भगवान विट्ठल को समर्पित है पंढरपुर यात्रा
पंढरपुर महाराष्ट्र का एक विख्यात तीर्थ स्थल है। भीमा नदी के तट पर बसा यह तीर्थस्थल सोलापुर जिले में पड़ता है। नदी को यहाँ चंद्रभागा के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यहाँ उसका आकार अर्द्धचंद्र जैसा है। भगवान विट्ठल को विष्णु अवतार श्रीकृष्ण का एक रूप मान कर पूजा-अर्चना की जाती है। भगवान विट्ठल को विट्ठोबा, पांडुरंग, पंढरीनाथ के नाम से भी जाना जाता है।
प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास की देवशयनी एकादशी (इस बार 20 जुलाई) पर लाखों लोग भगवान विट्ठल और देवी रुक्मिणी की महापूजा देखने के लिये देश के कोने-कोने से पताका लिए पैदल चलकर इकट्ठा होते हैं। महाराष्ट्र के अलावा गोवा, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों के श्रद्धालु विशेष रूप से इस यात्रा में शामिल होते हैं। महाराष्ट्र में इसे राजकीय यात्रा का दर्जा प्राप्त है।
विट्ठल मंदिर का स्वरूप
12 वीं शताब्दी में देवगिरि के यादव शासकों द्वारा निर्मित भगवान विट्ठल का मंदिर एक विशाल परिसर में बना है जिसमें 8 द्वार हैं। यह मंडप सोलह खंभा कहलाता है, क्योंकि यह सोलह खंभों से बना है। इन पर शुद्ध सोने और चांदी का पानी चढ़ाया गया है। इसके बाद चौखंभा (चार स्तभों वाला भवन) है जिसमें से होकर गर्भगृह तक पहुँचा जा सकता है। श्री विठोबा की मूर्ति 3.5 फीट ऊँची है जिसके मस्तक पर शिवलिंग, गले में कौस्तुभ मणि तथा वक्ष-स्थल पर उनके भक्त के पद-चिह्न अंकित हैं। मंदिर के मुख्य संरक्षक और पुजारी बदाव ब्राह्मण होते हैं।
पंढरपुर पालकी
पालकी परम्परा की शुरुआत महाराष्ट्र के प्रमुख संतों ने की थी। उनके अनुयायियों को वारकरी कहा जाता है जिन्होंने इस प्रथा को आज भी जीवित रखा है। पालकी में संत नामदेव की पादुका रखी जाती है। पालकी को सफेद रंग के बैलों की जोड़ी खींचती है। यह पालकी आलंदी नामक स्थान से प्रारम्भ होती है। इसके बाद अन्य पालकियाँ संतों के जन्म स्थान से पंढरपुर के लिए रवाना होती हैं। (उदाहरणार्थ- तुकाराम के जन्म स्थान देहू तथा एकनाथ के जन्म स्थान पैठक से) जुलूस में भक्तगण समूहों में बंटे होते हैं जिन्हें डिन्डी कहते हैं।वारकरियों का दल इस दौरान नृत्य व कीर्तन के माध्यम से संतों की कीर्ति का बखान करता हुआ पुणे तथा जेजुरी होते हुए तीर्थ नगरी पंढरपुर पहुँचता है।
वारकरी सम्प्रदाय
वारकरी का अर्थ होता है तीर्थयात्री। वारकरी मत को मानने वाले विट्ठल-विट्ठल कहकर कृष्ण भक्ति के भजन गाकर, नृत्य करनें में लीन रहते हैं। ये श्रीकृष्ण के उपासक हैं जिनका प्रिय पौधा तुलसी होता है। वारकरी तुलसी की माला पहनते हैं और पूर्ण रूप से शुद्ध शाकाहारी होते हैं। लाखों की संख्या में नंगे पैर तीर्थयात्रा करना वारकरियों की परम्परा है। मूलतः श्रीमद्भागवत और श्रीमद्भगवद्गीता इस सम्प्रदाय के मूल उपास्य ग्रंथों में हैं। वर्ष में चार बार (आषाढ़, कार्तिक, चैत्र तथा माघ माह में) लाखों तीर्थयात्री यहाँ एकत्रित होते हैं।
प्रतिमा का नामकरण
संत पुण्डलिक सैकड़ों वर्ष पूर्व पंढरपुर आये। कहते हैं भक्त पुण्डलिक माता-पिता की सेवा कर रहे थे तभी स्वयं भगवान उन्हें दर्शन देने आ गए। भक्त पुण्डलिक ने माता-पिता की सेवा छोड़े बिना एक ईंट प्रभु को दे दी और उसी पर उन्हें खड़ा रहने को कहा। कुछ समय पश्चात् जब उनके माता-पिता सो गए तब वे बाहर आए तो भगवान श्रीकृष्ण को कमर पर हाथ रखे खड़ा पाया। उन्होंने श्रीकृष्ण से यहाँ पधारने का उद्देश्य पूछा! कृष्ण ने उनकी भक्ति से खुश होकर मन चाहा वरदान मांगने को कहा। तब उन्होंने कहा-आप इसी स्थान पर ऐसे ही खड़े रहकर अपने भक्तों को दर्शन देते रहें। कहते हैं कि उसी समय से भगवान श्रीकृष्ण खड़े रूप में अपने भक्तों को दर्शन दे रहे हैं और तभी से उनके भक्त उन्हें उनके नये नाम ‘भगवान विट्ठल’ से पूजने लगे। विट्ठल का अर्थ होता है ईंट पर खड़ा रहने वाला। महाराष्ट्र में ईंट को वीट कहते हैं। आगे चलकर यही स्थान भक्त पुण्डलिक के नाम से पुंडलिकपुर, अपभ्रंश रूप में पंढरपुर कहलाया।
महाराष्ट्र की संत परम्परा
महाराष्ट्र में संतों और भक्तों की लम्बी शृंखला है। वारकरी सम्प्रदाय के संतों ने भक्ति और सामाजिक समरसता की प्रबल धारा का प्रवाह निरंतर जारी रखा। महाराष्ट्र की इस संत परम्परा ने भगवद्भक्ति तथा समाज-सुधार हेतु विविध आयाम प्रस्तुत किये। ये संत सभी जातियों से आये थे। इसमें महिलाओं ने भी अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया। महाराष्ट्र की संत परम्परा में संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास, चोखामेला, सावता माली, गोरा कुम्हार, राका महार, नरहरि सुनार, सेन महाराज, जनाबाई, मुक्ताबाई, बहिणाबाई, भानुदास, विसोबा खेचर, कान्होपात्रा तथा बंका आदि थे।
यात्रा की विशेषता
पंढरपुर यात्रा की विशेषता है उसकी ’वारी’। ’वारी’ का अर्थ है- सालों-साल से समय-समय पर लगातार यात्रा करना। इस यात्रा में हर वर्ष शामिल होने वालों को ’वारकरी’ कहा जाता है और यह सम्प्रदाय ’वारकरी सम्प्रदाय’ कहलाता है। इस ’वारी’ का जब से आरंभ हुआ है, तब से पीढ़ी दर पीढ़ी लोग हर साल वारी के लिए निकल पड़ते हैं। महाराष्ट्र में कई स्थानों पर वैष्णव संतों के निवास रहे हैं या उनके समाधि स्थल हैं। ऐसे स्थानों से उन संतों की पालकी वारी के लिए प्रस्थान करती है। वारी में बच्चे, बूढ़े, महिला, पुरुष सभी शामिल होते हैं। आषाढ़ी एकादशी के दिन पंढरपुर पहुंचने का उद्देश्य सामने रखकर, दूरी के अनुसार हर पालकी का अपने सफर का कार्यक्रम तय होता है। मार्ग पर कई पालकियां एक-दूसरे से मिलती हैं और उनका एक बड़ा कारवां बन जाता है। वारी में दो प्रमुख पालकियां होती हैं। उनमें एक संत ज्ञानेश्वर की तथा दूसरी संत तुकाराम की होती है। 15 से 20 दिन की पैदल यात्रा कर वारकरी देवशयनी एकादशी के दिन पंढरपुर पहुंच जाते हैं। वारी में शामिल होना या वारकरी बनना यह एक परिवर्तन का आरंभ है। वारी से जुड़ने पर मनुष्य के विचारों और आचरण में परिवर्तन दिखाई देता है। वारी का उद्देश है- ईश्वर के पास पहुंचना, निकट जाना। वारी में दिन-रात भजन-कीर्तन, नामस्मरण चलता रहता है। अपने घर की, कामकाज की, खेत की समस्याओं को पीछे छोड़कर वारकरी वारी के लिए चल पड़ते हैं, क्योंकि हर काम में वह ईश्वर के ही दर्शन करते हैं।