पहला टुकड़ा – पूर्वी पाकिस्तान / 4

पहला टुकड़ा - पूर्वी पाकिस्तान / 4

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प्रशांत पोळ

पहला टुकड़ा - पूर्वी पाकिस्तान / 4पहला टुकड़ा – पूर्वी पाकिस्तान / 4

अवामी लीग की जीत के कारण समूचे राष्ट्रीय चुनावों को नकारने की बड़ी संतप्त प्रतिक्रिया पूर्व बंगाल में हुई। लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई सरकार को नकारना किसी को भी हजम नहीं हो रहा था। पूर्वी बंगाल की जनता सड़कों पर उतरी। छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ। लोगों ने प्रशासन व्यवस्था मानो ठप्प कर दी। 7 मार्च, 1971 की रामन्ना रेसकोर्स मैदान की ऐतिहासिक सभा में बंगबंधु मुजीबुर्र रहमान ने घोषित किया कि ‘अब हमारा संघर्ष स्वतंत्रता के लिए है। हमें लड़ना है। हर एक घर को किला जैसा बनाकर लड़ो’। 7 मार्च से 25 मार्च, 1971 तक पूर्वी बंगाल पर मानो अवामी लीग का ही राज था। इस जबरदस्त आंदोलन को दबाने के लिए याह्या खान ने ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ शुरू किया। जनरल साहबजादा याकूब खान को हटाकर, जनरल टिक्का खान को पूर्वी पाकिस्तान का प्रभारी बनाया। यह दिन था 25 मार्च 1971 और बस, यहीं से पाकिस्तान का टूटना प्रारंभ हुआ।

25 मार्च को याह्या खान ने पूर्वी पाकिस्तान में मार्शल लॉ लगाया। अवामी लीग पर प्रतिबंध लगाया। मुजीबुर्र रहमान समेत अनेक अवामी लीग के नेताओं को गिरफ्तार किया और सेना को बलपूर्वक आंदोलन को कुचलने का आदेश दिया। दूसरे ही दिन, अर्थात शुक्रवार 26 मार्च को जेल मे बंद मुजीबुर्र रहमान का वक्तव्य प्रसारित हुआ, ‘यह शायद मेरा अंतिम संदेश है। आज से हमारा बांग्ला देश स्वतंत्र देश है। मैं बांग्ला देश के सभी नागरिकों से अपील करता हूं कि पाकिस्तानी सेना से पूरी ताकत के साथ संघर्ष करें। पाकिस्तानी सेना का अंतिम जवान, हमारी भूमि से जाने तक, हमारा संघर्ष जारी रहेगा। अंतिम विजय हमारी ही होगी।’

26 मार्च के बाद के 8 महीने 2 सप्ताह और 6 दिन, यह पूर्वी बंगाल (वर्तमान के बांग्ला देश) के इतिहास में सबसे दुर्दांतक होंगे। पाकिस्तानी सेना ने आतंक का ऐसा कोहराम मचाया कि बड़े-बड़े खूंखार तानाशाह भी शरमा जाएं।

26 मार्च को ही ढाका यूनिवर्सिटी के जगन्नाथ हाल में, जो हिन्दू विद्यार्थियों का बड़ा छात्रावास था, घुसकर पाकिस्तानी सेना के जवानों ने सभी के सभी हिन्दू विद्यार्थियों को बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतारा। एक भी हिन्दू विद्यार्थी बच न सका। लगभग 30 लाख बांग्ला भाषिक इस दमन चक्र में मारे गए, जिनमें 80 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दू थे। यह हिन्दुओं का वंशविच्छेद (Genocide) था। लाखों स्त्रियों की इज्जत से खिलवाड़ हुआ। उन पर बर्बरतापूर्वक बलात्कार हुए। बांग्लादेश के दस्तावेजों के अनुसार, लगभग दो लाख महिलाओं का बलात्कार किया गया, जिसके कारण, युद्ध के बाद हजारों युद्ध के बच्चे (war children) पैदा हुए। डेढ़ करोड़ से अधिक लोग भारत में पलायन कर गए। इनमें एक करोड़ दस लाख हिन्दू थे।

(दुर्भाग्य से, भारत सरकार ने १९७१ में हुए इस हिन्दू नरसंहार (genocide) की घटना और उसके गांभीर्य को भारत की जनता से छुपाकर रखा। तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह का कहना था, “In India, we have tried to cover that up.” अर्थात ‘भारत में हमने इसको दबा दिया’, उन दिनों सोवियत रशिया में भारत के राजदूत थे, पीएन धर। इन्होंने लिखा है, “Decried the Pakistan army’s ‘preplanned policy of selecting Hindus for butchery,’ but fearing inflammatory politicking from ‘rightist reactionary Hindu chauvinist parties like Jana Sangh’, we were doing our best not to allow this aspect of the matter to be publicized in India.” अर्थात धर कहते हैं, “हिन्दुओं के इस भयानक नरसंहार के समाचार भारत में फैले, तो ‘जनसंघ’ जैसी दक्षिणपंथी पार्टी को लाभ होगा। इसलिए हमने इन समाचारों को भारत में प्रकाशित होने से रोकने का पूरा प्रयास किया हैं।”)

अमेरिका अपने आपको विश्व में लोकतंत्र का सबसे बड़ा रक्षक मानता है। सन 1971 में भी मानता था। किंतु अमेरिका और उसके राष्ट्रपति निक्सन ने पाकिस्तान की भर्त्सना या निंदा करना तो दूर, पाकिस्तान की भरपूर मदद की।

उन दिनों ढाका के अमेरिकन वाणिज्य दूतावास में प्रमुख पद पर कार्यरत ‘आर्चर ब्लड’, यह सब देख रहे थे। पूर्वी बंगाल के लोगों पर, विशेषता हिन्दुओं पर, इतने भयानक और पैशाचिक अत्याचार हो रहे हैं, और अमेरिका शांत बैठा है, यह बात उन्हें बेचैन कर रही थी। उस पर से जब उन्होंने देखा कि अमेरिकी विमानों से पाकिस्तानी सैनिकों की आवाजाही हो रही है, और पाकिस्तानी सैनिक, अमेरिकी शस्त्रों से हिन्दुओं का जीनोसाइड कर रहे हैं, तब उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने अमेरिकी प्रशासन को एक लंबा चौड़ा टेलीग्राम भेजा। अमेरिकी मीडिया में और इतिहास में यह ‘द ब्लड टेलीग्राम’ नाम से प्रसिद्ध है।

दुर्भाग्य से 1977 के बीच, अमेरिका के चीन के साथ संबंध अत्यंत तनावपूर्ण थे। अमेरिका, रशिया के साथ चीन को भी दुश्मन के रूप में खड़ा देखना नहीं चाहता था। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति, चीन के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाना चाहते थे। इसके लिए उनको आवश्यकता थी, किसी मध्यस्थ की। पाकिस्तान इस भूमिका में बिल्कुल फिट था। पाकिस्तान के जनरल याह्या खान के, चीनी नेतृत्व के साथ अच्छे संबंध थे। स्वाभाविक था कि अमेरिका, याह्या खान को नाराज नहीं करना चाहता था। अमेरिका ने अपने स्वार्थ के लिए पाकिस्तान को पूरा साथ दिया, पूर्वी बंगाल के हिंदुओं का जीनोसाइड करने में भी..!

उधर भारत की स्थिति कठिन बनते जा रही थी। डेढ़ करोड़ से ज्यादा बांग्ला भाषिक, भारत में शरणार्थी के रूप में रह रहे थे। देश में वर्षा कम हुई थी। अकाल का वातावरण बन रहा था। ऐसे में इतने ज्यादा शरणार्थियों को लंबे समय तक पालना – पोसना, भारत की अर्थव्यवस्था को चौपट करने वाली बात थी। इधर पाकिस्तान आत्मविश्वास से फूला जा रहा था। अमेरिका का समर्थन उसके लिए वरदान साबित हो रहा था।

पाकिस्तानी सेना में शामिल पूर्व बंगाल के जवानों ने, पूर्व बंगाल के विद्यार्थियों ने और आम नागरिकों ने मिलकर ‘मुक्ति वाहिनी’ (মুক্তি বাহিনী) का गठन किया। स्वतंत्र बांग्ला देश के लिए संघर्षरत इस सेना ने, पाकिस्तानी सेना की नाक में दम कर रखा था। मुक्ति वाहिनी के सैनिक, गुरिल्ला पद्धति से, छापामार शैली से, पाकिस्तान की सेना पर आक्रमण करते थे। इन जवानों को, भारतीय सेना द्वारा प्रशिक्षण दिया जा रहा था।

25 मार्च 1971 के बाद, पूर्वी बंगाल पश्चिमी पाकिस्तान के विरोध का धधकता ज्वालामुखी बन गया था। सारा पूर्वी बंगाल, पाकिस्तानी सेना और प्रशासन के विरोध में खड़ा था। पश्चिमी पाकिस्तान के राजनयिक, पाकिस्तान के इस विभाजन को रोकने की पुरजोर कोशिश में लगे थे। किन्तु स्थिति उनके नियंत्रण के बाहर थी।

इसी बीच, अमेरिकी समर्थन के कारण पाकिस्तान अति आत्मविश्वास में डूबा था। इसी के चलते, पाकिस्तान ने 3 दिसंबर 1971 को भारत के उत्तरी सीमा पर हमला बोल दिया। शायद भारत यही चाहता था। भारत ने भी उत्तरी और पूर्वी सीमा पर, पाकिस्तान से युद्ध छेड़ दिया। मुक्ति वाहिनी के साथ, अब भारत, अधिकृत रूप से पाकिस्तानी फौजों से लड़ रहा था। पाकिस्तान ने ढाका में जनरल अमीर अब्दुल खान नियाजी को नियुक्त किया था। ये पूर्वी पाकिस्तान के ‘चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर’ थे। पाकिस्तानी फौजों को पूर्वी बंगाल के एक – एक गांव, एक – एक शहर में कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था।

यह युद्ध 13 दिन चला। पाकिस्तान को दोनों मोर्चों पर जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा। 16 दिसंबर 1971 को, जनरल अमीर अब्दुल खान नियाजी ने, भारत के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने, अपने 93,000 सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण किया। विश्व के इतिहास में, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किया हुआ यह सबसे बड़ा आत्मसमर्पण है।

और इसी लज्जास्पद, अपमानजनक और शर्मनाक आत्मसमर्पण के साथ, पाकिस्तान का यह सबसे बड़ा राज्य, उससे अलग होकर, टूटकर, ‘बांग्लादेश’ नाम के राष्ट्र के रूप में खड़ा हुआ..! इस युद्ध के जननायक, जिनस् पाकिस्तान सबसे अधिक घृणा करता था, शेख मुजीबुर्र रहमान, बांग्ला देश के पहले राष्ट्रपति बने। इस जबरदस्त हार से, पाकिस्तान मानो अवसाद की स्थिति में पहुंच गया..!

पाकिस्तान का टूटना प्रारंभ हो गया था..!
(क्रमशः)

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