त्रिची का दो हजार वर्ष पुराना कल्लनई बांध

त्रिची का दो हजार वर्ष पुराना कल्लनई बांध

प्रशांत पोळ

त्रिची का दो हजार वर्ष पुराना कल्लनई बांधत्रिची का दो हजार वर्ष पुराना कल्लनई बांध

त्रिची को भेंट देने का एक और आकर्षण था – कल्लनई बांध। मेरे ‘भारतीय ज्ञान का खजाना’ इस पुस्तक में मैंने कल्लनई बांध का उल्लेख किया है। यह विश्व का प्राचीनतम तथा अभी भी उपयोग में आ रहा (functional) ऐसा एकमात्र बांध है। लगभग दो हजार वर्ष पहले चोल राजा करिकलन ने इसे बनवाया था। मेरी दृष्टि से कल्लनई बांध की यह विशेषता थी।

किन्तु पिछले सप्ताह जब मैंने यह कल्लनई बांध देखा, तो मैं भौचक्का रह गया। मेरी कल्पना से यह परे था।

त्रिची से १५ किलोमीटर दूर स्थित, यह बांध तो है, किन्तु उससे भी ज्यादा यह ‘वॉटर रेग्युलेटर स्ट्रक्चर’ है या यूं कहें, पानी को बांटने की या विभाजित करने की रचना। ‘संगम’ हम सभी जानते हैं। जहां दो – तीन नदियां एक स्थान पर मिलती हैं, उसे संगम कहते हैं। अब जरा इस कल्पना का उलटा सोचिए अर्थात, एक विस्तीर्ण जलाशय से यदि तीन – चार नदियां निकलें, जिनका नियंत्रण आपके पास हो तो? बस, यही कल्लनई बांध है। कावेरी नदी पर प्राकृतिक पद्धति से बांध बनाकर विस्तीर्ण जलाशय बनाया गया है, और उसमें से चार प्रवाह निकाले गए हैं। चारों अलग – अलग दिशाओं में। साधारण रचना ऐसी होती है, कि बांध में रोके हुए पानी को, मूल नदी के प्रवाह के साथ दो नहरों से आगे भेजा जाता है। पर यहां तो, कावेरी के उस रुके हुए पानी को, चार बड़ी – बड़ी नदियों के रूप में आजू – बाजू के क्षेत्र में घुमाया गया है। साधारणतः, कावेरी के जबरदस्त प्रवाह के आगे, बिना सीमेंट कॉंक्रीट के, बांध टिकना असंभव हैं। किन्तु यहां ऐसी तकनीक अपनाई गई है, जो आज विश्व के आधुनिकतम बांधों के तकनीक की प्रेरणास्त्रोत हैं। यह बांध ज़िग – जैग पद्धति से बनाया गया है। यह जिग जैग आकार का इसलिए बनाया गया है ताकि पानी के तेज बहाव से बांध की दीवारों पर पड़ने वाली फोर्स को डायवर्ट कर उस पर दवाब को कम किया जा सके।

यह सब अद्भुत है, अकल्पनीय है।

ये चारों प्रवाह नियंत्रित हैं अर्थात नदी पर चार दिशाओं में चार बांध बने हैं। जिस क्षेत्र में पानी की कमी होती है, वहां पर ज्यादा पानी छोड़ा जाता हैं। इसलिए बारिश का पानी या बाढ़ का पानी, नियंत्रित करने के लिए चार रास्ते हैं, जिनके माध्यम से अतिरिक्त पानी समुद्र में बह जाता है।

दो हजार वर्ष पहले, सिंचाई के लिए ऐसी कल्पना करना और उसे प्रत्यक्ष में लाना, यह सब स्वप्नवत लगता हैं। हमारा देश यूं ही सुजलाम – सुफलाम नहीं था, उसे ऐसा बनाने में, समृद्ध करने में राजा करिकलन जैसे अनेक भागीरथों का पुरुषार्थ था..!

कावेरी नदी को चार प्रवाहों में बांटा गया है। इनमें कावेरी के मुख्य प्रवाह के अतिरिक्त, अन्य हैं – कोलिदम अरु, वेन्नारु और पुथु अरु। ये तीनों प्रवाह, कावेरी के जैसे ही, नदी के रूप में आगे जाकर समुद्र में मिलते हैं। पूरे भारत में इस प्रकार की दूसरी कोई रचना, कोई बांध नहीं है। अंग्रेजों ने अवश्य इसके महत्व को समझा था। वे इसे ‘ग्रांड आनिकट’ कहते थे। सन १८०० के बाद, जब दक्षिण भारत का बहुत बड़ा हिस्सा उनके कब्जे में आ गया, तब अंग्रेजों ने इस अभियांत्रिकी के चमत्कार का अध्ययन करने एक टीम भेजी। उस टीम के निष्कर्षों के आधार पर ब्रिटिश इंजीनियर सर ऑर्थर कॉटन ने, कावेरी पर ही, एक छोटा बांध बनाया, जिसे ‘स्माल आनिकट’ कहा गया।

चित्रा नारायण ने इस कल्लनई बांध पर बहुत विस्तार से शोध किया है। उनके अनुसार, ‘दो हजार वर्षों से कार्यरत इस इकलौते बांध की सफलता इसी में है, कि प्रकृति से शक्ति या प्रभाव को (अर्थात पानी के प्रवाह को) बलपूर्वक रोकने के स्थान पर, इस अद्भुत अभियांत्रिकीय चमत्कार ने, उसे प्रकृति के अनुसार दिशा देने का काम किया है।

बांध की लंबाई ३२९ मीटर, चौड़ाई २० मीटर तो ऊंचाई मात्र ५.४ मीटर, अर्थात १८ फीट है। बांध के पास, इसका निर्माण करने वाले चोल राजा करिकलन की हाथी पर बैठी आकर्षक मूर्ति है। पास ही एक छोटे से सभागार में इस बांध की सारी जानकारी प्रदर्शित की गई है। किन्तु सारी जानकारी केवल और केवल तमिल में है। बाहर अंग्रेज़ अभियंता सर ऑर्थर कॉटन के साथ और दो अंग्रेजों के नाम की पट्टिका लगी हुई है। इसे पढ़कर लगता हैं, कि इस अभियांत्रिकी के चमत्कार का निर्माण इन अंग्रेज़ अभियंताओं ने ही किया है।

दो हजार वर्ष पहले इस बांध से ६९,००० एकड़ का क्षेत्रफल सिंचाई के अंतर्गत आता था। आज दस लाख एकड़ क्षेत्रफल की सिंचाई, इस बांध से व्यवस्थित हो रही है। यह पूरा क्षेत्र हरा – भरा रहता है। जहां तक नजर जाती है, वहां तक बस हरे खेतों में लहलहाती फसल दिखती है। पूरे देश में, विभिन्न स्थानों पर अकाल पड़ता है, किन्तु इस क्षेत्र में पिछले दो हजार वर्षों में कभी भी अकाल नहीं पड़ा !

स्थापत्य अभियांत्रिकी का, सिंचाई विज्ञान का, जल व्यवस्थापन का इतना बड़ा जीता-जागता उदाहरण हमारे सामने है, लेकिन इसके बारे में हमें किसी ने कभी बताया ही नहीं। देश के ९०% से ज्यादा स्थापत्य अभियांत्रिकी के विद्यार्थियों ने इसे नहीं देखा होगा। सिंचाई की परियोजना में काम करने वाले अभियंताओं ने भी इसके दर्शन नहीं किए होंगे क्योंकि हमें बताया गया है कि स्थापत्य कला / अभियांत्रिकी तो मुगलों की / अंग्रेजों की देन है..!

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