बंटवारा जो हम भूले नहीं

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बलबीर पुंज

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बीते मंगलवार (15 अगस्त) भारत ने अपना 77वां स्वाधीनता दिवस हर्षोल्लास के साथ मनाया। निसंदेह, यह दिन भारतीय इतिहास का एक मील का पत्थर है। परंतु इसके साथ विभाजन की दुखद स्मृति भी जुड़ी हुई है। विश्व के इस भूक्षेत्र का त्रासदीपूर्ण बंटवारा, कोई एकाएक या तत्कालीन मुस्लिम समाज के किसी तथाकथित उत्पीड़न का परिणाम नहीं था। इसके लिए उपनिवेशी ब्रितानियों के साथ जिहादी मुस्लिम लीग और भारत-हिंदू विरोधी वामपंथियों ने अपने-अपने एजेंडे की पूर्ति हेतु एक ऐसा वैचारिक अधिष्ठान तैयार किया था, जिसने कालांतर में भारत को तीन टुकड़ों में विभाजित कर दिया। यह देश में पिछले 100 वर्षों की सबसे बड़ी सांप्रदायिक घटना थी। दुर्भाग्य से इसकी विषबेल खंडित भारत में अब भी न केवल जीवित है, साथ ही वह देश की राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता और अखंडता के लिए चुनौती भी बनी हुई है।

भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान कैसे उभरा? इसका उत्तर इस इस्लामी देश की सरकारी वेबसाइटों और स्कूली पाठ्यक्रम में सहज रूप से मिल जाता है। पाकिस्तानी सरकारें वर्ष 712 में अरब आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम द्वारा सिंध के तत्कालीन हिंदू राजा दाहिर की पराजय को ‘पाकिस्तान निर्माण’ का प्रारंभिक बिंदु बताती हैं। कासिम के बाद जिन आक्रमणकारियों— गजनवी, गौरी, खिलजी, बाबर, औरंगजेब और टीपू सुल्तान आदि ने भारत में इस्लाम के नाम पर मजहबी उत्पात मचाया, वे सभी पाकिस्तान के लिए न केवल नायक हैं, अपितु प्रेरणास्रोत भी हैं। भारत का एक वर्ग (हिंदी फिल्म निर्माता-अभिनेता सहित) इन्हीं आक्रांताओं को राष्ट्र निर्माता के तौर पर प्रस्तुत करता है।

यही नहीं, 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में सर सैयद अहमद खां ने अपने भाषणों से तत्कालीन मुस्लिम समाज में अलगाववाद का बीजारोपण किया था। उन्होंने अपने द्वारा स्थापित ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ के अंतर्गत, मजहबी कारणों से हिंदू-सिख-जैन-बौद्ध को अलग राष्ट्र बताया और उनके साथ बराबरी का दर्जा साझा करने से इनकार कर दिया। पाकिस्तान में कई भवनों-मार्गों का नाम सर सैयद को समर्पित है। विडंबना है कि खंडित भारत में न केवल उनके द्वारा स्थापित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जिसने पाकिस्तान आंदोलन में एक बड़ी भूमिका निभाई थी— वह अब भी विद्यमान है, साथ ही एक विकृत कुनबा सर सैयद का इस्लामी कारणों से यशगान भी करता है।

इसी सूची में मुहम्मद इकबाल भी शामिल हैं। मुस्लिम लीग के प्रयागराज अधिवेशन (1930) में इकबाल ने ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ को आगे बढ़ाते हुए भारत में पृथक् मु‌स्लिम देश का दर्शन प्रस्तुत किया था। इकबाल, पाकिस्तान के घोषित राष्ट्र-कवि हैं। खंडित भारत में मार्क्स-मैकॉले चिंतक, इकबाल को दार्शनिक और कवि के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इसके लिए वे इकबाल द्वारा 1904 में लिखित ‘तराना-ए-हिंद’— “सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलसितां हमारा…” को आधार बनाते हैं। परंतु यही समूह इकबाल द्वारा इसी ‘तराना-ए-हिंद’ के जिहादी रूपांतरण ‘तराना-ए-मिल्ली’ को छिपा देता है, जिसमें उन्होंने लिखा था— “चीन-ओ-अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा, मु‌सलिम हैं हम वतन हैं, सारा जहाँ हमारा… दुनिया के बुत-कदों में पहला वो घर खुदा का, हम इसके पासबां हैं, वो पासबां हमारा…”। इसी जिहादी चिंतन को इकबाल ने अपनी मृत्यु तक सींचा।

कालांतर में कैंब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़े चौधरी रहमत अली और उनके साथियों ने वर्ष 1933 को ‘नाऊ और नेवर’ (now or never) शीर्षक से एक पत्रक प्रस्तुत किया, जिसमें पहली बार पाकिस्तान शब्द का उपयोग हुआ था। यूं तो पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना हैं, परंतु 1937 से पहले उन्हें मुस्लिमों ने अपना रहनुमा नहीं माना। इसका कारण उनका व्यक्तिगत जीवन इस्लाम विरोधी था। वे शूकर-मांस और शराब का सेवन करते थे। उनकी पत्नी रत्तनबाई पेटिट, जो कि पारसी समुदाय से थीं, वह इस्लामी बंधनों से मुक्त रहीं। परंतु जैसे ही जिन्ना ने इकबाल के गृह युद्ध संबंधित आह्वान पर हिंदू-विरोधी विष-वमन शुरू किया, वे एकाएक तत्कालीन भारतीय मुस्लिम समाज के नेता बन गए और देखते ही देखते भारत का रक्तरंजित विभाजन हो गया।

एक नैरेटिव बनाया जाता है कि तत्कालीन दौर में मुस्लिम लीग को सभी मुसलमानों का साथ नहीं मिला। इस छलावे को 1946 का प्रांतीय चुनाव ध्वस्त कर देता है। इसमें मुस्लिम लीग ने जिन 492 मु‌स्लिम आरक्षित सीटों में अपने प्रत्याशी खड़े किए थे, उनमें 87 प्रतिशत— 429 सीटें जीत में परिवर्तित हुई थीं। इसका अर्थ यह हुआ कि अविभाजित भारत में मु‌स्लिम समाज का बहुत बड़ा वर्ग पाकिस्तान के पक्ष में था। तब स्वयं जिन्ना बायकुला सीट (मुंबई) से चुनाव लड़कर भारी मतों से विजयी हुए थे। तब मुस्लिम लीग के जो नेता पाकिस्तान के लिए आंदोलित थे, उनमें से कई विभाजन के बाद न केवल भारत में रुक गए, अपितु वे भारतीय संविधान सभा से लेकर संसद सदस्य के रूप में निर्वाचित भी हो गए। ऐसे समूह की मानसिकता पर स्वतंत्र भारत के प्रथम गृहमंत्री और उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने 3 जनवरी 1948 की कलकत्ता सभा में प्रश्न भी उठाया था।

यह रोचक है कि वर्ष 1938 की पीरपुर रिपोर्ट के बाद जिन विशेषणों— ‘फासीवादी’, ‘मुस्लिम-विरोधी’, ‘गौरक्षक’, ‘जबरन हिंदी थोपने’ आदि का उपयोग करके मुस्लिम लीग और वामपंथियों ने तत्कालीन कांग्रेस को ‘सांप्रदायिक’ घोषित करने और विभाजन के लिए प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप जिम्मेदार ठहराने का प्रयास किया था, वही जुमले स्वतंत्रता के बाद कालांतर में भारतीय जनता पार्टी (जनसंघ सहित) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए आरक्षित कर दिए गए। इसमें वामपंथी-जिहादी कुनबे को कांग्रेस रूपी स्वघोषित सेकुलर दलों का साथ मिल रहा है।

यह ठीक है कि हमने अपनी स्वतंत्रता की 77वीं वर्षगांठ मनाई। भारत अपनी सनातन पहचान पर गौरव करने के साथ दिनोंदिन प्रगति के नए आयाम भी गढ़ रहा है। हमारा देश दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, तो चौथी बड़ी सामरिक शक्ति है। परंतु हमें यह याद रखना चाहिए कि 11वीं शताब्दी से सांस्कृतिक भारत का आकार सिकुड़ रहा है। विगत एक हजार वर्षों में जिन भारतीय क्षेत्रों से सनातन संस्कृति का ह्रास हो चुका है और वहां अब इस्लाम का कब्जा है— उन स्थानों से बहुलतावाद, मानवता, लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता का नामोनिशान शत-प्रतिशत मिट गया है। यदि यह स्थिति ऐसी ही जारी रही, तो इस भूखंड की मूल बहुलतावादी पहचान पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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