बंगाल हिंसा : हमें अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होगी
प्रणय कुमार
सरकारों के दम पर न तो कभी कोई लड़ाई लड़ी जाती है और न जीती जाती है। सभ्यता के सतत संघर्ष में अपने-अपने हिस्से की लड़ाई या तो स्वयं या संगठित समाज-शक्ति को ही लड़नी होगी। यह कहना बिलकुल दुरुस्त है कि जो समाज गोधरा जैसी नृशंसता की प्रतिरक्षा में प्रत्युत्तर देने की शक्ति रखता है, वही अंततः अपना अस्तित्व बचा पाता है।
“ध्रुवीकरण के कारण पश्चिम बंगाल में हिंसा हो रही है, लोग मारे जा रहे हैं, महिलाएँ दुष्कर्म की शिकार हो रही हैं।” ऐसा विश्लेषण करने वालों से मेरा सीधा सवाल है कि यदि आपकी बहन-बेटी-पत्नी को सामूहिक दुष्कर्म जैसी नारकीय यातनाओं से गुज़रना पड़ता, यदि आपके किसी अपने को राज्य की सत्ता से असहमत होने के कारण प्राण गंवाने पड़ते, क्या तब भी आपका ऐसा ही विश्लेषण होता?
सोचकर देखिए, आप ‘सामूहिक दुष्कर्म’ जैसे शब्द सुन भी नहीं सकते, उन्होंने भोगा है। बोलने से पहले सोचें। कुछ बातों का राजनीति से ऊपर उठकर खंडन करना सीखें। बौद्धिकता का यह दंभ सनातनी-समाज की सबसे बड़ी दुर्बलता है। ”नहीं जी, मैं उससे अलग हूँ। कि मैं तो भिन्न सोचता हूँ। कि मैं तो मौलिक चिंतक हूँ। कि मैं तो उदार हूँ। देखो, मैं तो तुम्हारे साथ हूँ, उनके साथ नहीं…. आदि-आदि!”
जुनूनी-मज़हबी भीड़ यह नहीं सोचती कि आप किस दल के समर्थन में थे? कि आप उनके साथ खड़े थे! आपको निपटाने के लिए आपका सनातनी होना ही पर्याप्त होगा? कश्मीरी पंडित किस ध्रुवीकरण के कारण मारे और खदेड़ दिए गए? वहाँ किसने उकसाया था? पाकिस्तान और बांग्लादेश में लाखों लोग किस ध्रुवीकरण के कारण काट डाले गए? मोपला, नोआखली के नरसंहार क्या ध्रुवीकरण की देन थे? भारत-विभाजन क्या ध्रुवीकरण के कारण हुआ? क्या उस ध्रुवीकरण में सनातनियों की कोई भूमिका थी? गाँधी क्या ध्रुवीकरण कर रहे थे? क्या वे केवल बहुसंख्यकों के नेता थे? ग़जनी, गोरी, अलाउद्दीन, औरंगजेब, नादिरशाह, तैमूर लंग जैसे तमाम हत्यारे शासक और आक्रांता क्या ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया में हिंदुओं-सनातनियों का नरसंहार कर रहे थे?
काशी-मथुरा-अयोध्या-नालंदा-सोमनाथ का विध्वंस क्या ध्रुवीकरण के परिणाम थे? यक़ीन मानिए, इससे निराधार और अतार्किक बातें आज तक नहीं सुनी गईं!
सच तो यह है कि ऐसा विश्लेषण करने वाले विद्वान या तो कायर हैं या दोहरे चरित्र वाले! किसी-न-किसी लालच या भय में उनमें सच को सच कहने की हिम्मत नहीं! बल्कि जो लोग दलगत राजनीति से ऊपर उठकर पश्चिम बंगाल की हिंसा, अराजकता, लूटमार, आगजनी, सामूहिक दुष्कर्म जैसे नृशंस एवं अमानुषिक कुकृत्यों पर एक वक्तव्य नहीं जारी कर सके, अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर ऐसे कुकृत्यों का पुरजोर खंडन नहीं कर सके, वे भी ऊँची मीनारों पर खड़े होकर मोदी-योगी-भाजपा को ज्ञान दे रहे हैं। यदि किसी को लाज भी न आए तो क्या उसे निर्लज्जता की सारी सीमाएँ लाँघ जानी चाहिए! मुझे कहने दीजिए कि ढीठ और निर्लज्ज हैं आप, इसलिए पश्चिम बंगाल की राज्य-पोषित हिंसा पर ऐसी टिप्पणी, ऐसा विश्लेषण कर रहे हैं।
हिंसा पाप है। पर कायरता महापाप है। कोई भी केंद्रीय सरकार या प्रदेश सरकार भी आपकी हमारी बहन-बेटी-पत्नी की मर्यादा बचाने के लिए, चौबीसों घंटे हमारी जान की सुरक्षा के लिए पहरे पर तैनात नहीं रह सकती। उस परिस्थिति में तो बिलकुल भी नहीं, जब किसी प्रदेश की पूरी-की-पूरी सरकारी मशीनरी राज्य की सत्ता के विरोध में मत देने वालों से बदले पर उतारू हो! इसलिए आत्मरक्षा के लिए हमें-आपको ही आगे आना होगा। भेड़-बकरियों की तरह ज़ुनूनी-उन्मादी-मज़हबी भीड़ के सामने कटने के लिए स्वयं को समर्पित कर देना महा कायरता है! इससे जान-माल की अधिक क्षति होगी। इससे मनुष्यता का अधिक नुकसान होगा। शांति और सुव्यवस्था शक्ति के संतुलन से ही स्थापित होती है।
जो कौम दुनिया को बाँटकर देखती है, उनके लिए हर समय ग़ैर-मज़हबी लोग एक चारा हैं! जिस व्यवस्था में उनकी 30 प्रतिशत भागीदारी होती है, उनके लिए सत्ता उस प्रदेश को एक ही रंग में रंगने का मज़बूत उपकरण है। गज़वा-ए-हिंद उनका पुराना सपना है। वे या तो आपको वहाँ से खदेड़ देना चाहेंगे या मार डालना। लड़े तो बच भी सकते हैं। भागे तो अब समुद्र में डूबने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा!
हम सनातनियों की सबसे बड़ी दुर्बलता है कि हम हमेशा किसी-न-किसी अवतारी पुरुष या महानायक की बाट जोहते रहते हैं। ईश्वर से गुहार लगाते रहते हैं। आगे बढ़कर प्रतिकार नहीं करते, शिवा-महाराणा की तरह लड़ना नहीं स्वीकार करते! यदि जीना है तो मरने का डर छोड़ना पड़ेगा।
इसलिए यह कहना बिलकुल दुरस्त है कि जो समाज गोधरा जैसी नृशंसता की प्रतिरक्षा में प्रत्युत्तर देने की शक्ति रखता है, वही अंततः अपना अस्तित्व बचा पाता है। सरकारों के दम पर कभी कोई लड़ाई नहीं लड़ी व जीती जाती! सभ्यता के सतत संघर्ष में अपने-अपने हिस्से की लड़ाई या तो स्वयं या संगठित समाज-शक्ति को ही लड़नी होगी।
मुट्ठी भर लोग देश के संविधान, पुलिस-प्रशासन, क़ानून-व्यवस्था को ठेंगे पर रखते आए हैं, पर हम-आप केवल अरण्य-रोदन रोते रहे हैं! संकट में घिरने पर इससे-उससे प्राणों की रक्षा हेतु गुहार लगाते रहे हैं! बात जब प्राणों पर बन आई हो तो उठिए, लड़िए और मरते-मरते भी असुरों का संहार कीजिए। आप युद्ध में हैं, युद्ध में मित्रों की समझ भले न हो, पर शत्रु की स्पष्ट समझ एवं पहचान होनी चाहिए। याद रखिए, युद्ध में किसी प्रकार की द्वंद्व-दुविधा, कोरी भावुकता-नैतिकता का मूल्य प्राण देकर चुकाना पड़ता है! इसलिए उठिए, लड़िए और अंतिम साँस तक आसुरी शक्तियों का प्रतिकार कीजिए। हमारे सभी देवताओं ने असुरों का संहार किया है। आत्मरक्षा हेतु प्रतिकार करने पर कम-से-कम आप पर हमलावर समूह में यह भय तो पैदा होगा कि यदि उन्होंने सीमाओं का अतिक्रमण किया, अधिक दुःसाहस किया या जोश में होश गंवाया तो उनके प्राणों पर भी संकट आ सकता है!