चाफेकर बंधु : स्वराज के लिए आत्मोत्सर्ग की वीर गाथा

रमेश शर्मा
चाफेकर बंधु : स्वराज के लिए आत्मोत्सर्ग की वीर गाथा
दामोदर हरि चाफेकर एक ऐसे क्राँतिकारी थे, जिनका पूरा परिवार राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिये बलिदान हुआ। तीन भाइयों को तो फाँसी हुई। उनका संघर्ष सत्ता के लिये नहीं था। 25 जून 1869 को पुणे के ग्राम चिंचवड़ में उनका जन्म हुआ था। पीढ़ियों से उनका परिवार भारतीय सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठपना के लिए समर्पित था। पिता हरिपंत चाफेकर एक सुप्रसिद्ध कीर्तनकार थे। दामोदर उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। उनके दो छोटे भाई बालकृष्ण चाफेकर एवं वसुदेव चाफेकर थे। बचपन से ही तीनों भाइयों ने पिता के साथ संकीर्तन में जाना आरंभ किया और प्रसिद्धि भी मिली। इस परिवार के पूर्वजों ने शिवाजी महाराज के हिन्दू पदपादशाही की स्थापना से लेकर बाजीराव पेशवा तक अनेक युद्धों में सहभागिता की थी, बलिदान भी हुए। पूर्वजों की वीरता की कहानियाँ तीनों भाई घर में बहुत चाव से सुनते थे। जिन्हें सुनकर तीनों के मन में परतंत्र शासन की ज्यादतियों के प्रति गुस्सा और स्वाभिमान संपन्न स्वशासन की ललक जाग्रत हो गई। ऐसी ही कहानियाँ सुनकर दामोदर के मन में भी सैनिक बनने की चाह जगी। समय के साथ वे बड़े हुए और महर्षि पटवर्धन तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के संपर्क में आये। उनके संपर्क से संकल्प शक्ति और कार्य योजना जाग्रत हुई।
तिलक की प्रेरणा से दामोदर ने युवकों को संस्कारित और संगठित करने का बीड़ा उठाया एवं व्यायाम मंडल के नाम से एक संस्था तैयार की। दामोदर के मन में ब्रिटिश सत्ता के प्रति कितना गुस्सा था, इसका अनुमान इस एक घटना से ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने मुम्बई में रानी विक्टोरिया के पुतले पर तारकोल पोतकर गले में जूतों की माला पहना दी थी। समाज में स्वत्व और स्वाभिमान का भाव जाग्रत करने के लिये तीनों भाइयों ने बालवय में 1894 में पूना में प्रति वर्ष शिवाजी एवं गणपति समारोह का आयोजन प्रारंभ कर दिया था। इन समारोहों में वे संस्कृत के श्लोकों में शिवाजी महाराज की गाथा सुनाया करते थे। इनमें शिवाजी महाराज की कीर्ति का तो गान होता ही था, इन श्लोकों के माध्यम से वे समाज में ओज जाग्रत करने का प्रयास भी कर रहे थे। वह कहते थे, स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये शिवाजी और पेशवा बाजीराव की भाँति काम करो। हर व्यक्ति तलवार और ढाल उठा ले, भले इसमें प्राणों का उत्सर्ग हो जाये। एक श्लोक में तो यहाँ तक आह्वान था कि धरती पर उन दुश्मनों का ख़ून बहा दो, जो हमारे धर्म का विनाश कर रहे हैं। ऐसे अनेक आह्वान थे। गणपतिजी के श्लोक में धर्म और गाय की रक्षा करने का आह्वान था। अधिकांश श्लोक दामोदर और उनके पिता द्वारा रचित थे। एक श्लोक का अर्थ था कि ये अंग्रेज़ कसाइयों की भाँति हमारी गायों और उनके बछड़ों को मार रहे हैं। गौमाता संकट से मुक्ति की पुकार लगा रही है। वीर बनो, वीरता दिखाओ धरती पर बोझ न बनो आदि। तभी 1897 में प्लेग की बीमारी फैली। पुणे भी उन नगरों में से था, जहाँ इस बीमारी ने कोहराम मचा दिया। फिर भी अंग्रेजों की वसूली न रुकी। पीड़ित और बेबस लोगों पर अंग्रेजों के अत्याचार कम न हुए। उन दिनों पुणे में वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट नामक ये दो अधिकारी तैनात थे। ये दोनों लोगों को जबरन पुणे से निकाल कर बाहर करने लगे ताकि वहाँ रहने वाले अंग्रेज परिवारों में संक्रमण का खतरा न रहे। इनके आदेश पर पुलिस जूते पहनकर ही हिन्दुओं के घरों में घुसती न पूजा घर की मर्यादा बची न रसोई घर की। प्लेग पीड़ितों की सहायता की बजाय उन्हें और प्रताड़ित किया जाने लगा। ये तीनों चाफेकर बंधु परिस्थिति से आहत हुए और मन ही मन इसका उपचार खोजने लगे। समाधान समझने के लिये एक दिन तीनों भाई तिलक के पास पहुँचे। तिलक ने तीनों से कहा- “शिवाजी महाराज ने अत्याचार सहा नहीं था, पूरी शक्ति और युक्ति से विरोध किया था। किन्तु इस समय अंग्रेजों के अत्याचार के विरोध में कोई कुछ न कर रहा। बस इसी दिन से तीनों क्रांति के मार्ग पर चल पड़े। तीनों अपने शब्दों और स्वर से क्राँति की अलख तो पहले ही जगा रहे थे। अब उन्होंने सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग भी अपना लिया। संकल्प लिया कि समाज को अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्ति दिलाकर रहेंगे।
वह 22 जून 1897 का दिन था। पुणे के गवर्नमेन्ट हाउस में महारानी विक्टोरिया की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर राज्यारोहण की हीरक जयन्ती मनायी जा रही थी। इसमें वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट भी शामिल हुए। दामोदर हरि चाफेकर और उनके भाई बालकृष्ण हरि चाफेकर भी एक दोस्त विनायक रानडे के साथ वहां पहुंच गए और इन दोनों अंग्रेज अधिकारियों के निकलने की प्रतीक्षा करने लगे। रात लगभग सवा बारह बजे रैण्ड और आयर्स्ट निकले। दोनों अपनी-अपनी बग्घी पर सवार होकर रवाना हुए। योजना के अनुसार तुरन्त दामोदर हरि चाफेकर रैण्ड की बग्घी के पीछे चढ़ गये और उसे गोली मार दी। उधर उनके छोटे भाई बालकृष्ण हरि चाफेकर ने आर्यस्ट पर गोली चला दी। आयर्स्ट तो तुरन्त मर गया, किन्तु रैण्ड घायल हुआ, जिसने तीन दिन बाद अस्पताल में दम तोड़ा। इससे जहाँ पुणे की उत्पीड़ित जनता चाफेकर-बन्धुओं की जय-जयकार कर उठी। वहीं पूरी अंग्रेज सरकार बौखला गई। दोनों चाफेकर बंधुओं को पकड़ने के लिये एक एक घर की तलाशी हुई। इनसे संबंधित परिवारों पर अत्याचार हुए, पर दोनों बंदी न बनाये जा सके। इन्हें पकड़ने के लिये गुप्तचर अधीक्षक ब्रुइन ने इनकी सूचना देने वाले को बीस हजार रुपए का पुरस्कार देने की घोषणा कर दी। चाफेकर बन्धुओं के युवा संगठन में गणेश शंकर द्रविड़ और रामचन्द्र द्रविड़ नामक दो भाई भी जुड़े थे। इन दोनों ने पुरस्कार के लोभ में आकर अधीक्षक ब्रुइन को चाफेकर बन्धुओं का पता दे दिया। इस सूचना के बाद दामोदर हरि चाफेकर तो पकड़ लिए गए, पर बालकृष्ण हरि चाफेकर निकलने में सफल हो गये। सत्र न्यायाधीश ने दामोदर हरि चाफेकर को फांसी की सजा दी। उन्होंने मन्द मुस्कान के साथ यह सजा सुनी। कारागृह में उनसे मिलने जाने वालों में तिलक भी थे। तिलक ने उन्हें गीता प्रदान की। उन्हें 18 अप्रैल 1898 को प्रात: फाँसी दी गई। वे गीता पढ़ते हुए फांसी घर पहुंचे और गीता हाथ में लेकर ही फांसी के तख्ते पर झूल गए। दामोदर चाफेकर को बलिदान हुए आज सवा सौ वर्ष हो गये लेकिन वे पुणे के लोक जीवन में आज भी जीवंत हैं।