क्या बिरसा मुंडा भी ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्र के शिकार हुए थे..?
9 जून – बिरसा मुंडा बलिदान दिवस विशेष
डॉ. शुचि चौहान
जनजातीय इलाकों व पिछड़ी बस्तियों में जाकर भोले भाले लोगों को पीड़ित व कमजोर दिखाकर भड़काना और फिर कभी सामाजिक असमानता के नाम पर तो कभी लालच देकर मतांतरित करना मिशनरियों का पुराना शगल रहा है। भारत में मुस्लिम आक्रांताओं ने तलवार के बल पर इस्लाम का प्रसार किया तो अंग्रेजों के समय में ईसाइयत का प्रचार प्रसार भी कम हिंसक व षड़यंत्रपूर्ण नहीं रहा। ब्रिटिशकाल में जनजातीय समाज की बड़ी बड़ी जमीनें गिरजाघरों व अंग्रेजों के लिए काम करने वाले लोगों को दान में दे दी गईं। जिससे जनजातीय समाज का ताना बाना तो बिगड़ा ही असंतोष भी फैला। जमीन बचाने के लिए लोग अंग्रेजों के पिछलग्गू भी बन गए। समाज से दूर हुए तो मिशनरियों को पॉंव फैलाने की जगह मिलने लगी। वे लोगों में फूट डाल उन्हें मतांतरित करने लगीं। शिक्षा के नाम पर मिशनरी स्कूल खोले गए, जिनका मुख्य उद्देश्य बच्चों का ब्रेन वॉश करना व मतांतरण ही था।
बिरसा मुंडा के पिता भी ईसाई प्रचारक थे, इस कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा चाईबासा के एक मिशनरी स्कूल में हुई। प्रतिभावान बिरसा मुंडा स्कूल में बड़ी प्रखरता से जल, जंगल और जमीन पर वनवासियों के हक की बात करते थे। इनका मन ब्रिटिश शासकों द्वारा हथिया ली गई जमीनों व समाज के लोगों को उत्पीड़ित किए जाने पर दुखी होता था। उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि यदि वे ईसाई बनें तो मुंडा सरदारों की छीनी गई जमीन को वह वापस करवा देंगे। लेकिन 1886-87 में जब मुंडा सरदारों ने अपनी जमीन की वापसी के लिए आंदोलन किया तो न केवल उस आंदोलन को दबा दिया गया बल्कि मिशनरियों द्वारा उसकी निंदा की गई। बिरसा मुंडा को इससे गहरा धक्का लगा। मुखर होने पर उन्हें मिशनरी स्कूल से निकाल दिया गया। यह बिरसा मुंडा के जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ था। उनके अंदर स्वाभिमान व अंग्रेजों के अत्याचारों से समाज को मुक्त कराने के लिए एक चिंगारी ने जन्म लिया जिसकी परिणति उलगुलान आंदोलन में हुई।
उन्होंने संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे। उन्हीं दिनों इलाके में अकाल और महामारी फैली तब उन्होंने न केवल अकाल पीड़ितों और बीमारों की सेवा की बल्कि मुंडा समाज को अज्ञानता व अंधविश्वास के विरुद्ध जागृत कर उन्हें अंग्रेजी शासन व मिशनरियों के विरुद्ध संगठित भी किया। धीरे धीरे लोग उनके अनुयायी बनने लगे। लेकिन वे मिशनरीज की ऑंखों की किरकिरी बन गए। बिरसा मुंडा ने न सिर्फ अपने समाज को संगठित किया बल्कि मतांतरण को भी रोका। उनके कल्याणकारी कामों के लिए उन्हें ईश्वर का दूत माना जाने लगा और उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ कहलाने लगे। इस तरह एक नए सम्प्रदाय की नींव पड़ी।
बिरसा ने सरदार आंदोलन व 1895 के वन सम्बंधी बकाए की माफी के आंदोलन को तेज धार दी और जन जागृति हेतु चाइबासा तक की यात्रा की। अंग्रेजों ने समस्याओं का हल निकालने के बजाय आंदोलन को कुचलने की कोशिश की और बिरसा को गिरफ्तार करने का कुचक्र रचा। पहले प्रयास में वे सफल नहीं हुए, बिरसाइतों ने उन्हें खदेड़ दिया। परंतु दूसरी बार अत्यंत सावधानी से रात के अंधेरे में बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें पहले रांची और फिर खूंटी ले जाया गया। वहॉं बिरसाइतों की इतनी भीड़ उमड़ी कि मुकदमे की कार्यवाही रोक, बिना सुनवाई ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों को भड़काने का आरोप लगाते हुए जेल भेज दिया गया। अनेक बिरसाइतों को भी जेल हुई। सबको दो साल के सश्रम कारावास व 50 रुपए जुर्माने की सजा दी गई।
1897 में बिरसा अनुयायियों समेत रिहा हुए। उस समय फिर चलकद इलाके में भीषण अकाल पड़ा था। बिरसा जेल से सीधे अकाल पीड़ितों के बीच पहुंचे और उनकी खूब सेवा की। इस बीच धार्मिक उपदेशों के साथ साथ लोगों को संगठित करने का काम भी उन्होंने जारी रखा। वे कहते थे ध्येय साधना से सारे काम सध जाते हैं। एक दिन ये जंगल फिर हमारे होंगे। लोगों का आत्मविश्वास लौटने लगा और वे अपने खोये राज्य को वापस पाने के लिए एकजुट होने लगे।
लगभग दो साल तक शांतिपूर्ण तरीके से नीतियां बनाने व संगठन का काम चला। 1899 में रांची जिले के खूंटी, तमाड़, सिंहभूम, चक्रधर आदि स्थानों पर जमींदारों को लगान न देने, जमीन को मालगुजारी से मुक्त रखने और जंगल के अधिकार वापस लेने आदि मांगों के साथ विद्रोह का बिगुल बजा दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने फिर इसे कुचलने का प्रयास किया और इन इलाकों में भारी पुलिस बल तैनात कर दिया। आंदोलनकारियों को खूब प्रताड़ित किया गया और बिरसा का सुराग बताने वाले को जीवन पर्यंत गॉंव का लगान मुक्त पट्टा देने का लालच दिया गया। फिर भी अंग्रेजों को सफलता नहीं मिली।
एक दिन बोम्बारी की पहाड़ी पर मुंडाओं की बैठक हुई जिसमें बिरसा ने रणनीति बदल गुरिल्ला युद्ध करने की घोषणा की। इस आंदोलन को उलगुलान नाम दिया गया। मुंडा, उरांव, कोल के जत्थों ने तीर कमान, बर्छे, कुल्हाड़ियां हाथ में ले एक साथ कई जगह चर्च, मिशनरियों, सरकारी कार्यालयों पर हमले किए और आग लगा दी। पूरा छोटा नागपुर अंग्रेजो भारत छोड़ो के नारों से गूंज उठा। अंग्रेजी सेना की गोलियों से 200 से ज्यादा आंदोलनकारी मारे गए। लोगों को प्रताड़ित किया जाने लगा, घर लूटे गए, महिलाओं की इज्जत तार तार की गई, जमीनें कुर्क की गईं। बिरसा को पकड़वाने वाले को पॉंच सौ रुपए इनाम की घोषणा की गई। बिरसा रात में लोगों से मिलते, घने जंगलों में उन्हें प्रशिक्षित करते व अपने उपदेशों से लोगों को लक्ष्य से न भटकने के लिए प्रेरित करते। मिशनरीज के प्रयत्नों से एक दिन दो सरदारों के आत्मसमर्पण की खबर आई, पता चला सरकार उन्हें सरकारी गवाह बनाएगी। 3 फरवरी 1900 को सेतेरा के जंगल में एक शिविर से रात में सोते हुए बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। नकद इनाम की घोषणा कारगर सिद्ध हुई।
बिरसा व उनके साथियों पर मिशनरियों पर हमला, आगजनी व राजद्रोह जैसे 15 आरोपों के विरुद्ध मुकदमा चला। 9 जून 1900 को विचाराधीन कैदी बिरसा मुंडा की सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार हैजा से मृत्यु हो गई। लेकिन बिरसाइतों ने इसे एक षड्यंत्र कहा। कारण जो भी रहे लेकिन एक 25 साल का वनवासी योद्धा चिरनिद्रा में सो गया और अपने पीछे पूरे समाज को हक के लिए लड़ने की राह दिखा गया। छोटी सी उम्र में बिरसा ने जो काम किए उससे वह अपने समाज में व्यक्ति से भगवान बन गए।