चित्तौड़ का दूसरा जौहर

चित्तौड़ का दूसरा जौहर

8 मार्च/इतिहास-स्मृति

चित्तौड़ का दूसरा जौहर

मेवाड़ के कीर्तिपुरुष महाराणा कुम्भा के वंश में पृथ्वीराज, संग्राम सिंह, भोजराज और रतनसिंह जैसे वीर योद्धा हुए। आम्बेर के युद्ध में राणा रतनसिंह ने वीरगति पाई। इसके बाद उनका छोटा भाई विक्रमादित्य राजा बना।

उस समय मेवाड़ पर गुजरात के पठान राजा बहादुरशाह तथा दिल्ली के शासक हुमायूं की दृष्टि थी। यद्यपि हुमायूं उस समय शेरशाह सूरी से भी उलझा हुआ था। विक्रमादित्य के राजा बनते ही इन दोनों के मुंह में पानी आ गया, चूंकि विक्रमादित्य एक विलासी राजा था। वह दिन भर राग-रंग में ही डूबा रहता था। इस कारण कई बड़े सरदार भी उससे नाराज रहने लगे।

1534 में बहादुरशाह ने मेवाड़ पर हमला कर दिया। विलासी विक्रमादित्य हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। ऐसे संकट के समय राजमाता कर्णावती ने धैर्य से काम लेते हुए सभी बड़े सरदारों को बुलाया। उन्होंने सिसोदिया कुल के सम्मान की बात कह कर सबको मेवाड़ की रक्षा के लिए तैयार कर लिया।

सबको युद्ध के लिए तत्पर देखकर विक्रमादित्य को भी मैदान में उतरना पड़ा। मेवाड़ी वीरों का शौर्य, उत्साह और बलिदान भावना तो अनुपम थी; पर दूसरी ओर बहादुरशाह के पास पुर्तगाली तोपखाना था। युद्ध प्रारम्भ होते ही तोपों की मार से चित्तौड़ दुर्ग की दीवारें गिरने लगीं तथा बड़ी संख्या में हिन्दू वीर हताहत होने लगे। यह देखकर विक्रमादित्य मैदान से भाग खड़ा हुआ।

इस युद्ध के बारे में एक भ्रम यह फैलाया गया है कि रानी कर्णावती ने हुमायूं को राखी भेजकर सहायता मांगी थी तथा हुमायूं यह संदेश पाकर मेवाड़ की ओर चल दिया; पर उसके पहुंचने से पहले ही युद्ध समाप्त हो गया। वस्तुतः हुमायूं स्वयं मेवाड़ पर कब्जा करने आ रहा था; पर जब उसने देखा कि एक मुसलमान शासक बहादुरशाह मेवाड़ से लड़ रहा है, तो वह सारंगपुर में रुक गया।

उधर विक्रमादित्य के भागने के बाद चित्तौड़ में जौहर की तैयारी होने लगी; पर उसकी पत्नी जवाहरबाई सच्ची क्षत्राणी थी। अपने सम्मान के साथ उन्हें देश के सम्मान की भी चिन्ता थी। वह स्वयं युद्धकला में पारंगत थीं तथा उन्होंने शस्त्रों में निपुण वीरांगनाओं की एक सेना भी तैयार कर रखी थी।

जब राजमाता कर्णावती ने जौहर की बात कही, तो जवाहरबाई ने दुर्ग में एकत्रित वीरांगनाओं को ललकारते हुए कहा कि जौहर से नारीधर्म का पालन तो होगा; पर देश की रक्षा नहीं होगी। इसलिए यदि मरना ही है, तो शत्रुओं को मार कर मरना उचित है। सबने ‘हर-हर महादेव’ का उद्घोष कर इसे स्वीकृति दे दी।

इससे पुरुषों में भी जोश आ गया। सब वीरों और वीरांगनाओं ने केसरिया बाना पहना और किले के फाटक खोलकर जवाहरबाई के नेतृत्व में शत्रुओं पर टूट पड़े। महारानी तोपखाने को अपने कब्जे में करना चाहती थी; पर उनका यह प्रयास सफल नहीं हो सका। युद्धभूमि में सभी हिन्दू सेनानी खेत रहे; पर मरने से पहले उन्होंने बहादुरशाह की अधिकांश सेना को भी धरती सुंघा दी।

यह 8 मार्च, 1535 का दिन था। हिन्दू सेना के किले से बाहर निकलते ही महारानी कर्णावती के नेतृत्व में 13,000 नारियों ने जौहर कर लिया। यह चित्तौड़ का दूसरा जौहर था। बहादुरशाह का चित्तौड़ पर अधिकार हो गया; पर वापसी के समय मंदसौर में हुमायूं ने उसे घेर लिया। बहादुरशाह किसी तरह जान बचाकर मांडू भाग गया। इन दोनों विदेशी हमलावरों के संघर्ष का लाभ उठाकर हिन्दू वीरों ने चित्तौड़ को फिर मुक्त करा लिया।

(संदर्भ : पाथेय कण पत्रिका, जनवरी प्रथम 2010)

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *