फिल्म भोंसले (2020)
फिल्म समीक्षा
डॉ. अरुण सिंह
देवाशीष मखीजा द्वारा निर्देशित फिल्म भोंसले (2020) मुंबई महानगर में उत्तर भारतीयों के बहुतायत में प्रवास से उपजे संघर्ष पर आधारित है। क्षेत्रवाद की समस्या इस महानगर में दशकों से रही है। क्षेत्रवाद प्रवसियों और मराठी लोगों के बीच घृणा और शत्रुता का कारण बनता है। पंरतु कुछ अपवाद भी हैं जो सामाजिक सौहार्द्र की मिसाल बनते हैं।
भोंसले पुलिस विभाग से सेवानिवृति के पश्चात एकाकी जीवन जीता है। उसकी “खोली” ही उसका संसार है। वह सेवा विस्तार हेतु आवेदन करता है। आज की निम्नवर्गीय महानगरीय जीवन शैली को भी सूक्ष्मता से पर्दे पर उतारा गया है। मनुष्य की सोच और समाज के प्रति दृष्टिकोण उसके परिवेश से ही निकलते हैं। विपरीत परिस्थितियों में व्यक्तित्व का निर्माण होता है। अपने व्यक्तिगत प्रयोजनों की पूर्ति के लिए कुछ मोहरे हिंसा व अपराध करने से भी नहीं कतराते। ऐसे लोग समाज में विध्वंस उत्पन्न करते हैं। इसी विध्वंस से लड़ने हेतु भोंसले जैसे प्रबुद्ध नागरिकों की आवश्यकता पड़ती है। फ़िल्म में पता चलता है कि इस तरह की राजनीति की समाज में एक पदसोपान व्यवस्था है। विलास और राजेंद्र दोनों ही इस कुत्सित, क्षेत्रवादी राजनीति के मोहरे हैं। और इसी क्षेत्रवादी राजनीति से कुछ नेताओं की समाज-भंजक दुकानें चलती हैं।
ऐसे सामाजिक विष को सीता और लालू जैसे युवा एवं किशोर अपने सौहार्द्र और मानवता के अमृत से परास्त करते हैं। विलास गणेश चतुर्थी के पर्व में उत्तर भारतीय लोगों को शामिल नहीं करना चाहता। वाचनालय में केवल मराठी समाचार पत्र उपलब्ध करवाता है। राजेन्द्र उत्तर भारतीय है, पंरतु वह इस खाई को विस्तार देने का ही काम करता है। फ़िल्म के अंत में भगवान गणेश की विखंडित प्रतिमा का विसर्जन प्रतीकात्मक रूप से दिखाता है कि पारस्परिक सद्भाव का विध्वंस सनातन धर्म के मर्म पर कलंक है।