क्या पंजाब पुन: 1980 के दशक की ओर है?

क्या पंजाब पुन: 1980 के दशक की ओर है?

बलबीर पुंज

क्या पंजाब पुन: 1980 के दशक की ओर है?पंजाब पुन: 1980 के दशक की ओर?

गत बुधवार (5 जनवरी 2022) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का काफिला, पंजाब में फिरोजपुर स्थित प्यारेआना फ्लाईओवर पर 15-20 मिनट तक फंसा रहा। यह स्थान पाकिस्तान से कुछ किलोमीटर ही दूर है। दावा है कि किसानों के एक प्रदर्शन के कारण प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक हुई। यह घटनाक्रम कुछ लोगों को बहुत साधारण लग सकता है। परंतु इसके निहितार्थ बहुत गहरे और गंभीर हैं। इस घटना को पंजाब में आने वाले ‘संकट’ के रूप में भी रेखांकित किया जा सकता है।

किसान आंदोलन के नाम पर कैसे नवधनाढ्य आढ़ती वर्ग, जिहादियों, खालिस्तानियों और विदेशी चंदे पर चलने वाले गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) ने एक वर्ष तक दिल्ली सहित पंजाब-हरियाणा की सीमावर्ती सड़कों को बाधित किया और कानून-व्यवस्था के साथ सामान्य दैनिक दिनचर्या की धज्जियां उड़ाईं, वह सर्वविदित है। किस प्रकार 15 अक्टूबर 2021 को हरियाणा-दिल्ली की सिंघु सीमा पर बेअदबी का आरोप लगाकर निहंग सिखों द्वारा अनुसूचित जाति के लखबीर को घंटों अमानवीय यातनाएं देकर नृशंसता से मार दिया गया और उसके शव को किसान आंदोलन के शिविर के पास क्षत-विक्षत करके लटका दिया गया, वह भी पूरे समाज ने देखा था। इसके बाद 18-19 दिसंबर को पंजाब में उन्मादी भीड़ द्वारा ऐसे ही दो हत्याकांड सामने आए। कई राजनीतिक दलों ने बेअदबी की निंदा तो की, परंतु हत्याओं पर मौन रहे।

यह सर्वविदित है कि पाकिस्तानी सत्ता-अधिष्ठान देश में अपने असंख्य ‘वैचारिक-समर्थकों’ के सहयोग से कश्मीर और पंजाब में मजहबी अलगाववाद को हवा देकर वर्ष 1971 में भारत द्वारा उसके दो टुकड़े (बांग्लादेश का जन्म) करने का बदलना लेना चाहता है। क्षुद्र राजनीतिक कारणों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से घृणा करने वाले समूह, व्यक्ति और राजनीतिक दल (कांग्रेस सहित) प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से पाकिस्तान की ‘बी-टीम’ बनकर उभरे हैं और ‘हजारों घाव देकर भारत को मारने’ के उसके एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं।

इस पृष्ठभूमि में सभी वांछनीय प्रोटोकॉल की स्वीकृति के बाद प्रधानमंत्री मोदी के काफिले को पाकिस्तान सीमा के काफी निकट ‘प्रदर्शनकारियों’ द्वारा कई मिनट तक रोकना, निसंदेह राज्य सरकार के सहयोग बिना संभव नहीं था। प्रश्न यह भी उठता है कि भटिंडा से फिरोजपुर जाते समय प्रधानमंत्री मोदी का काफिला रोकने वाले क्या वाकई किसान थे या वे लोग थे, जो अराजकता फैलाकर पंजाब को पुन: 1980-95 के सांप्रदायिक और अलगाववाद की आग में झुलसाना चाहते हैं?

इस कांड पर मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने अपनी सरकार का बचाव करते हुए कहा, “…मैं किसानों पर गोली चलाने या लाठीचार्ज करने का आदेश नहीं दे सकता था…।” चन्नी की स्थिति कितनी डांवाडोल है, यह उनके द्वारा 20 सितंबर 2021 से प्रदेश का मुख्यमंत्री पद संभालने और तभी से प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू द्वारा उनकी सार्वजनिक छीछालेदर करने से स्पष्ट है। यूं तो कांग्रेस ने घोषणा की है कि वह आगामी विधानसभा चुनाव चन्नी के नेतृत्व में लड़ेगी, किंतु इस पर संदेह है। इसका कारण भी सिद्धू हैं, जिनकी मुख्यमंत्री बनने की महत्वकांक्षा जगजाहिर है और सिद्धू समर्थित कांग्रेसी नेता मुख्यमंत्री चन्नी को केवल अस्थायी व्यवस्था के रूप में देखते हैं। ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री चन्नी को अपनी कुर्सी बचाने के लिए विपक्ष से पहले अपनों की चुनौतियों से निपटना है, जो उनकी राजनीतिक कमजोरी को भी उजागर करती है। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की अनुकंपा से मुख्यमंत्री बने चन्नी ने जिस प्रकार प्रधानमंत्री की सुरक्षा में गंभीर चूक को औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए तर्क दिए हैं, वह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। इस तरह तो किसी भी प्रदेश में सत्तारुढ़ पार्टी इन तर्कों के आधार पर विरोधी दल के नेता की रैली या सभा होने ही नहीं देगी। ऐसे भारत, लोकतंत्र का मंदिर कैसे कहलाएगा?

अब तक का जो इतिहास रहा है, उसमें कांग्रेस सत्ता पाने के लिए- विशेषकर पंजाब में कुछ भी कर सकती है। 1980 के दशक में कांग्रेस अपने प्रतिद्वंदी अकाली दल को हाशिये पर पहुंचाना चाहती थी। तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व का लक्ष्य था कि अकाली दल को सिख समाज से अलग-थलग किया जाए और इसके लिए उसने चरमपंथी तत्वों को प्रोत्साहन देते हुए जरनैल सिंह भिंडरावाले को बढ़ावा देना शुरू किया। तब शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी चुनाव में कांग्रेस ने भिंडरावाले समर्थक उम्मीदवारों का समर्थन भी किया। कांग्रेस की चाल थी कि पंजाब में ऐसा सांप्रदायिक वातावरण बनाया जाए कि अकाली या तो अप्रासंगिक हो जाएं या फिर खालिस्तानियों से प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की होड़ में स्वत: भस्म हो जाएं, जिससे पंजाब की राजनीति में उसका एकाधिकार रहे। तब कांग्रेस के शीर्ष नेताओं (राजीव गांधी और ज़ैल सिंह सहित) द्वारा कई अवसरों पर भिंडरावाले को ‘संत’ कहकर संबोधित किया जाने लगा।

उन दिनों जब भिंडरावाले ने अपने एक दर्जन से अधिक हथियारबंद साथियों के साथ बस की छत पर बैठकर दिल्ली का चक्कर लगाया था, तब इस पर पूछे गए प्रश्न पर पार्टी के तत्कालीन महामंत्री राजीव गांधी ने मुस्कुराते हुए कहा था कि संतों पर साधारण कानून-नियम लागू नहीं होते हैं। तब कांग्रेस के समर्थन से भिंडरावाले और अन्य खालिस्तानियों ने स्वर्ण मंदिर में अपना डेरा डाल लिया, जिसके बाद देशभक्त सिखों का वहां आना-जाना कष्टप्रद हो गया। स्थिति इतनी विकराल हो गई कि हिंदुओं के बाद गुरुनानक देवजी और अन्य गुरुओं की सिख परंपराओं का अनुसरण करने वालों को भी चुन-चुनकर सरेआम मौत के घाट उतारा जाने लगा, जिसमें वे हिंदू-सिख महिलाओं का बलात्कार करने में भी संकोच नहीं करते थे।

तात्कालिक राजनीतिक लाभ पाने हेतु तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जिन्न को तो बंद बोतल से बाहर आसानी से निकाल लिया था, किंतु न तो उस पर नियंत्रण रख पाईं और न ही उसे दोबारा बोतल में कैद कर पाईं। तब सरकार सैन्य ऑपरेशन ब्लूस्टार के लिए बाध्य हुई, जिसमें कितने निरपराध सिख मारे गए थे, उसका आंकलन शायद ही कोई कर पाए। परिणामस्वरूप, 31 अक्टूबर 1984 को दिल्ली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख सुरक्षाकर्मियों ने गोली मारकर नृशंस हत्या कर दी। इसके बाद दिल्ली, उससे सटे क्षेत्रों और देश के अन्य भागों में सिखों का कांग्रेस समर्थित भीड़ द्वारा प्रायोजित नरसंहार हुआ। तब इस हिंसक प्रतिक्रिया को न्यायोचित ठहराते हुए राजीव गांधी ने “जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती है” वक्तव्य दिया था। तब इस घटनाक्रम के बाद तत्कालीन कांग्रेस के लोकसभा सांसद कैप्टन अमरिंदर सिंह, जो कि सेवानिवृत सैन्य अधिकारी भी हैं- उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया।

जब वर्ष 2020-21 में कथित किसान आंदोलन को पाकिस्तान सहित अन्य देशविरोधी शक्तियों के साथ खालिस्तानी तत्वों ने हाईजैक करने का प्रयास किया, तो कांग्रेस आदि स्वघोषित सेकुलर पार्टियों न् उन्हें मोदी-विरोध के नाम पर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से समर्थन देना प्रारंभ कर दिया। इससे चिंतित कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस से पुन: इस्तीफा देकर भाजपा से गठबंधन किया है। सच तो यह है कि कांग्रेस अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं ले रही है- इसका प्रमाण खालिस्तानी भिंडरावाले का महिमामंडन करने वाले एक पंजाबी गायक को पार्टी में शामिल करना और प्रधानमंत्री मोदी की सुरक्षा को दांव पर लगाना है। प्रश्न उठता है कि क्या पंजाब की शांति दोबारा अलगाववादी-अवसरवादी राजनीति की भेंट चढ़ेगी? इसका उत्तर- शायद पंजाब की जनता के पास है।

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *