धरतीमाता का बुखार और उसकी तड़प हम कब अनुभव करेंगे?
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जयराम शुक्ल
धरतीमाता का ताप साल-दर-साल बढ़ता ही जा रहा है। पिछले साल के मुकाबले इस साल तापमान कुछ डिग्री ज्यादा रहेगा, मौसम वैज्ञानिकों ने ऐसा अनुमान व्यक्त किया है। अब तो हरीतिमा से ढंके भोपाल का पारा 45 सेल्सियस तक पहुंच जाता है। आज से बीस-पच्चीस साल पहले अमरकंटक और पचमढ़ी में एसी की मशीनें नहीं थीं। इन देसी हिल स्टेशनों में अब बिना एसी गुजारा नहीं। आज वहां जाएं तो झुलस जाएंगे। अमरकंटक की “माई की बगिया” की गुलबकावली वैसे ही झुलसी-झुलसी सी रहती है, जैसे गोरे गाल में कोई गरम तवा छुआ दे।
नौ-तपा नौ दिन का नहीं, अब पूरे अप्रैल मई रहता है। अगले वर्षों से कहीं इसका नाम न बदलना पड़े। इस पूरी गरमी सूरज आग का गोला बना सिर पर ही सवार है। नीचे की जमीन वैसे ही गरम जैसे डोसा सेंकने वाली लोहे की प्लेट।
लू-लपट के आगे हीटर ड्रायर फेल। कुल मिलाकर हालत ऐसे जैसे कि भुट्टा ओवन में सिझता है। गरमी में ऐसे ही कई सिझकर मौत के निवाला बन जाते हैं, इसे हीट स्ट्रोक का नाम दिया गया है।
अनुपम मिश्र जी कहा करते थे कि धरती माता का बुखार लगातार बढ़ता जा रहा है, साल दर साल। क्या हम तभी संभलेंगे जब वह कोमा में पहुंच जाएगी। वे ग्लोबल वार्मिंग को इसी तरह समझाते थे। मनुष्य को जब बुखार आता है तो उसका तापमान बढ़ता है। हमें बुखार क्यों आता है? जब शरीर की प्रतिरोधक क्षमता विषाणुओं के आगे पस्त हो जाती है और हमारे अंग संक्रमित होने लगते हैं। यह संक्रमण मिट्टी- हवा- पानी- भोजन के माध्यम से शरीर तक पहुँचता है।
हम मनुष्य प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए बड़े अस्पतालों में जाते हैं, सर्जरी कराते हैं, दवाइयाँ खाते हैं। हमारी धरती माता इलाज के लिए कहां, किस अस्पताल में जाए? उसकी कराह कौन सुने? बस हम खुदगर्ज लोग खुदी को बुलंद करने में जिंदगी भर लगे रहते हैं।
धरती माता ने हमें पाला और हम उसे अनाथ असहाय छोड़कर आगे निकल लिए। उसके लिए ईश्वर ने किसी अनाथालय का भी तो इंतजाम नहीं किया।
धरती माता हर युग में संत्रस्त होती आई है। त्रेता में भी ..भूमि विचारी गो तनु धारी गई विरंचि के पासा… मानस में ये स्तुति आती है..जय जय सुरनायक जनसुख दायक। ब्रह्मा उसकी अर्जी विष्णु के पास रखते हैं. विष्णु जी इसे स्वीकार करते हैं ..तब भै प्रकट कृपाला दीनदयाला बनकर आते हैं।
हमारे पौराणिक आख्यानों के संकेतों को समझिए. बहुत कुछ है उसमें। रामायण को पर्यावरणीय दृष्टि से पढ़िए, समझिए. चित्रकूट के सरभंग आश्रम में जब राम राक्षसों के कुकृत्यों को अपनी आँखों से देखते हैं, तभी प्रण करते हैं – निशिचर हीन करहु महि भुज उठाइ प्रण कीन्ह। धरतीमाता को निशिचरों से मुक्ति का संकल्प लेते हैं और अगस्त्य के आमंत्रण पर इस चुनौती को स्वीकार करते हुए दंडकारण्य की ओर चल पड़ते हैं।
हर चुनौती खतरों से भरी होती है। राम चाहते तो मजे से 14 वर्ष सुरक्षित चित्रकूट में बिता सकते थे। पर उन्हें खरदूषण और त्रिसरा से निपटना था। ये खरदूषण और त्रिसरा कौन..? साम्राज्यवादी रावण के एजेंट धरती माता आज भी ऐसे ही एजेंटों से संत्रस्त है। पौराणिक नामों में भी छिपे हुए गूढ़ार्थों को जानिए. खरदूषण और प्रदूषण। खरदूषण प्रदूषण का प्रतीक जो अपने आका रावण के आदेश पर दंडकारण्य के पर्यावरण का नाश करने में जुटा था। राम पहला काम इन्हीं का संहार करके शुरू करते हैं।
सूर्पनखा भी ऐसी ही एक प्रतिनिधि है। सीता धरतीमाता की पुत्री सूर्पनखा अपने विशाल नाखूनों से भूमिजा को नोच लेना चाहती है। लक्ष्मण उसे विरूप बना देते हैं। आज खनन कंपनियां सूर्पनखाओं की भूमिका में हैं। भूमि व भूमिजा दोनों को अपने विशाल मशीनी पंजों से नोंच रही हैं।
पूँजी हमेशा से प्रकृति की दुश्मन रही है। जहाँ पूँजी का बोलबाला हुआ, वहां प्रकृति का नाश समझिए. कोई नगर सोने का कैसे हो सकता है। पर सोने की लंका थी. सोने की लंका वस्तुतः पूँजीवाद की प्रतीक है। राम इस व्यवस्था का नाश करते हैं। वे चाहते तो अयोध्या से भरत की चतुरंगिणी और जनक की पलटन को बुला सकते थे… लेकिन नहीं.. उन्होंने प्रकृति के आराधकों की ही सेना जोड़ी। केवट, भील, कोल, किरात उनके सेवादार बने। बंदर, भालू, गिद्ध, गिलहरी ये सब उनकी सेना में।
राम ने शोषितों का सशक्तिकरण किया। उनका, जो वास्तव में पीड़ित थे। रावण की सेना से वैसी ही सेना भिड़ा सकते थे. लेकिन नहीं, वे चाहते थे कि पूँजी के खिलाफ प्रकृति की विजय हो। सोने की लंका खाक में मिल गई। पूँजी पर प्रकृति की यह महाविजय थी, जिसका नेतृत्व राम ने किया।
राम दल प्रकृति का आराधक था, धरती पुत्र था। धरती माता की वेदना को समझता था, इसलिए एक साम्राज्यवादी पूँजीपति से हाथ मिलाने और उसकी आधीनता को स्वीकार करने की बजाय उससे दो-दो हाथ करना ही यथेष्ठ समझा। धरती माता की इज्जत बच गई। लंका के उस माफिया के कब्जे से भूमिजा सीता को छुड़ा लाए।
कभी हम अपने पौराणिक आख्यानों को इस दृष्टिकोण से भी समझने की कोशिश करें, वहां समस्या है तो उसके समाधान के सूत्र भी हैं। हम यहां समस्या के सूत्रधारों के पाले में खड़े होकर समाधान की गुहार लगा रहे हैं। अब कोई राम नहीं आने वाले जो वानर, भालुओं को जोड़कर प्रकृति की अस्मिता बचाने की जंग छेड़े। पहले हमें ही तय करना होगा कि हम किस पाले में खड़े हैं। अबकी समस्या ज्यादा विकट है.. धरती माता गाय बनकर अब किस अवतार के लिए गुहार लगाए..यहां तो बस कसाइयों की जमात है, जो गाय की भाँति धरती माता को भी दुहकर असहाय छोड़ना जानती है।
प्रकृति को हम जब तक पश्चिम के नजरिए से देखेंगे, कोई हल नहीं निकलने वाला। प्रकृति उनके लिए पर्यावरणीय घटकों का समुच्चय हो सकती है, अपने लिए नहीं। प्रकृति के साथ दैवीय भाव तब से रहा है, जब से इस सृष्टि की रचना हुई और जीव में चेतन हुआ।
प्रकृति के हर घटक हमारे देवता हैं। जिन्हें हम पंच तत्व कहते हैं। यही पश्चिम के लिए पर्यावरण है।
पूरब और पश्चिम के बीच का द्वंद्व ज्ञान और विज्ञान के बीच का द्वंद्व है। ज्ञान शाश्वत है, निरपेक्ष और सार्वभौमिक है। पश्चिम ने अपनी सुविधा के हिसाब से ज्ञान को विज्ञान विग्यान में बदल दिया। विज्ञान सार्वभौमिक, समावेशी नहीं बल्कि स्वार्थी है।
ज्ञान प्रकृति के निकट है। उसका वास्तविक पुत्र है और विज्ञान प्रकृति का दुश्मन। इसे देवता और दैत्य के कथानक से समझ सकते हैं। दोनों कश्यप की संतानें हैं। उनकी एक पत्नी दिति के पुत्र दैत्य और अदिति के दानव। इस तरह दैत्य और देव हैं तो सगे भाई, पर स्वभाव एक दूसरे के विपरीत। उसी तरह ज्ञान और विज्ञान के बीच का रिश्ता है।
ज्ञान कहता है – प्रकृति माँ है, वह अन्न देती है, हवा-पानी-आश्रय देती है, इसके कुशल-क्षेम में ही हमारा भला है. विज्ञान कहता है – यह वस्तु है, इसकी कोख की संपदा हमारी है, इसका तिल-तिल भोगनीय है। कल की कल देखेंगे, आज हमारा है, हम आज को भोगें। ज्ञान भूत से सबक लेता है, वर्तमान को धन्य मानता है, भविष्य की चिंता करता है।
प्रकृति के मर्म को ज्ञान चक्षु से देखेंगे तो सब समझ में आएगा..लेकिन ज्ञान चक्षु में तो भौतिकता का मोतियाबिंद हो गया है। विज्ञान चक्षु को धरतीमाता का बुखार और उसकी तड़प वैसे ही महसूस नहीं होगी, जैसे रावण को लंका और समूचे कुल के महानाश के संकेत।