जनजातीय समाज विशुद्ध तौर पर सनातन हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है
जनजाति समाज हिन्दू है, जयपुर में लगा एक होर्डिंग
भारतीय शाश्वत सनातन धर्म एवं संस्कृति के किसी संस्थापक का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता। यह सनातन संस्कृति जहाँ व्यक्ति के मौलिक स्वतंत्र चिन्तन -मत के प्रति उदार है तो वहीं बहुलतावादी सांस्कृतिक जीवटता के इतिहास को संजोकर अनंत सागर की तरह प्रवाहित हो रही है। सभी में ईश्वर का दर्शन करने वाली यह संस्कृति है। अपने मौलिक सिद्धांतों के आधार पर हर काल में ऐसे लोग खड़े होते गए, जिन्होंने भेदभाव वाली किसी भी कुरीति का न केवल विरोध किया, बल्कि अपने प्रयत्नों से सभी को सम्मान देने वाली नई व्यवस्था निर्मित करने का प्रयास भी किया। अनेकानेक षड्यंत्रों, आक्रमणों, कुठाराघातों के बावजूद भी यह अपनी महत्ता को बरकरार रखे हुए है। सनातन -हिन्दू धर्म का जनजातीय समाज इस महान संस्कृति व परंपरा का अभिन्न अंग रहा है। यह अलग बात है कि सभ्यताओं के विकास एवं लगातार आक्रमणों के कारण जनजातीय समाज के स्थान परिवर्तन एवं परम्पराओं, संस्कृति, विवाह, रीतिरिवाज, पूजा पद्धति, बोली एवं कार्यशैली में भले ही आंशिक अन्तर दिखता हो, किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सनातन हिन्दू समाज की जनजातीय एवं गैर जनजातीय इकाइयों का मूल तत्व एवं केन्द्र हिन्दुत्व की धुरी ही है।
आज यदि हम वैदिक साहित्य की ओर दृष्टिपात करें तो ऋग्वैदिक कालीन समाज जनजातीय समाज के स्वरूप के साथ ही आगे बढ़ रहा था तथा आज भी यदि हम किसी भी जनजातीय समाज में देखें तो यह साफ-साफ परिलक्षित होता है कि उनकी पूजा पद्धतियों में भगवान शिव का त्रिशूल, डमरू, स्वास्तिक, देव एवं देवी की उपासना, श्रीफल नारियल, तुलसी, तांत्रिक क्रियाओं में नींबू-मिर्च, गोबर से लिपाई-पुताई इत्यादि का प्रयोग होता है। क्या यह हिन्दू समाज से अलग अस्तित्व को दर्शाते हैं?
जनजातीय समाज जिन देवताओं को महादेव, ठाकुरदेव, बूढ़ादेव, पिलचूहड़ाम के स्वरूप में स्मरण एवं पूजन करता है , उन्हीं देवताओं को गैर जनजातीय सनातन हिन्दू धर्मावलम्बी समाज शिव, महेश, नीलकंठ आदि नामों से जानते एवं पूजते हैं। उत्तर -पूर्व भारत में सीमांत जनजातियों की भांति “मिशमिश” जनजाति सूर्य एवं चन्द्रमा की पूजा “दान्यी-पोलो” के स्वरूप में करती है। इस पर उनका मानना है कि सूर्य, चन्द्र सत्य के पालनकर्ता भगवान हैं। इसी प्रकार इसी परम्परा को अरुणाचल प्रदेश की लगभग सभी पच्चीसों जनजातियां मानती हैं। सनातन हिन्दू धर्म में प्रकृति को माँ के स्वरूप में पूजने एवं प्रकृति के तत्वों – भू, जल, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्र, नदी-तालाब, समुद्र, वृक्षों यथा – पीपल, नीम, तुलसी, आम, गुग्गुल, बरगद इत्यादि की पूजा करने की परम्पराएं अनवरत चली आ रही हैं। क्या यह सब हमारी जनजातीय संस्कृति के अभिन्न अंग एवं मूलस्वरूप को नहीं दर्शाती हैं?
वर्तमान में हमारे जनजातीय समाज में कुल देवी-देवताओं के पूजन की पद्धति एवं पूजन में हवन किया जाना, हिन्दुत्व की पूजन प्रक्रिया का हिस्सा एवं सनातन की अक्षुण्ण परम्पराओं का द्योतक है। चाहे जनजातीय समाज द्वारा नागों की पूजा करना एवं उनके भित्तिचित्र, शैलचित्र को उकेरना हो, वह आज भी गैर जनजातीय समाज में नागपंचमी के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है तथा सनातन धर्मावलम्बी नाग देवता की पूजा कर अपने घरों के मुख्य द्वार में नाग देवता का प्रतीकात्मक चित्रण कर उनसे लोकमंगल की कामना करते हैं। यह हमारी विशुद्ध सांस्कृतिक विरासत ही तो है, जिसे सनातन हिन्दू समाज का प्रत्येक समाज बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाता है। यदि हम आधुनिक इतिहास के बोध से अलग होकर अपने सनातन कालक्रम की ओर दृष्टिपात करें तो हम पाएंगे कि सनातन हिन्दू संस्कृति अपनी सहचर्यता, बन्धुता एवं समन्वय के साथ विश्व की अनूठी संस्कृति की मिसाल के तौर पर स्थापित है। हमारी सनातन परंपरा में ईश्वरीय अवतारों, संत-महात्माओं की जाति देखने की परंपरा कभी नहीं रही है।
त्रेतायुग में भगवान श्रीराम के वनवास काल में चित्रकूट से दण्डकवन तथा लंका युद्ध से विजय तक के समय में उनका सहयोगी वनांचलों में निवास करने वाला जनजातीय समाज ही रहा है। इस कड़ी में श्रृंग्वेरपुर के राजा निषाद राज गुह ने भगवान के वनवास की जानकारी लगते ही अपना राज्य अपने आराध्य को सौंपने की बात कही, किन्तु भगवान राम ने उन्हें मित्र की पदवी देकर अपने समतुल्य बतलाया तथा मैत्रीबोध का श्रेष्ठतम् मानक स्थापित किया। चाहे गंगा पार उतारने के समय का केवट व भगवान राम का मधुर, स्नेहिल संवाद हो या भगवान राम की भक्ति में लीन शबरी माता के जूठे बेर फल का सेवन करना एवं उन्हें माँ के तौर में प्रतिष्ठित करना हो, यह सब हमारी सनातन हिन्दू संस्कृति की ही विशेषता है। माता शबरी को आज भी समूचा हिन्दू समाज मां के रुप में पूजता है। इससे अनूठा – अनुपम उदाहरण विश्व में और कहाँ मिलेगा! यही तो हमारी सनातन संस्कृति एवं उसकी सदा प्रवाहित होने वाली स्नेह, सामंजस्य, श्रेष्ठता की अविरल धारा है।
सनातन संस्कृति के महानायकों में निषादराज गुह, माता शबरी, बिरसा मुंडा, टंट्या भील, जात्रा भगत, कालीबाई, गोविन्दगुरू, ठक्कर बापा, गुलाब महाराज, राणा पूंजा, भीमा नायक, भाऊसिंह राजनेगी, राजा विश्वासु भील, तुंडा भील, रानी दुर्गावती, सरदार विष्णु गोंड जैसे अनेकानेक वीर हुए हैं, जिन्होंने सनातन हिन्दुत्व की रक्षा एवं अपनी संस्कृति व राष्ट्र के लिए जीवन समर्पित कर दिया। उस महान परम्परा के संवाहकों के वंशजों को हिन्दू समाज से अलग बतलाना एवं लगातार विभिन्न तरीकों से उनकी सांस्कृतिक विरासत से काटने के षड्यंत्र क्या हमारे जनजातीय समाज के गौरवशाली अतीत एवं उनके पुरखों द्वारा स्थापित परिपाटी को नष्ट नहीं कर रहे हैं? यदि जनजातीय समाज, सनातन हिन्दू धर्म से अलग होता तो क्या जनजातीय समाज के वे वीर महापुरुष जिनको आज समूचा हिन्दू समाज अपना मानता है, क्या वे स्वयं की आहुति देकर धर्मान्तरण के विरोध एवं संस्कृति की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करते?
विश्व प्रसिद्ध उड़ीसा का जगन्नाथपुरी मंदिर का इतिहास इस बात का साक्षी है कि भगवान जगन्नाथ की मूर्ति जनजातीय समाज के महान राजा विश्वासु भील को ही प्राप्त हुई थी, जहां नीलगिरि की पहाड़ियों में भगवान जगन्नाथ की स्थापना की थी। इसी तरह भुवनेश्वर के भगवान लिंगराज को बाड जनजाति के पुजारियों द्वारा स्नान करवाया जाता है। कुल्के एवं रॉथरमुंड नामक विद्वानों ने अपने विभिन्न शोधों एवं अध्ययनों से पाया कि – “कुरुबा, लंबाडी, येरूकुल, येनाडी एवं चेंचू जनजातियों के तिरुपति के भगवान वेंकटेश्वर से गहरे सम्बन्ध हैं। इसी तरह दक्षिण मेघालय में मासिनराम के निकट मावजिम्बुइन गुफाएं हैं, जहाँ गुफा की छत से टपकते हुए जल मिश्रित चूने के जमाव से शिवलिंग बना हुआ है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार यदि हम मानें तों यह मान्यता लगभग 13वीं शताब्दी से चली आ रही है। हाटकेश्वर धाम में जयन्तिया जनजाति समाज के लोग प्रति वर्ष हिन्दू त्यौहार “शिवरात्रि महोत्सव”बड़े ही हर्षोल्लास एवं उत्साहपूर्वक मनाते हैं।
वहीं वैष्णो देवी तथा केरल के भगवान अय्यप्पम से जनजातीय समाज के आत्मिक एवं आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं। जनजातीय समाज द्वारा भगवान नरसिंम्ह की स्तंभीय शांकवीय प्रतिमाओं को पूजा जाता है तथा इसी प्रकार विन्ध्य की विभिन्न जनजातियों द्वारा हिन्दू परम्पराओं, पूजा पद्धतियों का लगभग उसी तरह पालन एवं निर्वहन किया जाता है, जिस प्रकार शेष अन्य हिन्दू समाज करता है। छत्तीसगढ़ का रामनामी समाज तो भगवान राम के लिए समर्पित होने के लिए ही जाना जाता है, जिसका विस्तार छ.ग., म.प्र. तथा झारखंड तक है। रामनामी समाज पूर्णरूप से राममय है, रामनामी समाज के बन्धु अपने सम्पूर्ण शरीर में राम नाम का गोदना गुदवा लेते हैं। मोरपंख धारण करना, राम संकीर्तन करना तथा राम के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाला यह समाज सनातन हिन्दू धर्म का वटवृक्ष है।
आक्रमणकारियों के साथ लम्बे समय तक चले संघर्ष में भारतीय समाज ने अनेकों विजय-पराजय, ध्वंस, अत्याचार, अपमान -तिरस्कार, मतान्तरण, लूटपाट को झेला है। परन्तु अनेकों षड्यंत्रों के बावजूद भी जनजातीय समाज सनातन हिन्दू समाज का वह अविभाज्य एवं मूल अंग है, जिसके बिना सम्पूर्ण हिन्दू समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। भारत के पूर्व से लेकर पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण, चारों दिशाओं में निवास करने वाला जनजातीय समाज सनातन हिन्दू धर्म की रक्षा एवं पालन करने वाला है। बल्कि यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जिस कठोरता एवं नियमबद्धता के साथ हमारा जनजातीय समाज सनातन हिन्दू धर्म का अपनी परंपराओं के अनुसार पालन एवं कार्यान्वयन करता आया है, उस अनुरूप अन्य गैर जनजातीय हिन्दू समाज थोड़ा कमतर ही सिद्ध होता दिखता है। जनजातीय समाज विशुद्ध तौर पर सनातन हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है जो सनातनी मूल्यों एवं धर्मनिष्ठा के लिए जाना जाता है।