धोरों से हिलोरों तक (नर्मदा यात्रा-5)
दयाराम महरिया
ओंकारेश्वर से उज्जैन के लिए रवाना हुआ। रास्ते में बल खाती घाटियों में चलती गाड़ी को देखकर मेरे घट में घंटियां बजने लगीं। मैं पुरानी फिल्म ‘अंदाज़’ का गाना मन में गुनगुना रहा था-
ज़िन्दगी है एक सफर सुहाना
यहाँ कल क्या हो किसने जाना
जीवन चलने का नाम है। ठहरने का नाम मृत्यु है। हमारे आप्त ग्रन्थ ‘ऐतरेय उपनिषद्’ में ‘चरैवेति- चरैवेति’ (चलते रहो-चलते रहो) का शाश्वत संदेश दिया गया है।
बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर की नगरी उज्जैन पहुंचा। उज्जैन शिप्रा नदी के तट पर बसा हुआ बहुत प्राचीन नगर है। प्राचीन काल के महान प्रतापी सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन थी। उनके नवरत्नों में एक विश्व प्रसिद्ध कालिदास भी वहीं के थे। कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध काव्य ‘मेघदूत’ में उज्जयिनी की सुंदरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि – जब स्वर्गीय जीवों को अपने पुण्य क्षीण होने की स्थिति में पृथ्वी पर आना पड़ा तब उन्होंने विचार किया है कि हम अपने साथ स्वर्ग का एक खंड भी ले चलें। वही स्वर्ग खंड उज्जयिनी है।
प्रश्न उठता है कि उज्जैन के ज्योतिर्लिंग को ‘महाकालेश्वर’ क्यों कहा जाता है। उज्जैन (उदयिनी) का सूर्योदय काल देशभर के पंचांगों के लिए प्रामाणिक उदय काल माना जाता है। भारतीय ज्योतिषियों के अनुसार कर्क रेखा पर उज्जैन स्थित है। आधुनिक विज्ञान भी इसकी पुष्टि करता है। उज्जैन 23 अंश अक्षांश और 11 अंश देशांतर पर स्थित है। कर्क रेखा 23 अक्षांश और 26 देशांतर पर स्थित है। कर्क रेखा का केंद्र बिंदु उज्जैन से 30 किलोमीटर दूर महिदपुर तहसील के डोंगला गांव में है। वहां पर वेधशाला है। विक्रमादित्य के नाम से ही विक्रम संवत् प्रचलित है। कुछ विद्वानों का मत है कि विक्रम + आदित्य से ‘विक्रमादित्य’ बना है। विक्रम का अर्थ श्रेष्ठ व आदित्य का अर्थ सूर्य होता है। विक्रमादित्य का अर्थ श्रेष्ठ सूर्य होता है। विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्न नवग्रह हैं। अतः भारतीय ज्योतिर्विद्याविदों ने उसे महाकाल की नगरी कहा। भारतीय ज्योतिष कितना प्रामाणिक एवं विज्ञान सम्मत था। इसके अनेक उदाहरणों में से एक उज्जैन का ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर है ।
उज्जैन के ग्रामीण क्षेत्र के राजकीय चिकित्सालय में पुत्र चिरंजीव डॉक्टर कृष्णराम पदस्थापित है। वह भी महाकालेश्वर के दर्शन करने आ गया। महाकालेश्वर मंदिर के पास ही माधव सेवा प्रन्यास के द्वारा कुछ वर्ष पहले निर्मित ‘दिव्य-भव्य भारत- माता मंदिर’ है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर लिखा हुआ था –
हिमालयन समारभ्य यावत् इंदु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते।।
अर्थात् हिमालय पर्वत से शुरू होकर हिंद महासागर तक फैला हुआ ईश्वर निर्मित देश ‘हिंदुस्थान’ कहलाता है।
क्षिप्रा एवं काल का क्षिप्र (तेज) प्रवाह है। दोनों समगुणी होने के कारण ही क्षिप्रा के तट पर महाकालेश्वर धाम है। काल (समय) बड़ा बलवान होता है। तुलसीदास जी ने कहा है –
तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।
भीलन लूटी गोपिका, वो अर्जुन वो ही बाण।।
राजस्थानी का एक बहुत ही मार्मिक भजन है –
समय तो खुदा द्ये कुआ बावड़ी
समय तो दिरा द्ये गढ़ां री नींव
नर का क्या बड़ा रेssss
समय बड़ा बलवान ….।
उज्जैन में डूबते आदित्य सम्राट की सुनहरी लाट क्षिप्रा में झिलमिला रही थी। उस दृश्य को देखकर मेरे मानस पटल पर कलम चलने लगी –
सुरमई शाम
महाकालेश्वर धाम
बगल में ‘कृष्णराम ‘
ह्रदय में कृष्ण-राम
ललाम याम
दया-राम
‘दयाराम’
दाम -काम
नर्मदा- यात्रा पूरी कर घर लौट आया
जीवन -मात्रा पूरी कर ‘ घर ‘ लौटना है।
अंत में कहना चाहूंगा-
नर्मदा तट धन्य हुआ, जीवन- मात्रा पाय।
‘दयाराम’ यात्रा करी, ‘गोविंदा’ गुण गाय।।
क्रमशः
(अगली कड़ी में राष्ट्र-ऋषि गोविन्दाचार्य के यात्रा के दौरान दिये उद्बोधनों का सार-संक्षेप ‘गोविंद-कथा’ होगी)
दयाराम जी ने यात्रा स्मरणन का जो ज्ञान पूर्ण सटीक व जीवंत वर्णन किया है,उसको सादर नमन