गुरुद्वारों में नमाज का सच
बलबीर पुंज
दिल्ली से सटे गुरुग्राम में नमाज प्रकरण की वास्तविकता क्या है? विगत शुक्रवार (26 नवंबर) को भी यहां सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढ़ने का स्थानीय निवासियों और संगठनों द्वारा विरोध हुआ। इस दौरान सेक्टर-37 में लोगों ने वर्ष 2008 के 26/11 मुंबई आतंकी हमले की बरसी पर शहीदों के लिए यज्ञ-हवन, हनुमान-चालीसा का पाठ किया और जय श्रीराम के नारे लगाए। इस घटनाक्रम को कई प्रतिष्ठित अंग्रेजी-हिंदी समाचारपत्र श्रृंखलाबद्ध तरीके से प्राथमिकता दे रहे हैं। इससे जो विमर्श स्थापित करने का प्रयास हो रहा है, उसमें अधिकारपूर्वक कब्जा करके नमाज पढ़ने का विरोध करने वालों को संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त और सांप्रदायिक, तो कुछ सिख संस्थाओं द्वारा गुरुद्वारों में नमाज पढ़ने के प्रस्ताव आदि को सौहार्दपूर्ण, समरसता और भाईचारे आदि की संज्ञाएं दी जा रही हैं। यह अलग बात है कि गुरुद्वारों में नमाज के प्रस्ताव का स्थानीय सिखों के एक वर्ग द्वारा भी विरोध किया जा रहा है।
वाम-जिहादी-सेकुलर कुनबा गुरुग्राम स्थित गुरुद्वारों में नमाज प्रकरण को “सिख-मुस्लिम भाईचारा” का प्रतीक बता रहे हैं। इस जमात ने ठीक ऐसा ही प्रयास वर्ष 2019-20 में नागरिक संशोधन अधिनियम (सीएए) विरोधी अभियानों के दौरान भी किया था। तब दिल्ली में मजहबी ‘शाहीन-बाग’ आंदोलन में एक ‘सिख’ ने प्रदर्शनकारियों के लिए लंगर जारी रखने के लिए “अपना घर बेच दिया था।” इसे सीएए विरोधियों द्वारा “सिख-मुस्लिम एकता” के रूप में खूब भुनाया गया, किंतु उन्होंने उसी सिख के मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) से जुड़ाव की बात को गुप्त रखा।
क्या एक शुद्ध इस्लामी व्यवस्था में मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों का सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्व संभव है? 12वीं शताब्दी तक सांस्कृतिक भारत का हिस्सा और तब हिंदू-बौद्ध परंपरा का प्रमुख केंद्र भी रहे अफगानिस्तान में हिंदू-सिख जनसंख्या 1970 के दशक में लगभग सात लाख थी- वह कालांतर में मजहबी गृहयुद्ध, तालिबानी जिहाद और स्थानीय आतंकवादी हमलों के पश्चात घटकर अब उंगलियों की संख्या बराबर रह गए हैं। यहां तालिबानियों की खालिस शरीयत प्रेरित व्यवस्था में श्रीगुरुग्रंथ साहिब की पवित्र प्रतियों की प्रतिष्ठा और सम्मान को सुरक्षित रखने हेतु उन्हें हाल ही में भारत ले आया गया है। ऐसी स्थिति हिंदू और सिखों की पाकिस्तान में भी है। लगभग 150 वर्ष पहले तक लाहौर सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी थी। 1947 तक इस नगर की कुल आबादी में हिंदुओं और सिखों की संख्या न केवल सर्वाधिक थी, साथ ही वे सबसे समृद्ध और संपन्न भी थे। आज यह सब नगण्य है।
विभाजन के समय क्या हुआ था? वर्ष 1947 में सरदार गुरबचन सिंह तालिब, जो कि जालंधर स्थित लायलपुर खालसा कॉलेज के तत्कालीन प्रधानाचार्य थे- उनके द्वारा संकलित और 1950 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति द्वारा प्रकाशित पुस्तक सामने आई थी। इसमें तत्कालीन पश्चिमी पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमाई प्रांत, सिंध और कश्मीर में मुस्लिमों द्वारा सिखों-हिंदुओं पर हुए मजहबी हमलों (हत्या, बलात्कार, जबरन मतांतरण सहित) का उल्लेख, तो प्रतिकार स्वरूप बलिदान, वीरता और प्रत्यक्षदर्शियों का आंखों-देखा विवरण है। बकौल लेखक, पुस्तक में सम्मलित जानकारी वास्तविक घटनाओं का बहुत छोटा अंश भर है। इसमें लिखा है कि पाकिस्तान में लाखों हिंदू और सिख पर ऐसा मजहबी कहर टूटा कि वे अपनी जान बचाकर लगभग 1,400 करोड़ रुपयों की अपनी संपत्ति (चल-अचल) छोड़कर खंडित भारत आ गए थे।
जो समूह “सिख-मुस्लिम भ्रातृत्व” का प्रचार कर रहा है, वह गत वर्षों में इस्लाम के नाम पर पाकिस्तानी पंजाब स्थित गुरु नानक देव जी की जन्मस्थली ननकाना साहिब गुरुद्वारे पर स्थानीय मुस्लिमों के हमले, सिख साम्राज्य की राजधानी रही लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा विखंडन, गुरुद्वारों के विध्वंस या उसे मस्जिद में परिवर्तित करने और दशकों से सिख आदि गैर-मुस्लिम युवतियों के हो रहे जबरन मतांतरण पर सुविधाजनक रूप से मौन रहा है।
जिस विषाक्त वैचारिक गर्भ से इस्लामी पाकिस्तान का जन्म हुआ, उसी से जनित ‘इको-सिस्टम’ कश्मीर को भी हिंदू-विहीन बना चुका है, जिसके कोपभाजन से सिख भी सुरक्षित नहीं। बीते दिनों श्रीनगर में एक मुस्लिम लड़की की शिक्षा का पूरा खर्चा उठाने वाली सिख अध्यापिका सुपिंदर कौर को आतंकियों ने उनका पहचान-पत्र देखकर केवल इसलिए मौत के घाट उतार दिया, क्योंकि वो भी ‘काफिर’ थी।
क्या यह सत्य नहीं कि इस्लामी शासकों द्वारा हिंदू-सिख उत्पीड़न का विरोध और इस्लाम अपनाने से मना करने पर सिख गुरु परंपरा के प्रतीकों- गुरु अर्जन देवजी, गुरु तेग बहादुरजी, गुरु गोबिंद सिंह के दोनों छोटे बच्चों, बंदा सिंह बहादुर, भाई मति दास, भाई सती दास और भाई दयाल दास आदि को प्रताड़ित करके निर्ममता के साथ उन मुगलों (जहांगीर-औरंगजेब सहित) के निर्देश पर मौत के घाट उतार दिया था, जिन्हें भारतीय उपमहाद्वीप में बसे मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा आज भी अपना प्रेरणास्रोत मानता है?
‘मुस्लिम-सिख एकता’ केवल प्रोपेगेंडा है। खंडित भारत को ‘हजार घाव देकर मारने’ हेतु पाकिस्तान, हिंदू-सिखों के परंपरागत भाईचारे को कमजोर करके ‘मुस्लिम-सिख एकता’ नारे को स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। स्वयं संविधान निर्माता बाबासाहेब अंबेडकर स्पष्ट कर चुके है कि इस्लाम में बंधुत्व केवल मुसलमानों तक सीमित है और शेष से शत्रुता-तिरस्कार का भाव होता है। भारत-हिंदू विरोधी वामपंथियों के प्रणेता कार्ल मार्क्स ने भी अपनी पुस्तक ‘द ईस्टर्न क्वेश्चन’ में लिखा था कि कुरान मानने वाले मुसलमान, सहजता से भूगोल और मानव-जाति विज्ञान को दो राष्ट्रों और दो देशों अर्थात्- ‘ईमान वालों’ और ‘काफिरों’ के रूप में बांट देते है। इस पृष्ठभूमि में सिख पंथ कैसे अपवाद हो सकता है?
बहुलतावादी भारत में मुसलमान अपनी आस्था के अनुरूप नमाज पढ़े, इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं। परंतु सार्वजनिक स्थानों पर नमाज अदा करने का दुराग्रह करना- वास्तव में, मुस्लिम समाज के एक वर्ग द्वारा शक्ति-प्रदर्शन का एक रूप है। साधारणत: विशेषकर महानगरों में कुछ औपचारिकता पूरी करने के पश्चात एक-दो अवसरों पर सार्वजनिक स्थानों पर जैसे शादी, शोक सभा आदि हेतु अनुमति मिलती है। जुम्मे की नमाज एक साप्ताहिक आयोजन है, जो कालांतर में दैनिक-चर्या का भाग बन जाता है। सार्वजनिक स्थानों पर नमाज- उसी उपक्रम में देखा जाता है, जिसका विरोध किया जा रहा है।
इस संदर्भ में रामजन्मभूमि मुक्ति के संघर्षकाल में तथाकथित सेकुलरवादियों द्वारा एक बहुत ही विकृत तर्क दिया जाता था, जिसके अनुसार- रामलला का मंदिर अयोध्या के एक विशेष स्थान पर क्यों बने? राम तो कण-कण, हर रामभक्त के हृदय में बसते है, तो मंदिर का औचित्य क्या है? यह तर्क गुरुग्राम के सार्वजनिक स्थानों में नमाज पढ़ने पर क्यों नहीं दिया जाता? अल्लाह सर्वव्यापी है और उनकी इबादत कोई भी अपने घर, दुकान या दिल से कर सकता है। इस पृष्ठभूमि में इस्लाम के अनुयायियों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर नमाज अदा करने की ज़िद क्यों?
गुरुद्वारों और मंदिरों में नमाज की वकालत करने वाले समाज में समरसता, सौहार्दपूर्ण और एकता को अधिक सुदृढ़ करने हेतु मस्जिदों-ईंदगाहों में श्रीगुरुग्रंथ साहिब की अमृतवाणी, सुंदरकांड पाठ या श्रीमद्भगवतगीता जागरण इत्यादि के बारे में भी गंभीरता से सोचें। यदि भविष्य में ऐसा होता है, तो शायद ही किसी को मंदिर-गुरुद्वारे आदि में नमाज पर आपत्ति होगी।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)