भारत जीडीपी पर निर्भर नहीं है, जीडीपी भारत पर निर्भर है

भारत जीडीपी पर निर्भर नहीं है, जीडीपी भारत पर निर्भर है

धनंजय सिंह

भारत जीडीपी पर निर्भर नहीं है, जीडीपी भारत पर निर्भर है

भारत के बारे में जो जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि भारत जीडीपी पर निर्भर नहीं है, जीडीपी भारत पर निर्भर है। भारत की आधी आबादी रसोई और खेतों में काम करती है। किसान स्वयं खेतों में काम करता है जिसकी मज़दूरी कहीं जुड़ती नहीं है। जिस दिन यह जुड़ेगी हमारी जीडीपी बहुत ज़्यादा होगी। दूसरा हमारे बचत का स्वभाव भी जीडीपी के आँकड़े को कमजोर करता है। हम डिस्पोजेबल को भी एक से अधिक बार प्रयोग कर लेते हैं, घर में पजामा भी फट जाता है तो माँ बाज़ार से सामान लाने के लिये थैला बना देती है। थैला फट जाये तो उसका भी पोंछा बना लेती है और वो भी फट जाये तो उसको जला देते हैं और उसकी राख खेतों में खाद के रूप में काम ले लेते हैं। ऐसे देश में जीडीपी उस देश का क्या बिगाड़ लेगी। इसलिये मैं कहता हूँ जीडीपी भारत पर निर्भर है भारत जीडीपी पर नहीं।

पिछले दिनों देश में सरकार ने जीडीपी का आँकड़ा प्रस्तुत किया जो 23 प्रतिशत के लगभग था। देश के लिबरलों को लगा जैसे भगवान ने उन्हें मौका दे दिया, अब तो देश में क्रान्ति हो कर ही रहेगी, देश में पूंजीवाद समाप्त होगा और बस समाजवाद आने वाला ही है।

भारत जैसे विकासशील देश में वास्तव में तो 23 प्रतिशत पर हाहाकार मचना ही चाहिए। लाखों लोग भूख से मरने चाहिए, पर ऐसा हुआ नहीं और जनता भी सड़कों पर नहीं आई। जीडीपी एक तरह से किसी देश की विकास रिपोर्ट होती है। कोरोनाकाल में चार माह पूरा देश लगभग बन्द था। उद्योग धंधे बंद थे, ख़रीददारी सीमित थी। ऐसी स्थिति में जब निर्माण ही बन्द हो और वस्तुओं का उपयोग भी सीमित हो तो जीडीपी तो प्रभावित होनी है। फिर वे हमारी तुलना अमेरिका और ब्रिटेन से करते हैं और कहते हैं कि उनकी जीडीपी तो कम नहीं हुई। पर बात तो समझने वाले को समझाई जाये जो समझना ही नहीं चाहते उन्हें कौन बताये कि वे विकसित देश हैं, उनके पास संग्रह बहुत है। पाँच महीने तक देश ने करोड़ों परिवार को निःशुल्क भोजन, लाखों को निःशुल्क यात्रा और करोड़ों का इस महामारी से निःशुल्क उपचार कराया। जहॉं कमाई न हो केवल खर्च ही हो। वहॉं जीडीपी तो कम होनी ही है। शुरू में ही मैंने कहा था यह देश अपनी संस्कृति के कारण कभी जीडीपी पर निर्भर नहीं था और ना रहेगा। इसलिये इतने बड़े संकट में भी देश में भुखमरी नहीं आ पाई।

महामारी के दौरान करोड़ों लोगों की व्यवस्थाएं समाज ने कीं। ऐसे समाज में चाहे जितनी आपदाएँ आ जायें फ़र्क़ नहीं पड़ता। चाहे अटल जी की सरकार में परमाणु परीक्षण पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध हो, चाहे 2009 या 2012 की आर्थिक मन्दी हो, फ़र्क़ तो तब भी नहीं पड़ा जब सरकारों ने लाखों करोड़ों के घोटाले किये और जीडीपी को 2012 में न्यूनतम पर ले आये।

इसलिये लिबरलों को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। यह देश रुकता नहीं है, फिर चल पड़ेगा, फिर दौड़ेगा, बस दुख इसी बात का है कि हमारे कुछ युवाओं ने सदी की इस महामारी के समय में भी देश के साथ न खड़े होकर कुछ लोगों के बहकावे में अपने अधिकारों को बड़ा माना। उनकी माँग ग़लत नहीं थी बस समय ग़लत था। जब सिस्टम पटरी पर लौट रहा है तब सरकारी नौकरियों की भर्तियां भी शुरू हो जाएंगी।

पर क्या रोज़गार केवल सरकारी ही होता है। मैं कहता हूँ यदि इंसान में योग्यता है तो वह कहीं भी कमाकर खा लेगा। लेकिन यदि वह योग्य नहीं है तो कहीं भी सफल नहीं होगा। हमारे देश में सत्तर सालों से देश के युवाओं पर नया सोचने का तो जैसे प्रतिबंध सा था। वह सरकारी नौकरी को ही रोज़गार मानने लगा है। आज अपने परम्परागत कामों से हम दूरी बना रहे हैं। करना तो दूर की बात हमने सीखना भी छोड़ दिया है। पर क्या परम्परागत काम जैसे जूते बनाना, बाल काटना, कपड़े धोना, मिट्टी के बर्तन बनाना, लकड़ी का फर्नीचर बनाना, सब्ज़ी बेचना आदि रुक गए हैं? कोई तो कर ही रहा है।

जब हम छोटे थे तो पिता जी ने एक डिजिटल घड़ी लाकर दी। मैंने पूछा कहॉं से लाये? क्योंकि उस जमाने में सरकारी कम्पनी एचएमटी का घड़ी में नाम था। तब पिताजी ने कहा यह जापान की घड़ी है। उस जमाने में सुना जाता था कि जापान के हर घर में तकनीक का काम होता है।

सोशल मीडिया पर एक मित्र जापान से आये एक नागरिक का वार्तालाप सुना रहे थे। उन्होंने पूछा आज भी आप लोग अमेरिका के साथ खड़े होते हो? जापानी थोड़ी देर चुप रहा फिर बोला – हम नहीं अमेरिका हमारे साथ खड़ा रहता है। आज व्हाइट हाउस में टीवी जापान का है, कैमरे जापान के हैं। वहां चलने वाले वाहन जापान के हैं। अमेरिका में सबसे बड़े निर्यातक देश हैं हम।

मुझे समझ आ गया जापानियों ने अपने स्वाभिमान को इस तरह ज़िन्दा रखा और हीरोशिमा का बदला इस तरह लिया और यह बदला उन्होंने हर हाथ की योग्यता से लिया।

पर हम-आप सब्ज़ी या फल का एक ठेला नहीं लगायेंगे लेकिन आठ हज़ार की सैलरी में रिलायंस फ्रेश पर सब्ज़ी बेचेंगे। मोची का काम नहीं करेंगे पर मोची ब्राण्ड की जूते की दुकान पर सबके पैरों में जूते पहनायेंगे। पकौड़ों की दुकान नहीं खोलेंगे पर होटल प्रबंधन के नाम पर पिज़्ज़ा की दुकान पर पिज़्ज़ा भी बनायेंगे और जूठे बर्तन भी उठायेंगे। यह कैसी भावना और कैसा स्वाभिमान?

क्या हम आज भी अंग्रेजों की बनाई परम्परा में केवल बाबू ही बनेंगे? नहीं! अब हमें स्वामी बनना है, अब हमें निर्माण करना है, अपने आपको आत्मनिर्भर बनाना है, भारत को आत्मनिर्भर बनाना है। अधिक जीडीपी की चिन्ता नहीं करनी है। हमें बेरोज़गार की जगह रोज़गार देने वाला बनना है। यह सदी भारत की है। लम्बे समय बाद देश में कुछ सकारात्मक परिवर्तन दिख रहे हैं। हमें इन परिवर्तनों का साथ देना है। देश को परम वैभव पर ले जाना है और भारत को विश्व गुरू बनाना है।

 

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