बिहार की जातीय जनगणना हिन्दुओं को बांटने का षड्यंत्र
अवधेश कुमार
बिहार की जातीय जनगणना हिन्दुओं को बांटने का षड्यंत्र
बिहार में बहुचर्चित जातीय जनगणना के आंकड़ों का पहला भाग सामने आ गया है। इस आंकड़े को स्वीकार किया जाए तो पूरी जनसंख्या में अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36.01 प्रतिशत, अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी 27.12 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 19.65%, अनुसूचित जनजाति 1.68% और सामान्य वर्ग 15.52% है। अनेक विश्लेषक इसे मंडल आयोग के बाद का अगला स्वाभाविक कदम भी करार दे रहे हैं। अब चूंकि आईएनडीआईए के एजेंडे में राष्ट्रव्यापी जातीय जनगणना है और बिहार की नीतीश सरकार ने महात्मा गांधी की जन्म तिथि 2 अक्टूबर को इसे जारी कर दिया है तो स्पष्ट है कि गठबंधन की अगली बैठक में नीतीश कुमार हीरो होंगे। वैसे कर्नाटक की पूर्व सिद्धारमैया सरकार ने भी गणना कराई थी। संभव है वह भी इसे जारी कर दे। बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने एक्स पर इसे ऐतिहासिक क्षण बताते हुए आगामी समय में सरकार की नीतियों में इसके प्रतिबिंबित होने की बात कही है। इसके साथ कई प्रश्न खड़े होते हैं। एक, जातीय गणना की राजनीति की धारा किस दिशा में जाएगी? क्या इसके आधार पर सरकारी नीतियों में परिवर्तन आएगा? यानी इसमें आए आंकड़ों के अनुसार ही आरक्षण से लेकर कल्याण कार्यक्रमों का अनुपात आवंटित किया जाएगा? सबसे बढ़कर क्या यह सामाजिक न्याय की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदम होगा?
तत्काल देखा जाए तो बीजेपी विरोधी पार्टियों के लिए यह आगामी लोकसभा चुनाव का शायद सबसे बड़ा मुद्दा होगा। ये पार्टियां कह रही हैं कि सामाजिक न्याय की मांग को नरेंद्र मोदी सरकार नकार रही है क्योंकि ये पिछड़े एवं दलितों की विरोधी हैं और इनका लक्ष्य आरक्षण समाप्त करना है। हम जानते हैं कि यह सच नहीं है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक हैसियत दी है। राज्यों को यह अधिकार दिया है कि वे पिछड़ी जातियों की सूची में जातियां शामिल कर सकते हैं। इसके साथ सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़ों यानी ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है। इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि भाजपा आरक्षण विरोधी है। मुख्य धारा की कोई पार्टी इस समय आरक्षण विरोधी नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टियां जाति आधारित आरक्षण की नीति से सहमत नहीं रहीं, लेकिन उन्होंने भी बाद में इसे स्वीकार किया।
समाज की मुख्य धारा में जो पिछड़े व वंचित रह गए उन्हें मुख्य धारा का अंग बनाने के लिए सरकार एवं समाज दोनों स्तरों पर कई न्यायसंगत कदम उठाने की आवश्यकता पड़ती है। आरक्षण इसका एक महत्वपूर्ण औजार है। इसके साथ यह तर्क भी गले उतर सकता है कि आरक्षण जातियों की जनसंख्या के अनुसार दिया जाए। जातीय गणना के पीछे यही मुख्य तर्क है। समाजवाद के महान पुरोधा डॉ. राम मनोहर लोहिया के इस नारे को उद्धृत किया जा रहा है कि जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी और पिछड़े पावें सौ में साठ। यानी लोहिया के सामाजिक न्याय के लक्ष्य को पाने के लिए भी जातीय गणना अपरिहार्य है। दूसरा पक्ष यह है कि अंग्रेजों ने जातीय जनगणना आरंभ की। स्वतंत्रता के बाद पहली सरकार ने तय किया कि केवल अनुसूचित जाति-जनजाति की गणना होगी, अन्य की नहीं क्योंकि अंग्रेजों ने समाज में फूट डालो और राज करो नीति के अंतर्गत जातीय जनगणना करवाई थी। क्या स्वतंत्रता संघर्ष से निकल सत्ता में आए हमारे पूर्वज नेता पिछड़ों के विरोधी थे? दुर्भाग्य यह है कि मंडलवाद की राजनीति ने आरक्षण को ही सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा पर्याय बना दिया। दूसरे, किसी भी समुदाय पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की संपूर्ण जनसंख्या वंचित नहीं होती। जिन्हें अगड़ा कहते हैं उनमें भी वंचित और पिछड़े हैं। लोहिया ने जाति तोड़ो का नारा दिया था। इसका अर्थ है कि वह एक समय बाद ऐसी जातिविहीन सामाजिक व्यवस्था चाहते थे, जहां जातीय आधार पर विशेष व्यवस्था की आवश्यकता न हो। मंडलवाद से निकले नेताओं ने वोट के लिए जातीय भाव को अधिक सशक्त किया और संख्या बढ़ाने के लिए अनेक जातियों को इनमें शामिल कर दिया। लोहिया ने जब नारा दिया तब और आज में आमूल चूल परिवर्तन आ गया है। राजनीति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के अनुरूप आरक्षण है और सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक, स्थानीय निकायों में निर्वाचित प्रतिनिधि पिछड़ी जातियों से हैं। प्रधानमंत्री स्वयं पिछड़ी जाति से हैं और राष्ट्रपति अनुसूचित जनजाति से। आज पिछड़ा और वंचित मानी गई कई जातियों की एक बड़ी जनसंख्या हर दृष्टि से अग्रिम पंक्ति में है। क्या आरक्षण और अन्य सुविधाओं को जैसे को तैसा कायम रखा जाना चाहिए? वोटों की राजनीति के कारण कोई इसे स्पर्श करना नहीं चाहता। इसका परिणाम स्वयं पिछड़ों एवं अनुसूचित जातियों के अंदर भी वंचित जातियों, समूहों या व्यक्तियों के अंदर अपने ही के विरुद्ध असंतोष और विद्रोह का भाव पैदा हुआ है। अनुसूचित जाति -जनजाति न्यायालयों में अधिकांश मुकदमे पिछड़ी जातियों के विरुद्ध हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश में यादवों के विरुद्ध अन्य जातियों के अंदर आक्रोश है और वह मतदान में प्रकट होता है। बिहार में यही स्थिति कुर्मी और कोईरी के संदर्भ में भी है।
जाति व्यवस्था को लेकर दो मत रहे हैं। गांधी जी और उनकी तरह के लोग जातिभेद के विरुद्ध थे जाति के नहीं। समाजवादी धारा के लोगों ने जातिविहीन समाज का नारा दिया। आज इनमें से अधिकांश जातियों का समीकरण बनाकर अपनी राजनीति करते हैं। यहीं से रिपोर्ट के अंतर्विरोध और भविष्य के चिंताजनक संकेत मिलने लगते हैं। इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़ा किया गया है। अन्य पिछड़ों में सबसे ज्यादा यादव की जनसंख्या 14.26 प्रतिशत बताई गई है। यादवों की इतनी बड़ी संख्या की कल्पना ज्यादातर को नहीं थी। उनकी जनसंख्या 8-9 प्रतिशत मानी जा रही थी। इसलिए गणना की विश्वसनीयता पर पिछड़ी जातियों की ओर से भी प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं। पूछा जा रहा है कि क्या अब सरकार की योजनाओं में सबसे ज्यादा हिस्सा यादवों को मिलेगा? जातीय जनगणना का हीरो बने नीतीश कुमार के सामने राजनीतिक अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो सकता है। इतनी बड़ी जनसंख्या जिस जाति की हो, नेतृत्व उसके हाथों होगा या 2.87 प्रतिशत कुर्मी का प्रतिनिधित्व करने वाले के हाथों? मंडल आयोग लागू करने के हीरो विश्वनाथ प्रताप की राजनीति का इसी से उभरे नेताओं ने अंत कर दिया। वही हस्र नीतीश कुमार का हो सकता है। आईएनडीआईए के लिए वे हीरो हो जाएं, पर बिहार की राजनीति से उनके अंत की भी शुरुआत संभव है। उनकी पार्टी में फिर विभाजन हो सकता है। ब्राह्मण और भूमिहारों की क्रमशः 3.66 प्रतिशत और 2.86 प्रतिशत को भी संदेहास्पद बताया गया है। यह मांग थी कि भूमिहार भी ब्राह्मण हैं और उनकी गणना ब्राह्मणों के साथ की जाए। किंतु दोनों जातियों के एक वर्ग में मतभेद के कारण ऐसा नहीं हो सका। ज्यादा संभावना है कि आगे ये अपनी शक्ति दिखाने के लिए साथ आएं। राजपूतों ने भी 3.45% जनसंख्या को कम बताए जाने का आरोप लगाया है।
बिहार में ईबीसी और ओबीसी को मिलाकर 30 प्रतिशत आरक्षण है। जाति गणना के अनुसार क्या बिहार में उनके लिए 63 प्रतिशत आरक्षण होगा? क्या इनमें भी अलग-अलग जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण का हिस्सा निश्चित किया जाएगा? जनगणना संविधान के अनुसार केंद्र सरकार का दायित्व है। इसलिए इसे संवैधानिक दर्जा मिलेगा और उसके अनुसार आरक्षण को समायोजित कर पाएंगे इस पर अभी प्रश्न खड़ा है। 2011 की जनगणना के साथ भी जातीय गणना हुई थी, जिसे सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण का नाम दिया गया था। इसे ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत कराया गया। यूपीए सरकार इसे जारी नहीं कर सकी। नरेंद्र मोदी सरकार ने इसे जारी करने का निर्णय लिया। नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में जारी करने के लिए एक समिति बनी। इसने बताया कि कुल 46 लाख जाति और गोत्र हैं, जिनमें इतनी जटिलताएं हैं कि इनको जारी करना संभव नहीं है। यही सच है। जाति व्यवस्था भारतीय समाज की विशेषता है। जाति व्यवस्था की जटिलताओं को समझने वालों को पता है कि राजनीति में जितनी बयानबाजी कर लें, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इसे जारी करना संभव नहीं होगा। जो होगा वह त्रुटिपूर्ण होगा। वह सच्चाई का शत-प्रतिशत प्रतिबिंब नहीं हो सकता।