जब कल्बेट के घर पधारे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
आशुतोष भटनागर
नगा राजा कल्बेट की प्रसन्नता का पारावार न था। अंग्रेज जिसके नाम से भय खाते थे, वे सुभाष चन्द्र बोस नागालैंड के उस छोटे से गांव में कल्बेट के घर जो आ रहे थे। 8 अप्रैल 1944 के ऐतिहासिक दिन नागालैंड की राजधानी कोहिमा पर आजाद हिन्द फौज ने तिरंगा लहराया और भारतीय स्वातंत्र्य के इतिहास में एक स्वर्णिम पृष्ठ जुड़ गया। लेकिन यह विजय भी सरल न थी।
संसाधनों और खाद्य सामग्री के अभाव में आजाद हिन्द फौज के सैनिक केले के तने और जंगली बांस की कोमल पत्तियां तक उबाल के खाने को विवश थे ऐसे समय में ही सहायता के लिये आगे आये थे नगा सरदार राजा कल्बेट। नगाओं ने अपने हिस्से का भी भोजन इन सैनिकों को खिलाया। नेताजी कल्बेट और उसके गांव-समाज के लोगों द्वारा आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को दी गयी सहायता से इतने अभिभूत थे कि युद्ध के इस भीषण दौर में भी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये राजा कल्बेट के गांव गये।
इससे पहले 4 फरवरी 1944 की एक सुबह। आजाद हिन्द फौज प्रस्थान के लिये तैयार है। सैनिकों को कूच का आदेश देते हुए सुभाष चन्द्र बोस कह रहे हैं – “दूर, बहुत दूर, नदी के उस पार, पहाड़ और जंगलों के उस पार है हमारा देश। जहां की मिट्टी में हम पैदा हुए हैं, वहीं हम लौट जायेंगे”।
“सुनो, भारत हमें बुला रहा है। बुला रहे हैं अड़तीस करोड़ भारतवासी। रक्त पुकार रहा है रक्त को। अगर ईश्वर ने चाहा तो हम बलिदान देंगे। लेकिन मरने से पहले उस रास्ते को चूमेंगे जिस पर होकर हमारी सेना गुजरेगी। दिल्ली का रास्ता ही स्वतंत्रता का रास्ता है। आज से हमारा नारा होगा स्वाधीनता या मृत्यु। चलो दिल्ली!”
जंगलों और पहाड़ों को पार करते हुए आजाद हिन्द पौज के सैनिक निरंतर बढ़ रहे थे। रास्ते में अराकान जीता। ताऊंग बाजार पर अधिकार किया। एक मार्च को जीता सेटाबिन, 5 को कालादि और 8 मार्च को होआइट और चार दिन बाद लेनाकट। 18 मार्च को केनेडी पीक जीता जिसके पार था भारत। 19 मार्च की भोर में यह सेना भारत की धरती पर थी। आह्लाद से नाचते सैनिक मार्ग के सारे कष्ट भूल गये थे। 22 मार्च को जापान के जनरल तोजो ने घोषणा दोहराई – “भारत के जीते हुए भाग पर पूरी तरह से आजाद हिन्द सरकार का ही अधिकार होगा”।
“मेजर जनरल एम. जेड. कियानी के नेतृत्व में पहली डिवीजन आगे बढ़ रही थी। इसके अंतर्गत तीन ब्रिगेड थीं। सुभाष ब्रिगेड का संचालन मेजर जनरल शाहनवाज खां, गांधी ब्रिगेड का कर्नल आई. जे. कयानी तथा आजाद ब्रिगेड का नेतृत्व कर्नल गुलजारा सिंह कर रहे थे। लक्ष्य था नागालैंड की राजधानी कोहिमा। डिवीजन को आठ सेक्टरों में बांट कर गुलजारा सिंह, ठाकुर सिंह, प्रीतम सिंह, पूरन सिंह, एस. मलिक, रतूड़ी, बुरहानुद्दीन और रामस्वरूप आठ दिशाओं से आगे बढ़ रहे थे। कोहिमा में पहले से डटी अंग्रेजों की यॉर्कशायर रेजिमेन्ट, डरहम लाइट इनफैन्ट्री, रॉयल स्कट्स आदि इनके मार्ग में बाधा बने हुए थे।
घेरा कसता गया। पहले अधिकार में आया जी टी पहाड़, फिर डिप्टी कमिश्नर का बंगला। घमासान लड़ाई हुई। अंग्रेज सेना पीछे हटते हुए जहां जा पहुंची वह जगह लम्बाई में छः सौ गज थी और चौड़ाई में साढ़े तीन सौ गज। 8 अप्रैल 1944 को इस युद्ध का यह आखिरी मोर्चा था, जिसके बाद थी विजय। कर्नल ठाकुर सिंह ने कोहिमा पर तिरंगा लहरा दिया।
6 जुलाई को नेताजी ने महात्मा गांधी के लिये रेडियो पर संदेश प्रसारित किया- “स्वाधीनता प्राप्ति के लिये भारत की अंतिम लड़ाई जारी है। आजाद हिन्द फौज अब भारत के भीतर बड़ी बहादुरी के साथ लड़ रही है। हजारों तरह की विघ्न-बाधाओं के बावजूद वे आगे बढ़ते जा रहे हैं। राष्ट्रपिता, भारत के इस पवित्र मुक्ति संग्राम में हम आपकी शुभेच्छा और आशीर्वाद चाहते हैं” ।
10 जुलाई को रंगून में नेताजी ने कहा- “हम जानते हैं कि उनके रसद और अस्त्र-शस्त्र हमसे कहीं ज्यादा अच्छे हैं क्योंकि हमसे लड़ने के लिये, बहुत पहले से वे भारत का शोषण कर रहे हैं। इस पर भी हम उन्हें पीछे धकेलने में सक्षम हुए हैं। क्योंकि शक्ति बीयर, रम, पोर्क या मांस से नहीं आयी है। आयी है आत्मविश्वास, आत्मत्याग, वीरता और अविचल धैर्य के रास्ते” ।
11 जुलाई को को बहादुर शाह जफर की समाधि पर जाकर उन्होंने संकल्प व्यक्त किया- “यदि मनुष्य हैं तो ब्रिटिशों से, अकथनीय अत्याचार सहन कर जिन वीरों ने अकाल मृत्यु का वरण किया है, उसका बदला लेकर रहेंगे। जिन ब्रिटिशों ने हमारे स्वाधीनता प्रेमी वीरों का खून बहाया है, उन पर अमानुषिक अत्याचार किया है, उन्हें यह ऋण चुकाना ही पड़ेगा” ।
ब्रिटिश सेना जब पीछे हट रही थी तभी उसे भारी अमेरिकन सहायता प्राप्त हो गयी। अब पासा पलट गया था। इसी समय तेज वर्षा ने आजाद हिन्द फौज को घेर लिया। सेना को वापस लौटने के आदेश दिये गये। लेकिन यह वापसी और अधिक करुण थी।
मेजर जनरल शाहनवाज ने इसका मार्मिक वर्णन करते हुए लिखा है- “न खाने के लिये रसद थी और न दवायें। इस जंगल में बहुत बड़ी-बड़ी मक्खियां थीं जो कहीं भी घाव पाकर उस पर बैठ जाती थीं तो आधे घण्टे में उस घाव पर हजारों कीड़े नजर आने लगते। रास्ते बह गये थे और नये बनाये रास्तों में पानी भर गया था। काफी सैनिक उसी कीचड़ में फंस कर मर गये। बहुत से लोग पेचिश और मलेरिया से बीमार थे। रास्ते के दोनों ओर जापानी और भारतीय सैनिकों की लाशें पड़ी थीँ। चार दिन पहले मरे घोड़े का मांस खाते भी देखा मैंने अपने सैनिकों को। कोई भूख से तो कोई थकावट से मरा। किसी ने कष्ट न सहन कर पाने की स्थिति में खुद को गोली मार ली”।
एक दिन मुझे सड़क के किनारे एक घायल सिपाही दिखायी पड़ा। वह पड़ा हुआ मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। उसके घाव पर अनगिनत कीड़े बिलबिला रहे थे। मुझे देख उसने उठने की कोशिश की पर उठ न सका। उसने मुझे पास बैठने का इशारा किया। उसने मुझे कहा – “आप लौट रहे हैं, आपकी नेताजी से भेंट जरूर होगी। मेरी तरफ से उन्हें जय हिन्द कहियेगा और कह दीजियेगा कि मैंने उन्हें जिस बात का वचन दिया था उसका अक्षरशः पालन किया है। मेरी मृत्यु कैसे हुई, यह उन्हें साफ-साफ बता दीजियेगा। मुझे जीते-जी कीडे किस तरह से कुतर-कुतर कर खा रहे हैं, यह भी बताइयेगा। एक बात और उनसे बता दीजियेगा – इस भयंकर यन्त्रणा में भी मैं शांति और आनंद में हूं क्योंकि हर पल मुझे लग रहा है कि अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिये मैं प्राण त्याग रहा हूं”। सैनिकों के इन कष्टों का समाचार नेताजी तक भी पहुंचता रहा।
हिरोशिमा और नागा-साकी पर एटमी हमले के पश्चात जापान ने आत्म समर्पण कर दिया। 11 अगस्त को यह समाचार नेताजी तक पहुंचा। उनकी प्रतिक्रिया थी – “जापान की लड़ाई खत्म हो सकती है, हमारी नहीं। उनके आत्मसमर्पण का मतलब भारत की मुक्ति वाहिनी का आत्मसमर्पण नहीं है। आजाद हिन्द फौज इस पराजय को स्वीकार नहीं करेगी”। 12 अगस्त को वे सिंगापुर पहुंचे। समूचे दक्षिणपूर्व एशिया में फैले आजाद हिन्द फौज के सूत्रों को संदेश भिजवाने और आगे की रणनीति तय करने में तीन दिन बीत गये।
15 अगस्त 1944 को शत्रु सेना के निकट पहुंचने के समाचार मिलने लगे। उन्होंने कर्नल स्ट्रेसी और कैप्टन आर. ए. मलिक को बुलवा भेजा। उनकी आंखों के आगे उन हजारों सैनिकों के चेहरे घूम रहे थे जिन्होंने कोहिमा, इम्फाल और विशनपुर में भारत की स्वाधीनता के लिये अपने प्राण दिये थे। नेताजी ने स्ट्रेसी की ओर देखा और बोले – “किसी भी समय शत्रु यहां पहुंच सकता है। उनके पहुंचने के पहले इन शहीदों को समर्पित स्मारक बन जाना चाहिये। मैं चाहता हूं कि सिंगापुर में कदम रखते ही ब्रिटिश समुद्र की ओर सिर उठाये इस शहीद स्तम्भ को देख सकें”। तुम यह काम जरूर कर सकोगे। ईश्वर तुम्हारी सहायता करे। तीन दिन और तीन रात अथक परिश्रम करके स्ट्रेसी ने नेताजी की इच्छा को साकार कर दिखाया।
कुछ वर्ष पूर्व ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के राज्यारोहण के साठ साल पूरे होने का समारोह ब्रिटेन में जब मनाया गया तो ब्रिटेन के प्रिन्स एंड्र्यू भारत के दौरे पर आये। जिस ब्रिटेन के राज्य में कहा जाता था कि सूरज कभी डूबता नहीं था, वही आज सिमट कर इतना छोटा रह गया है कि कमजोर नजर वाले उसे दुनियां के नक्शे पर ढूंढ भी नहीं सकते। किन्तु न तो उन्होंने अपने इतिहास से पलायन किया है और न ही वे इससे शर्मिन्दा हैं। 1857 का स्वातंत्र्य समर भारतीय इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है तो ब्रिटेन के लिये वह काला अध्याय। लेकिन कुछ वर्ष पहले जब भारत इसके 150 वर्ष का समारोह मना रहा था, कुछ ब्रिटिश नागरिक भारत आये और उन तमाम जगहों पर जाकर उन्होंने अपने उन पुरखों को याद किया जो 1857 में मारे गये थे।
युवराज ऐंड्र्यू इस अवसर पर नागालैंड की राजधानी कोहिमा में बने युद्ध स्मारक पर फूल चढ़ाने भी गये। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के समय मणिपुर व नागालैंड की पहाडियों और जंगलों में 4 अप्रैल से 22 जून 1944 तक चले संघर्ष में मारे गये अंग्रेज सेनाधिकारियों सहित 5 हजार सैनिकों को श्रद्धांजलि दी।
भारत के एक प्रमुख हिन्दी समाचार पत्र ने शीर्षक लगाया – द्वितीय विश्व युद्ध में मारे गये सैनिकों को एंड्र्यू का सलाम। प्रायः ऐसे ही शीर्षक के साथ अन्य समाचार पत्रों में भी खबरें छपीं। लेकिन किसी ने यह नहीं बताया है कि यह सेनाधिकारी मरे कैसे। किसने उन्हें मारा। जिन्होंने उन्हें मारा, उनका क्या हुआ। अगर यह इतनी बड़ी ऐतिहासिक घटना है कि सात दशक बाद भी ब्रिटेन का शाही परिवार उसे भुला नहीं सका है तो उसका भारत के इतिहास से क्या रिश्ता है। इस युद्ध को भारत के इतिहास में किस रूप में दर्ज किया गया है। और अगर इतनी ऐतिहासिक घटना, जो भारत की धरती पर घटी, का पता भारत के ही नागरिकों को नहीं है तो इसका दोषी कौन है, यह आज भी अनुत्तरित है।
(लेखक जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र दिल्ली के निदेशक है।)