द केरल स्टोरी : विरोध से सच नहीं छिपेगा
बलबीर पुंज
द केरल स्टोरी : विरोध से सच नहीं छिपेगा
“सच्चाई छुप नहीं सकती बनावटी उसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कागज़ के फूलों से”— इस शेर से फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ पर बरप रहा हंगामा चरितार्थ होता है। इस फिल्म में केरल के भीतर वर्षों से जारी मतांतरण के उस वीभत्स रूप को दिखाया गया है, जिसमें गैर-मुस्लिम— विशेषकर हिंदू-ईसाई युवतियों को मुस्लिम समूहों द्वारा बहला-फुसलाकर या प्रेमजाल में फंसाकर, उनका न केवल मजहब बदला जाता है, अपितु निकाह के पश्चात इराक-सीरिया जैसे इस्लामी देशों में आतंकवादी संगठनों के समक्ष ‘सेक्स-स्लेव’ या ‘फिदायीन’ के रूप में परोस दिया जाता है। विमर्श बनाया गया कि ‘द केरल स्टोरी’ में हजारों युवतियों के आतंकवादी संगठन आईएस से जुड़ने का दावा, ‘खोखला’ है। वास्तव में, यह आंकड़ों के फेर में उलझाकर उस विषाक्त चिंतन से लोगों का ध्यान भटकाने का योजनाबद्ध प्रयास है, जिससे भारतीय उपमहाद्वीप सदियों से अभिशप्त है।
जो समूह फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ के विरुद्ध है, उसमें केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन से लेकर कांग्रेसी सांसद शशि थरूर और जमीयत-उलेमा-ए-हिंद अग्रणी हैं। इस फिल्म के विरोधियों के मुख्यत: तीन तर्क हैं। पहला— यह फिल्म राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रतिपादित लव-जिहाद पर आधारित है, जो कि एक ‘काल्पनिक’ अवधारणा है। दूसरा— इसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हेतु बनाया गया है। तीसरा— फिल्म में केरल के जिस सच को दिखाने का दावा किया गया है, वह ‘फर्जी’ है और अदालतें उसे निरस्त कर चुकी हैं। क्या ऐसा है?
पहली बात, यदि केरल में बढ़ते इस्लामी कट्टरवाद पर बनी फिल्म संघ से प्रेरित है, तो उसमें गलत ही क्या है? जब समाज के सभी वर्गों को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ प्राप्त है, तो संघ को इससे विमुक्त रखने का प्रयास क्यों? क्या लोकतांत्रिक-पंथनिरपेक्षी व्यवस्था में विचारों पर केवल एक वर्ग का अधिकार, समाज को लंबे समय तक अक्षुण्ण रख सकता है? दूसरी बात, यह फिल्म सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण नहीं, अपितु समाज में व्याप्त इसके विषाक्त कारकों का सटीक चित्रण है। ‘द केरल स्टोरी’ से पहले वर्ष 2009 में करण जौहर निर्मित और करीना कपूर-सैफ अली खान अभिनीत फिल्म ‘कुर्बान’ में ‘लव-जिहाद’ को दर्शाया गया था। इस फिल्म में शादीशुदा एहसान खान (सैफ) अमेरिका की नागरिकता प्राप्त करने हेतु अवंतिका (करीना) को छल-कपट करके प्रेमजाल में फंसाता है और विवाह पश्चात आतंकवादी हमले को अंजाम देने में उसका उपयोग करता है।
वामपंथियों और कांग्रेस द्वारा ‘द केरल स्टोरी’ का विरोध, विडंबनाओं से भरा है। केरल के वर्तमान वामपंथी मुख्यमंत्री विजयन ‘द केरल स्टोरी’ को ‘आरएसएस का प्रोपेगेंडा’ बता रहे हैं, किंतु उन्हीं की पार्टी के दीर्घानुभवी नेता वीएस अच्युतानंदन, जुलाई 2010 में बतौर केरल मुख्यमंत्री दावा कर चुके थे, “केरल के इस्लामीकरण का षड्यंत्र चल रहा है, जिसमें सुनियोजित तरीके से हिंदू लड़कियों के साथ मुस्लिम लड़कों के निकाह करने का षड्यंत्र चलाया जा रहा है।”
कांग्रेस भी ‘द केरल स्टोरी’ की विषयवस्तु के खिलाफ है। परंतु जब केरल में 2011-2016 के बीच उसकी सरकार थी, तब तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री ओमान चांडी ने 25 जून 2012 को विधानसभा के पटल पर वर्ष 2009-12 के बीच 2,600 से अधिक गैर-मुस्लिम महिलाओं का इस्लाम अपनाने का दावा किया था। यही नहीं, स्वयं शशि थरूर भी इस बात से अवगत रहे हैं और वर्ष 2021 में उन्होंने केरल की उन माताओं से मिलना स्वीकार किया था, जिनकी बेटियां मजहबी कट्टरता का शिकार हुई थीं और अपने पतियों द्वारा अफगानिस्तान भेज दी गई थीं।
जो समूह ‘द केरल स्टोरी’ और ‘लव-जिहाद’ को संघ-भाजपा का ‘एजेंडा’ बता रहे हैं— वे चर्च प्रेरित संगठनों की इस पर व्यक्त चिंता को कैसे देखेंगे? जनवरी 2020 में केरल कैथोलिक बिशप काउंसिल (केकेबीसी) के उप-महासचिव वर्गीस वलीक्कट ने कहा था— “लव-जिहाद को केवल प्रेम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, इसका एक व्यापक दृष्टिकोण है। सेकुलर राजनीतिक दलों को कम से कम यह स्वीकार करना चाहिए कि लव-जिहाद एक सच है।” इसी भावना को केकेबीसी के अन्य बिशप जोसेफ कल्लारंगट और इसी वर्ष ईस्टर के समय साइरो-मालाबार कैथोलिक चर्च में टेलिचेरी स्थित आर्कबिशप जोसेफ पामप्लानी भी दूसरे शब्दों में प्रकट कर चुके हैं।
क्या हिंदू-ईसाई युवतियों का जबरन मतांतरण का मुद्दा भी संघ-भाजपा का ‘हौव्वा’ है और अदालतों द्वारा इसे निरस्त किया जा चुका है? वर्ष 2009 में केरल उच्च-न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश केटी शंकरन ने कहा था, “कुछ संगठनों के आशीर्वाद से प्रेम की आड़ में जबरन मतांतरण का खेल चल रहा है। पिछले चार वर्षों में प्रेम-प्रसंग के बाद 3,000-4,000 मतांतरण के मामले सामने आए हैं। ऐसे मामलों को रोकने के लिए कानून बनना चाहिए।” गत वर्ष 14 नवंबर को सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था, “जबरन मतांतरण न केवल मजहबी स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है, अपितु यह देश की सुरक्षा के लिए भी खतरा हो सकता है।”
अक्सर, मतांतरण के समर्थक (राजनीतिज्ञ सहित) इसे ‘आस्था की स्वतंत्रता’ का विषय बताते हैं। जहां कई घोषित इस्लामी-ईसाई गणराज्यों के साथ चीन रूपी साम्यवादी देशों में ‘पसंदीदा आस्था पद्धति अपनाने’ के अधिकार को राजकीय चुनौती मिलती है, वही भारत में उसकी अनंतकालीन बहुलतावादी सनातन संस्कृति के अनुरूप सभी प्रकार के मानवाधिकारों के साथ पसंदीदा पूजा-पद्धति अपनाने की स्वतंत्रता है। परंतु क्या ‘आस्था के अधिकार’ का उपयोग छल-कपट या लालच-लोभ से किसी का मतांतरण करना, स्वीकार्य हो सकता है? वह भी भारत में, जो मजहब के नाम पर 76 वर्ष पहले तीन हिस्सों में विभाजित होने का दंश झेल चुका है।
वास्तव में, स्वतंत्र भारत की अधिकतर समस्याओं की जड़ में हिंदू-मुस्लिम तनाव है। यह देश की गरीबी के खिलाफ संघर्ष और विश्व में भारत की छवि— दोनों को कमजोर करता है। यदि हमें विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होना है, तो सांप्रदायिकता रूपी सर्पों को कुचलना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि हम फिरकापरस्ती की पौधशाला और उसे पोषित करने वालों को पहचानें। फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ ऐसे ही तत्वों को संभवत: उजागर करती है। अंग्रेजी मुहावरे के अनुरूप, “Shooting The Messenger” (संदेशवाहक को मारना) से समस्या का हल नहीं निकलेगा।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)