एक और दांडी मार्च की आवश्यकता
प्रीति शर्मा
इस 12 मार्च को दांडी यात्रा के 91 वर्ष पूर्ण हो गए। आज हम दांडी यात्रा की वर्तमान समय में प्रासंगिकता ढूंढें तो कई ऐसे पक्ष सामने आते हैं, जहां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महान संस्कृति के इस प्रतीक का सदुपयोग वर्तमान डिजिटल युग में भी किया जा सकता है। कोरोना ने समाज को दूरियों से भर दिया ऐसे में दांडी यात्रा जैसे एकीकरण एवं समग्रता के प्रतीक राष्ट्र के संकल्प की परिणति कुछ विशेष विषयों में आज भी संभव है। दांडी यात्रा का मर्म त्याग एवं दृढ़ निश्चय में निहित था, जिसका आधार अहिंसा और सत्याग्रह थे जो किसी भी कालखंड में व्यर्थ नहीं होते।
आज जब आत्मनिर्भर भारत की बात की जाती है तो ग्रामीण भारत को सुदृढ़ करने के लिए युवा वर्ग की सकारात्मक यात्रा के आह्वान की आवश्यकता होती है क्योंकि जिस प्रकार कोरोना जैसी महामारी के समय देश विदेश से सुशिक्षित युवा जब घर की ओर लौटे तो अपनी शिक्षा का सदुपयोग ग्रामीण स्वावलंबन में किया। जिसने ना केवल स्थानीय स्तर के विकास हेतु सबको आशान्वित किया बल्कि भारतीय दायित्व पूर्ण युवा की भी पहचान कराई।
आज आवश्यकता है ऐसी दांडी यात्रा की जो समाज को वोकल फॉर लोकल के लिए जागृत करे और अर्थव्यवस्था को अधिकाधिक आत्मनिर्भर बनाने में सहायक सिद्ध हो। आज आवश्यकता है उस दांडी यात्रा की जो संपूर्ण भारत में स्थानीय उत्पादों को प्रोत्साहित करे और जन-जन में जागरूकता फैलाए। आज आवश्यकता है ऐसी दांडी यात्रा की जो विलुप्त होती सनातन संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए कटिबद्ध हो और डिजिटलीकरण के युग में घर-घर में परिवारवाद एवं वृद्धजन की सेवा भाव वाली पीढ़ी का निर्माण करे।
दांडी यात्रा द्वारा कई सामाजिक दायित्वों को चिन्हित किया गया था, जैसे जाति-धर्म-वर्ग की सीमाओं से परे जाकर राष्ट्र विकास के संकल्प के लिए संपूर्ण समाज एकीकृत हुआ था। विरोधी के मनोबल को कमजोर करने के लिए जिस प्रकार समाज का प्रत्येक सदस्य मानसिक और शारीरिक रूप से राष्ट्र संकल्प के साथ खड़ा हुआ था, जिसने भारत को 1930 में ही स्वतंत्र सिद्ध कर दिया था तथा जब प्रत्येक सीमा से बाहर आकर युवा-स्त्री-बालक-वृद्ध सभी स्वतंत्र रूप से निर्णय लेकर इस महायज्ञ में सम्मिलित हुए थे, यह सब आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था।
आज आवश्यकता है कि समाज जाति-धर्म-वर्ग के विभाजीकरण के नकारात्मक प्रभाव से बाहर आकर राष्ट्र के विकास के लिए आगे आए। प्रत्येक गांव और शहर की शिक्षा व्यवस्था और स्वरोजगार प्राप्ति में प्रत्येक सुशिक्षित नागरिक को योगदान देना होगा, जिससे देश की अर्थव्यवस्था सुधरेगी और समाज में सेवा भाव बढ़ेगा। यही वास्तविक युवा मार्च होगा जो भारत की प्राचीन सेवाभावी संस्कृति के पुनः दर्शन करवाएगा। आज हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं किंतु दांडी मार्च महिला सहभागिता का एक उत्कृष्ट उदाहरण था जिसमें महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था और राष्ट्रप्रेम के प्रति संकल्प-बद्धता प्रदर्शित की थी। अतः वर्तमान में एक ऐसे दांडी मार्च की आवश्यकता है जिसमें प्रत्येक महिला को शिक्षित करने, उनकी सहभागिता बढ़ाने जैसी प्राचीन सनातन संस्कृति की विशेषताओं को पुनर्जीवित करने का संदेश हो और समाज अधिक शक्तिमान हो। यदि देखा जाए तो आज दशा भी है और दिशा भी है, निर्णय हमें लेना है कि भारतीय सनातन संस्कृति के वैदिक संस्कारों को प्रोत्साहित करते हुए भारत में सम्मान और ज्ञान की धाराओं को पुनः जीवित किया जाए और ऐसे उत्कृष्ट कार्यों के लिए सामाजिक मार्च किए जाएं जो पूर्णत: अहिंसा और सत्य पर आधारित हों।
नौ दशक पूरे होने के मौके पर जिस तरह की प्रतीकात्मक दांडी यात्रा निकाली गई, उसने निश्चित रूप से गांधी के बाद की पीढ़ी को एक ऐसे अनुभव से रू ब रू करवाया है, जिसके बारे में उसने केवल किताबों में पढ़ा। इस आलेख में लेखिका ने जिस खास बात पर जोर दिया है, वह गौरतलब है, मैं उन शब्दों को ही फिर से दोहराना चाहता हूं, लेखिका ने लिखा है, ‘ऐसी दांडी यात्रा जो समाज को वोकल फॉर लोकल के लिए जागृत करे, अर्थव्यवस्था को अधिकाधिक आत्मनिर्भर बनाने में सहायक सिद्ध हो। आज आवश्यकता है उस दांडी यात्रा की जो संपूर्ण भारत में स्थानीय उत्पादों को प्रोत्साहित करे और जन-जन में जागरूकता फैलाए। आज आवश्यकता है ऐसी दांडी यात्रा की जो विलुप्त होती सनातन संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए कटिबद्ध हो और डिजिटलीकरण के युग में घर-घर में परिवारवाद एवं वृद्धजन की सेवा भाव वाली पीढ़ी का निर्माण करे।’ यह सत्य है, क्योंकि कोरोना काल के बाद एक बार फिर से स्थानीय स्तर पर नए स्टार्ट अप खड़े करने के अवसर पैदा हो रहे हैं, डिजिटल युग में यह कुछ आसान भी हो गया है।
माणक मोट ‘मणि’
वरिष्ट पत्रकार