बंदा बैरागी का राष्ट्र अनुराग

बंदा बैरागी का राष्ट्र अनुराग

तृप्ति शर्मा

वीर बंदा बैरागी की पुण्यतिथि

बंदा बैरागी का राष्ट्र अनुरागबंदा बैरागी का राष्ट्र अनुराग

राष्ट्र निर्माण में नींव की ईंट बने करोड़ों बलिदानियों में से एक हैं बंदा बैरागी। इतिहास के पृष्ठों में भले ही उन्हें उचित स्थान नहीं मिला, परंतु करोड़ों देश भक्तों के हृदय में उनका बलिदान आज भी जोश भर देता है। आज 9 जून को राष्ट्र उनकी पुण्यतिथि पर उनके निःस्वार्थ देश प्रेम और त्याग को स्मरण कर श्रद्धान्वित है।

बंदा बैरागी का जन्म 27 अक्टूबर 1670 में ग्राम तच्छल किला पुंछ में हुआ था। उनके बचपन का नाम लक्ष्मण दास था। 15 साल की आयु में उन्होंने तपस्वी बनने के लिए घर छोड़ दिया।इसके बाद उन्हें माधो दास बैरागी नाम दिया गया। उन्होंने गोदावरी नदी के तट पर नांदेड़ (महाराष्ट्र) में एक मठ की स्थापना की। वहां अनेक साधुओं के साथ योग साधना सीखी और ईश्वर की आराधना में लीन हो गए। 

इसी समय सन् 1708 में गुरु गोविंद सिंह माधो दास से मिलने आए और उन्हें उपदेश दिया। तत्कालीन भारतीय जनता की दशा से उन्हें अवगत करवाया। मुगलों द्वारा हिंदुओं को दी जाने वाली दारुण यातनाएं तथा स्वयं के दो पुत्र, पांच और नौ वर्ष के नन्हें वीर बालकों की दीवार में चिन कर की गई निर्मम हत्या के बारे में बताया। ऐसे कठिन समय में वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त आतंक से जूझने का उपदेश दिया। गुरु गोविंद सिंह ने कहा कि राष्ट्रवाद की भावना के बिना अध्यात्म निष्फल है। माधो दास का सुप्त देश प्रेम और शौर्य जागृत हो उठा। गुरु गोविंद के साथ इस भेंट ने माधो दास का जीवन बदल दिया। अब वे वीर बंदा बहादुर बन गए, जिनका हृदय मुगलों द्वारा दी जाने वाली यातनाएं झेल रहे लोगों को अन्याय से छुटकारा दिलाने के लिए तड़प उठा और वे गुरु जी के आदेश अनुसार पंजाब आ गए। गुरु जी ने उनको आगे की लड़ाई के लिए आशीर्वाद के रूप में पांच तीर दिए।

बंदा बैरागी ने 1710 में अद्भुत शौर्य का परिचय देते हुए सरहिंद को जीत लिया और लाहौर व अमृतसर तक अपनी सीमाएं विस्तृत कर लीं। बंदा बहादुर ने गुरु गोविंद सिंह से प्रेरित होकर मुगलों के अजेय होने का भ्रम तोड़ा और सबसे पहले उन्होंने गुरु तेग बहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद का सिर काटा। दोनों साहबजादों के बलिदान का बदला लिया। जिन हिंदू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया, बंदा बहादुर ने उनको भी नहीं छोड़ा। गुरु गोविंद सिंह द्वारा संकल्पित प्रभु सत्ता “खालसा राज” की स्थापना करके किसानों को उनकी संपत्ति का मालिकाना अधिकार दिलवाया। गुरुओं के नाम के सिक्के व मोहरें भी चलवाईं।

उनसे भयभीत बादशाह फर्रूखसियर की शाही फौज ने 1715 ईस्वी में गुरदास नंगल गांव में उनको कई माह तक घेरे रखा। भिन्न-भिन्न तथ्यों के अनुसार विश्वासघात और खाद्य सामग्री की कमी के कारण 7 दिसंबर 1715 को बंदा बैरागी को पकड़ लिया गया और उन्हें लोहे के पिंजरे में डालकर दिल्ली लाया गया। यहां 5 मार्च से 12 मार्च तक प्रतिदिन सौ की संख्या में सिखों की बलि दी जाती रही। 9 जून को बादशाह के आदेश से बंदा बहादुर सिंह तथा उनके मुख्य सहयोगियों को यातनाएं देकर उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए। मरते समय बंदा बहादुर ने कहा कि- मैं तो परमपिता परमेश्वर के हाथ का एक शस्त्र हूं, जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है तब वह मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है।

इस प्रकार वीर बंदा बैरागी अपना नाम सार्थक करते हुए धर्म की रक्षा के लिए बलिदान पथ पर चल दिए।

ऐसे राष्ट्र प्रेमी बैरागी हमारे हृदय में चिरस्मरणीय रहेंगे, जिनके कारण हम आज गर्व से ‘स्वत्व’ का अनुभव कर रहे हैं।

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