त्रिची का जंबुकेश्वर मंदिर
प्रशांत पोळ
भारतीय ज्ञान का खजाना पुस्तक में मैंने पंचमहाभूतों के मंदिरों का रहस्य यह अध्याय लिखा था। वह सोशल मीडिया पर भी खूब चला था। दक्षिण भारत में पंचमहाभूतों का प्रतिनिधित्व करने वाले पांच शैव मंदिर हैं। एक आंध्र प्रदेश में और बाकी चार तमिलनाडु में। वायु तत्व का श्रीकालहस्ती मंदिर आंध्र प्रदेश में, तिरुपति के पास है। अन्य चार हैं – पृथ्वी (एकांबरेश्वर – कांचीपुरम), आकाश (तिलई नटराज मंदिर – चिदंबरा), अग्नि (अरुणाचलेश्वर मंदिर – तिरुवन्नामलाई) और जल (जंबुकेश्वर मंदिर – त्रिची)। इन में से पहले तीन मंदिर एक सीधी रेखा पर हैं। बिलकुल सीधी रेखा पर। अब पांच में से मात्र तीन मंदिर ही एक सीधी रेखा पर क्यों, इस प्रश्न ने मुझे बहुत ज्यादा सताया था। काफी खोजबीन के बाद पता चला, पहले हमारे यहां मात्र त्रिभूतों की संकल्पना थी – वायु, पृथ्वी और आकाश। बाद में प्रत्यक्ष दिखने और अनुभूति वाले अग्नि और जल उन में और जुड़ गए।
त्रिची में जंबुकेश्वर मंदिर देखना यह मेरे आकर्षण का केंद्र था। इसे थिरुवनैकवल मंदिर भी कहते हैं। यह अत्यंत प्राचीन है। प्रारंभिक चोल राजा कोचेंगन चोलन ने इसे लगभग अठारह सौ वर्ष पहले बनाया, ऐसा कहा जाता है। किन्तु मंदिर में अभी जो शिलालेख मिले हैं, उनके अनुसार यह मंदिर उससे भी प्राचीन, अर्थात ईसा से दो – तीन सौ वर्ष पहले बनाया गया था और कोचेंगन चोलन ने दूसरी शताब्दी में इसका पुनर्निर्माण किया।
यह मंदिर जल तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। शायद इसीलिए इसके मुख्य शिवलिंग के नीचे से पानी सतत बहता रहता है। पानी का, कभी भी बंद न होने वाला स्रोत ही शिवलिंग के नीचे है।
इस भव्य मंदिर में पांच तटबंदियां हैं। विबुड़ी प्रकारा नाम से परिचित पांचवी तटबंदी, लगभग एक मील फैली है। यह दो फीट चौड़ी और पच्चीस फीट ऊंची है। मंदिर में एक जामुन का पेड़ है। वर्ष के ३६५ दिन इस पेड़ पर जामुन लगते हैं। भगवान जंबुकेश्वर जी को प्रातः का पहला प्रसाद यह जामुन का फल ही रहता है।
मैं बड़ा सौभाग्यशाली था, कि इस मंदिर की प्रसिद्धि ऐसी कि दोपहर की पूजा मैं देख सका। मंदिर के पट बंद कर के ‘करूम पासू’ नाम की काले रंग की गोमाता की विधिवत पूजा की जाती है। विशेष याने, यह पूजा आर्चकार अर्थात मंदिर के मुख्य पुजारी, स्त्री जैसा वेश धारण कर के करते हैं।
प्राचीन समय में हमारे मंदिर, संस्कृति के केंद्र हुआ करते थे। यह मंदिर भी कलाओं को आश्रय देता है। प्रतिवर्ष यहां ‘नाट्यांजली उत्सव’ आयोजित किया जाता है। भरतनाट्यम का सर्वोकृष्ट प्रदर्शन इस मंदिर में होता है। ‘नघस्वरूप’ नाम के शहनाई प्रकार के प्राचीन वाद्य का प्रशिक्षण भी यहां दिया जाता है।
कुछ हजार वर्ष पुरानी मूर्तियां, कलाकृतियां, बड़े – बड़े बरामदे, एक ही पत्थर पर बड़ी कुशलता से उकेरे गए खंबे, मंदिर में उच्चारव से चल रहे पवित्र संस्कृत मंत्र, भाविकों का पूरी श्रद्धा के साथ मंदिर में विचरण…. यह सब हमें उस प्राचीन दुनिया में ले जाता है, जहां विश्व विजयी हिन्दू संस्कृति का डंका बज रहा है..
श्रीरंगम (श्री रंगनाथ) मंदिर
हमें बताया जाता रहा, प्राचीन समय में हिंदुओं में शैव और वैष्णवों के बीच में बड़े झगड़े होते थे। युद्ध होने की भी नौबत आती थी। कुछ लोगों ने तो शैव और वैष्णव पंथों को, मुस्लिमों के शिया – सुन्नी जैसा कहा है। यह सरासर गलत है। शैव और वैष्णव पंथों में इस प्रकार का संघर्ष नहीं था। प्रत्येक स्थान पर इनका सह अस्तित्व है। वैष्णवों के प्रसिद्ध स्थान, बालाजी तिरुपति के पास ही श्रीकालहस्ती यह वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करने वाला शैव मंदिर है। इधर त्रिची में, पंच महाभूतों का शैव मंदिर, जंबुकेश्वर से मात्र ८०० मीटर की दूरी पर वैष्णव पंथ का एक भव्य मंदिर है– श्रीरंगम या श्री रंगनाथ मंदिर। कावेरी और कोलेरून नदियों के बीच में स्थित, यह भगवान विष्णु के १०८ प्रमुख मंदिरों में से पहला और सबसे महत्व का मंदिर है।
मंदिर भव्य है। विशाल है। १५६ एकड़ में फैला है। इस मंदिर परिसर में २१ भव्य गोपुरम हैं। ऐसा कहते हैं, कि पूजित स्थानों में से (अर्थात आज भी जहां नित्य पूजा होती है) श्रीरंगम मंदिर यह विश्व का सबसे बड़ा ‘कार्यरत’ हिन्दू मंदिर है। कंबोडिया के ‘अंगकोर वाट’ में नित्य पूजा नहीं होती। इसलिए उसका विचार नहीं किया गया है। ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु के जो ‘स्वयं प्रकट तीर्थ’ हैं, उनमें से यह श्रीरंगम मंदिर है।
यह मंदिर कितना प्राचीन है, यह बताना कठिन है। लगभग दो हजार वर्ष पुराना तो है ही, शायद उससे भी प्राचीन होगा। किसी समय जयललिता का चुनाव क्षेत्र रहे इस मंदिर ने, आज भी अपनी भव्यता और विशालता के साथ, धार्मिक परंपराओं को अक्षुण्ण बनाकर रखा है।
दक्षिण में बहुत कुछ है। परंपरा की संपन्नता है, तो प्राचीन ज्ञान का भंडार भी है।