गुरु पूर्णिमा, गुरु, भगवा ध्वज और संघ

गुरु पूर्णिमा, गुरु, भगवा ध्वज और संघ

वीरेन्द्र पाण्डेय

गुरु पूर्णिमा, गुरु, भगवा ध्वज और संघ

आषाढ़ मास में आने वाली पहली पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। व्यास महर्षि आदिगुरु हैं। उन्होंने मानव जीवन को गुणों पर निर्धारित करते हुए उन महान आदर्शों को व्यवस्थित रूप में समाज के सामने रखा। इस दृष्टि से गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा गया है। संस्कृत में गुरु शब्द का अर्थ है अंधकार को मिटाने वाला। गुरु साधक के अज्ञान को मिटाता है, ताकि वह अपने भीतर ही सृष्टि के स्रोत का अनुभव कर सके।

पारंपरिक रूप से गुरु पूर्णिमा का दिन वह समय है जब साधक गुरु को अपना आभार अर्पित करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। “अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन् चराचरं, तत्पदं दर्शितंयेनं तस्मै श्री गुरुवे नम:” यह सृष्टि अखंड मंडलाकार है। बिन्दु से लेकर सारी सृष्टि को चलाने वाली अनंत शक्ति जो परमेश्वर तत्व है, उनका जीव के साथ क्या सहज सम्बन्ध है, इन बातों को जिनके चरणों में बैठकर समझने की अनुभूति प्राप्त होती है, वही गुरु है।

जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य जी श्तश्लोकी के पहले श्लोक में कहते हैं- तीनों लोकों में सद्गुरु की उपमा किसी से नहीं दी जा सकती। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार भगवान बुद्ध ने सारनाथ में आषाढ़ पूर्णिमा के दिन अपने प्रथम पांच शिष्यों को उपदेश दिया था। इसीलिए बौद्ध धर्म के अनुयायी भी पूरी श्रद्धा से गुरु पूर्णिमा उत्सव मनाते हैं।

गुरु-शिष्य परम्परा भारतीय संस्कृति की ऐसी अनुपम धरोहर है जिसकी मिसाल दुनियाभर में दी जाती है। कठोपनिषद् में पंचाग्नि विद्या के रूप में व्याख्यायित यम-नचिकेता का पारस्परिक संवाद गुरु-शिष्य परम्परा का विलक्षण उदाहरण है। पिता के अन्याय का विरोध करने पर एक पांच साल के बालक नचिकेता को अहंकारी पिता द्वारा घर से निकाल दिया जाता है। पर वह झुकता नहीं और अपने प्रश्नों की जिज्ञासा शांत करने के लिए मृत्यु के देवता यमराज के दरवाजे पर जा खड़ा होता है। तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहता है। अंतत: यमराज उसकी जिज्ञासा, पात्रता और दृढ़ता को परख कर गुरु रूप में उसे जीवन तत्व का मूल ज्ञान देते हैं। यम-नचिकेता का यह वार्तालाप भारतीय ज्ञान सम्पदा की अमूल्य निधि है।

व्यक्ति पूजा नहीं, तत्व पूजा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भगवा ध्वज को अपना गुरु माना है। भगवाध्वज त्याग व समर्पण का प्रतीक है। स्वयं जलते हुए सारे विश्व को प्रकाश देने वाले सूर्य के रंग का प्रतीक है। संपूर्ण जीवों के शाश्वत सुख के लिए समर्पण करने वाले साधु, संत भगवा वस्त्र ही पहनते हैं। भगवा त्याग का प्रतीक है। अपने राष्ट्र जीवन तथा मानव जीवन के अनेक इतिहासों का साक्षी है यह ध्वज। यह शाश्वत है, अनंत है, चिरंतन है।

संघ तत्व पूजा करता है, व्यक्ति पूजा नहीं क्योंकि व्यक्ति शाश्वत नहीं है। अखिल भारतीय सह सरकार्यवाह श्रीमान व. भागैय्या जी कहते हैं हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवनधारा में यज्ञ का बड़ा महत्व रहा है। यज्ञ शब्द के अनेक अर्थ हैं। व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टि जीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को यज्ञ कहा गया है। सद्गुण रूप अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट, अहितकर बातों को होम करना यज्ञ है। श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना भी यज्ञ है। यज्ञ का अधिष्ठाता देव यज्ञ है। अग्नि की प्रतीक है ज्वाला, और ज्वालाओं का प्रतिरूप है- अपना परम पवित्र भगवाध्वज।

शिवोभूत्वा शिवंयजेत्- शिव की पूजा करना यानि स्वयं शिव बनना, अर्थात शिव के गुणों को आत्मसात् करना, जीवन में उतारना है। भगवाध्वज की पूजा यानि त्याग, समर्पण जैसे गुणों को अपने जीवन में उतारते हुए समाज की सेवा करना है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने स्वयं अपने जीवन को समाज की सेवा में अर्पित किया था, ध्येय के अनुरूप अपने जीवन को ढाला था। समर्पण भाव से ही सारे समाज में एकात्म भाव बढ़ता है। इस भावना से ही लाखों स्वयंसेवक अपने समाज के विकास के लिए हजारों सेवा प्रकल्प चलाते हैं।

(लेखक सहायक आचार्य एवं शोधकर्ता हैं )

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *