चातुर्य, धैर्य और शौर्य के उत्कृष्ट उपमान : नाना फड़नवीस
पुस्तक समीक्षा
– डॉ. अरुण सिंह
पुस्तक: चतुर-चतुर नाना
लेखक: मनहर चौहान
मूल्य : 110 रुपये
प्रकाशक: पेंगुइन बुक्स
अंग्रेज़ी संस्कृति के प्रभाव में लिप्त आज की किशोर पीढ़ी को भारत के गौरवमयी इतिहास से परिचित करवाता है मनहर चौहान का ‘किशोर’ उपन्यास “चतुर-चतुर नाना”। नाना फड़नवीस हिन्दू सम्राज्य की मान-मर्यादा तब संभालते हैं जब मुस्लिम शासक और अंग्रेज़ व्यापारी गिद्धों की तरह पूना पर दृष्टि गड़ाये हुए थे। और उसे नोच-नोच कर खा जाना चाहते थे। पानीपत के तृतीय युद्ध (6 जनवरी, 1761) के उपरान्त बिखरे हुए मराठा हिन्दू साम्राज्य को अंग्रेज़ हड़पना चाहते हैं, परन्तु नाना फड़नवीस हर बार उनके मार्ग में रोड़ा बन जाते हैं।
सदाशिव राव भाऊ के अकुशल और हठी सेनापतित्व के कारण अहमद शाह अब्दाली पानीपत में जीत जाता है। ‘मराठा मंडल’ की एकता व अखंडता चरमरा उठती है। हिन्दू गौरव के लिए यह चुनौती सामान्य नहीं है। फिर ‘घर का भेदी लंका ढहाये’ वाली कहावत चरितार्थ करने वाला राघोबा (रघुनाथ राव) सत्ता के लालच में वह सब करता है, जो उसे नहीं करना चाहिए। कहानी के माध्यम से यह भी सिद्ध होता है कि मराठों की मुस्लिम शासकों के प्रति सहृदयता का परिणाम उन्हें छल-कपट के रूप में ही मिलता है। मुस्लिम शासक अंग्रेज़ों से भिन्न नहीं हैं। वे भी अखण्ड भारत के शत्रु हैं। हैदराबाद का निज़ाम इसका उपयुक्त उदाहरण है।
बालाजी बाजीराव पेशवा के देहावसान के उपरान्त पेशवाई पर संकट के बादल छाए रहते हैं। उत्तराधिकारी पेशवा माधवराव की असमय मृत्यु तथा राघोबा व अंग्रेज़ों द्वारा किशोर पेशवा नारायणराव की हत्या के पश्चात विकट स्थितियों को संभालना केवल नाना फड़नवीस के बूते की बात है। मराठों के विरुद्ध लड़ाई में निज़ाम अपने मुँह की खाता है और अंग्रेज़ बार-बार बुरी तरह परास्त होते हैं। यह सब नाना की प्रखर प्रज्ञा और सूझबूझ का ही परिणाम है।
‘मराठा मंडल’ का सहयोग न मिलना एक बड़ी चुनौती है। ऊपर से इनकी ओर से विरोध और षड्यंत्र नाना की योजना में विघ्न डालते हैं। पर नाना का सर्वांगीण उद्देश्य हिन्दू साम्राज्य के गौरव को अक्षुण्ण रखना है। उन्होंने विदेशी आक्रांताओं के दुस्साहस को पस्त कर रखा है। मॉस्टिन और स्टुअर्ट जैसे धूर्त अंग्रेज़ भी नाना के समक्ष असफल हो जाते हैं। नाना फड़नवीस जैसा राजपुरुष होना किसी भी राज्य के लिए गौरव की बात है।
उपन्यासकार द्वारा अरबी-फ़ारसी शब्दों का अधिक प्रयोग उचित नहीं लगता। मराठा शासकों/सेनानियों के संवादों का इन विदेशी शब्दों से परिपूर्ण होना छत्रपति शिवाजी की ‘स्वराज’ की परिकल्पना में नहीं आता। शिवाजी ने इस्लामिक भाषाओं के स्थान पर संस्कृत को स्थापित किया था।
दादी माँ का बच्चों को नाना फड़नवीस की कहानी सुनाने के पारंपरिक स्वरूप में उपन्यास की कहानी कहना लेखक का उत्तम प्रयास है। परंतु श्रोता किशोरों में तुषार, सलमा और हेनरी के एक साथ चयन से लेखक का तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी दृष्टिकोण उभर कर सामने आता है।