर का प्रबंध एक ट्रस्ट के माध्यम से होता है। ट्रस्ट व सरकार के सहयोग से मेले की सारी व्यवस्थाएं होती हैं। सरकारी आकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष 35-45 लाख श्रद्धालु मेले में आते हैं।
पौराणिक मान्यता
मान्यता है कि द्वापर युग में माता देवकी की कोख से जन्मीं योगमाया का अवतार 8वीं संतान (कन्या) जिसे कंस ने मार डालने का प्रयत्न किया था, वही योगमाया त्रिकूट पर्वत पर अवतरित हुईं और कैलेश्वरी कहलाईं। आगे चलकर कैला देवी के नाम से शक्तिपीठ के रूप में यह स्थान प्रसिद्ध हुआ। कुछ लोग इसे कलिया माता के नाम से भी बुलाते हैं।
ऐसा भी कहा जाता है कि त्रिकूट पर्वत पर नरकासुर राक्षस का आतंक था। जो गांव वालों को परेशान करता था। वहीं तपस्यारत बाबा केदार गिरी से गांव वालों ने विनती की तब उन्होंने अपनी तपस्या से देवी को प्रसन्न किया जिसके कारण राक्षस का वध हो सका। मंदिर के पास बहती काली सिल नदी स्थित एक बड़ी शिला पर आज भी राक्षस के पैरों के निशान देखे जा सकते हैं। यह स्थान दानव-दह (घाट) के नाम से जाना जाता है। इसके साथ ही माता के चरण चिह्न भी एक शिला पर स्पष्ट दिखाई देते हैं।
विशाल आयोजन
यहाँ चैत्र मास में शक्ति पूजा का विशेष महत्त्व है। होली के बाद (चैत्र मास की द्वादशी से) प्रारम्भ होने वाला कैला देवी का यह मेला 15 दिनों तक चलता है। जो अंग्रेजी माह के अनुसार मार्च-अप्रैल में आयोजित होता है। इस बार यह लक्खी मेला 19 मार्च से प्रारंभ हो रहा है। मेले में राजस्थान के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, दिल्ली, हरियाणा एवं गुजरात से भी लाखों श्रद्धालु कैला देवी के दर्शनार्थ आते हैं। मेले में श्रद्धालु दर्शन से पूर्व श्रद्धालु काली सिल नदी में स्नान करते हैं।
इतिहास
मंदिर का इतिहास लगभग 1 हजार वर्ष पुराना है। मान्यता है कि राजा भोमपाल ने 1600 ई. में इस मंदिर को भव्य स्वरूप प्रदान किया। इतिहासकारों का यह मानना है कि वर्तमान में जो कैला गांव है, वह करौली यदुवंशी राजाओं के आधिपत्य में आने से पहले गागरोन के खींची राजपूतों के शासन में था। खींची राजा मुकन्ददास ने मंदिर की सेवा, सुरक्षा का दायित्व राजकोष पर लेकर नियमित भोग-प्रसाद व ज्योत की व्यवस्था की थी। राजा रघुदास ने प्रारंभ में लाल पत्थरों से नागर शैली में माता का मंदिर बनवाया। वर्तमान में यह संगमरमर से बना है।
मेले का आकर्षण
मेले का मुख्य आकर्षण शुरू के पांच दिन और अंतिम चार दिनों में देखने को मिलता है जब लाखों की संख्या में दूरदराज से श्रद्धालु नंगे पैर पदयात्रा एवं लम्बे-लम्बे ध्वज (निशान) लेकर लांगुरिया (भजन) गाते हुए आते हैं। नव-दम्पतियों का जोड़े से दर्शन करना, बच्चों का मुंडन संस्कार यहां की मुख्य परम्परा है। मेले के दौरान 24 घंटे भंडारे व ठहरने की व्यवस्था रहती है।
चरणबद्ध आते हैं यात्री
लक्खी मेले में प्रदेशों की मान्यता अनुसार यात्री आते हैं। चैत्र कृष्ण बारह से पड़वा तक के प्रथम चरण में अधिकतर उत्तर प्रदेश के यात्री होते हैं। द्वितीय चरण में नवरात्रा स्थापना से तृतीया तक दिल्ली व हरियाणा के यात्री, तीसरे चरण में चतुर्थी से छठ तक मध्यप्रदेश तथा धौलपुर क्षेत्र के लोग, चौथा चरण सप्तमी से नवमीं तक होता है इसमें गुजरात, मुम्बई व दक्षिण भारतीय राज्यों के सबसे अधिक यात्री आते है तथा अंतिम चरण में (दशमी से पूर्णिमा तक) राजस्थान भर सेबड़ी संख्या में दर्शनार्थी आते हैं। हमारी लोक आस्था का प्रतीक है यह मेला।
कैसा है विग्रह स्वरूप
मंदिर के अंदर चांदी की चौकी पर सोने और चांदी के छत्र के नीचे दो मनोहारी विग्रह बने हैं। बाईं ओर वाला विग्रह थोड़ा बड़ा है तथा मुंह थोड़ा तिरछा है, यही मातेश्वरी कैला मैया हैं। लोकमान्यता है कि एक भक्त ने जाते समय जल्दी लौटकर आने को कहा था, लेकिन किसी कारणवश वह नहीं आ सका इसलिए माँ उसके इंतजार में तिरछी देखती नजर आती हैं। दाहिनी ओर चामुण्डा माता हैं। माता के दरबार में अखण्ड देशी घी और तेल की ज्योत सदैव जलती रहती है। कैला देवी को धन की देवी महालक्ष्मी और चामुण्डा को राक्षसों व दुष्टों का संहार करने वाली देवी मां के रूप में यहां पूजा जाता है। मंदिर के सामने ही भैरों बाबा का एक छोटा मंदिर है। इसके पास ही लांगुरिया जी का मंदिर बना है। ऐसा कहते हैं कि लांगुरिया के भजन गाने से माता शीघ्र प्रसन्न होती हैं। माताजी को नारियल, लौंग-धूप, रोली, मेहंदी, पान, पताशा, हलवा-पूरी-चना आदि का प्रसाद चढ़ाते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर ध्वजा, छत्र, घंटा व माता जी की पोशाक चढ़ाते हैं।