भागवत का मस्जिद में जाना समरसता की पहल

भागवत का मस्जिद में जाना समरसता की पहल

प्रमोद भार्गव

भागवत का मस्जिद में जाना समरसता की पहलभागवत का मस्जिद में जाना समरसता की पहल

​दुनिया के अधिकांश देशों में मुस्लिमों और अन्य संप्रदायों के बीच दुविधापूर्ण स्थिति है। चीन जहां उईगर मुस्लिमों को प्रतिबंधित कर यातना शिविर चला रहा है, वहीं इनकी नस्ल बदलने में भी लगा है। चीन यही काम मूल तिब्बतियों के साथ भी कर रहा है। इस्लामिक देश, बांग्लादेश म्यांमार से विस्थापित रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों से परेशान है। ईरान और अफगानिस्तान में महिलाएं हिजाब और बुर्के से स्वतंत्रता के लिए हिंसक लड़ाई लड़ रही हैं। अमेरिका और ब्रिटेन में भारत द्वारा क्रिकेट में पाकिस्तान की पराजय के बाद द्वंद्वात्मक सांप्रदायिक दंगे देखने में आए हैं। अमेरिकी संस्था ‘नेटवर्क कंटेजियन रिसर्च इंस्टीट्यूट‘ के शोध से खुलासा हुआ है कि हिंदुओं के विरुद्ध अमेरिका में घृणा फैलाने से जुड़े मामलों में 1000 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इस संस्था के सह-संस्थापक जोएल फिंकेलस्टाइन ने कहा कि हिंदू विरोधी हिंसक एजेंडा फैलाया जा रहा है। इन हमलों और घृणा परोसने के माहौल-निर्माण में कट्टरपंथी इस्लामिक समूहों और श्वेत वर्चस्ववादियों का हाथ है। हाल ही में ब्रिटेन के लिस्टर और बर्मिंघम में मंदिरों पर हुए हमलों में पाकिस्तानी जिहादी गिरोहों के गुर्गों का हाथ सामने आया है। इधर भारत में पीएफआई की हरकतें इस सीमा तक बढ़ गई हैं कि एनआईए (NIA) और ईडी (ED) की जांच में सामने आया है कि पटना में हुई 12 जुलाई की आमसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके निशाने पर थे, किंतु सुरक्षा एजेंसियों की सतर्कता के चलते उनके मंसूबे पूरे नही हुए। इन सब विडंबनापूर्ण हालातों के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का मस्जिद और मदरसे में जाना इस बात का संदेश है कि भारत का मूल चरित्र अंततः समरसता एवं सद्भाव का ही पक्षधर है।

​बीते एक माह से भागवत मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मिल रहे हैं। इस कड़ी में उनकी मुलाकातें सेवानिवृत्त लैफ्टिनेंट जनरल जमीरुद्दीन शाह, पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी, दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीकी और दानवीर सईद शेरवानी से हुई हैं। ये वे हस्तियां हैं, जिन्होंने मूल भारतीय होने का दायित्व निभाते हुए देश की सुरक्षा और प्रगति में अमूल्य योगदान दिया है। भागवत अखिल भारतीय इमाम परिषद् के अध्यक्ष डॉ. उमेर अहमद इलियासी से भी नई दिल्ली की कस्तूरबा गांधी मार्ग स्थित मस्जिद में मिले। एक घंटे की इस मुलाकात में इलियासी ने मोहन भागवत के व्यक्तिव से प्रभावित होकर उन्हें ‘राष्ट्रपिता‘ और ‘राष्ट्रऋषि‘ तक कह दिया। एक समाचार एजेंसी को दिए कथन में भी यही शब्द दोहरा दिए। हालांकि भागवत ने राष्ट्रपिता कहने पर इलियासी को टोका था। यहां के बाद भागवत एक मदरसे में भी गए। यहां के छात्रों ने उनके आगमन पर ‘वंदे मातरम‘ और ‘भारत माता‘ की जय के नारे भी लगाए। जबकि देश जानता है कि कट्टरपंथी मुस्लिमों का एक तबका इन जयकारों को इस्लाम के विरुद्ध मानता रहा है। कई मुस्लिम सांसद और विधायक संविधान की शपथ लेने के बाद भी सदनों में ये नारे नहीं लगाते हैं। दरअसल मस्जिद और मदरसा प्रबंधन ने सरसंघचालक को आमंत्रित किया था। हालांकि संघ के इंद्रेश कुमार मुस्लिमों में लंबे समय से पैठ बनाने की कवायद में लगे हैं। यही काम राम माधव ने कश्मीर घाटी में किया है। इस भेंट से पता चलता है कि भारतीय समाज धार्मिक आधार पर भले ही विभाजित हो, लेकिन अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज में अब यह बोध जागृत हो रहा है कि कुछ वर्जनाओं से मुक्त होकर बहुसंख्यक समाज से मेल-मिलाप बढ़ाकर समरसता का वातावरण स्थापित किया जाए।

दरअसल किसी भी देश का नागरिक देश के लिए जीने-मरने के जन्मजात दायित्व बोध से जुड़ा होता है। फिर चाहे वह किसी भी धर्म व संप्रदाय का हो। भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में मुस्लिमों का बराबर योगदान रहा है, इस पर किसी को कोई संशय भी नहीं है। इसीलिए मुस्लिम क्राांतिकारी देशभक्तों को भी देश के नागरिक पूरा सम्मान देते हैं। देशभक्ति की इस भावना को नरेंद्र मोदी ने बनारस की एक चुनावी सभा में आजाद हिंद फौज के सिपाही रहे नजरूल हक के पैर छूकर जताया भी था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक प्रश्न के उत्तर में यह कहना कि ‘भारतीय मुस्लिम भारत के लिए जिएंगे और भारत के लिए मरेंगे। वे अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठन के इशारे पर नाचेंगे नहीं’ यही उचित उत्तर था। इसके उलट समझदार देशभक्त मुसलमानों को यह विचार भी करने की आवश्यकता है कि आतंकवाद के विस्तार से आखिरकार मुसलमानों को अब तक मिला क्या? आतंकवाद की आग में झुलसे देशों में मुस्लिम ही मुस्लिमों के  खून के प्यासे हो गए हैं।

​आतंकवाद के बहाने मजहबी कट्टरवाद का जहर मुस्लिम समाज की भीतरी सतहों को संकीर्ण बनाने का काम कर रहा हैं। यह संकीर्णता मुस्लिम बहुलता वाले देशों में रहने वाले अल्पसंख्यकों के लिए तो घातक साबित हो ही रही है, इस्लाम से जुड़ी विभिन्न नस्लों को भी आपस में लड़ाने का काम कर रही है। अफगानिस्तान, ईराक, ईरान, मिस्र, नाइजीरिया, सीरिया, पाकिस्तान में अलकायदा और आईएस आखिरकार किससे लड़ रहे हैं? यह लड़ाई शिया, सुन्नी, कुर्द अहमदिया और बहावी इस्लाम को मानने में ही तो परस्पर हो रही है। हां इन नस्लों में पनपती मजहबी अंधता ने इन देशों में रहने वाले अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को भी अपनी चपेट में जरूर ले लिया है। इस तथ्य की स्वीकारोक्ति अमेरिका द्वारा हर वर्ष जारी की जाने वाली ‘धार्मिक स्वतंत्रता आयोग‘ की रिपोर्ट ने भी की है। रिपोर्ट के अनुसार अल्पसंख्यकों की सबसे ज्यादा दुर्गति आठ देशों में है। ये हैं, पाकिस्तान, तजाकिस्तान, सीरिया, मिस्र, नाइजीरिया, इराक, तुर्कमेनिस्तान और वियतनाम। इनके अलावा चीन, ईरान, उत्तर कोरिया, म्यांमार, उज्बेकिस्तान, सउदी अरब और सूडान में भी अल्पसंख्यक समुदाय शंकाओं से घिरे रहकर असुरक्षा बोध की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। पाकिस्तान में कट्टरपंथी मुसलमान ईसाई, हिंदू और सिख धर्मावलंबियों के लिए संकट का सबब बने हुए हैं। ईशनिंदा कानून के चलते यहां सबसे ज्यादा उत्पीड़न होता है। इसी कारण यहां के 82 प्रतिशत हिंदू तत्काल पाकिस्तान छोड़ने को तैयार हैं। रिपोर्ट के अनुसार, यहां सबसे ज्यादा दर्दनाक स्थिति हिंदुओं की है। हालात यहां शिया मुसलिमों के भी दुरुस्त नहीं हैं।  पाकिस्तान शियाओं को सुरक्षा मुहैया इसलिए कराता है, क्योंकि ईरान पाकिस्तानी शियाओं की मजबूती से पैरवी करता है। पाक को इस लाचारी का सामना इसलिए करना पड़ता हैं, क्योंकि ईरान अरबों रुपए पाकिस्तान को सहायता के रूप में देता है। लिहाजा अपनी ही भिन्न नस्लों को आपस में लड़ाने वाले अलकायदा और आईएस यह नहीं कह सकते कि दुनिया के सभी मुसलमान और मुस्लिम समाज एक हैं। वैश्विक पहल पर यह नारा इसलिए खोखला हो चुका है, क्योंकि मुस्लिम कौमों की आपसी लड़ाई ने कई देशों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया है। शिया तथा सुन्नी मुसलमानों के बीच जमीन-आसमान का भेद है। सबकी मस्जिदें अलग अलग हैं। बेटी का विवाह हिंदुओं की ही तरह अपनी ही जाति, पंथ या बिरादरी में किया जाता है।

​वर्तमान में भारतीय मुसलमान दोहरे असुरक्षा भाव से ग्रस्त हैं। एक, उन्हें आतंकवादी संगठन आतंकवाद के विस्तार के लिए उकसा रहे हैं, दूसरे, उनकी इन हरकतों के चलते मुसलमानों की विश्वसनीयता घटी है। ऐसी मानसिक उलझन में मोहन भागवत ने मस्जिद एवं मदरसे में जाकर समरसता का संदेश दिया है। इस मुलाकात से मुसलमानों का आत्मबल मजबूत होगा। मुसलमानों का बड़ा संकट यह भी है कि उन में जो उदारवादी व्यक्ति हैं, उन्हें रूढ़िवादी शक्तियां विकसित नहीं होने देतीं। इसलिए ज्यादातर मुसलिमों की इस्लाम से बौद्धिक, आध्यात्मिक, नैतिक व मानवीय चेतना ग्रहण करने की क्षमता कुंद हो गई है। इस कमजोरी का फायदा गाहे-बगाहे मुल्ला-मौलवी आतंकवादी और फिरकापरस्त भी उठा रहे हैं। इन दबावों के चलते ही मुसलमान अभिभावक अपने बच्चों में आत्मविश्वास और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि पनपाने में अहम भूमिका का निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं। परिणामस्वरूप नई पीढ़ी धर्म और अंधश्रद्धा अथवा कट्टरता के संस्कार लेकर जीने को मजबूर हो रही है। इन हालतों के निर्माण होने का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह रहा है कि राजनीतिक मुस्लिम नेतृत्व मजहब के खोल से बाहर आकर समाज को वैज्ञानिक सोच आधारित नेतृत्व देने में कमोवेश असफल रहा है। इसीलिए मुस्लिम समाज जनसंख्या नियंत्रण की दृष्टि से परिवार नियोजन तक अपनाने को तैयार दिखाई नहीं देता। इस्लाम आधारित मदरसा शिक्षा के प्रति उसका आकर्षण बना हुआ है। मुसलिम बुद्धिजीवी भी शरीयत के दायरे को न तो उदार बनाने के प्रति सक्रिय हैं और न ही स्वयं उस दायरे से बाहर निकलना चाहते हैं। क्योंकि वे भी कुरान के एक-एक अक्षर व शब्द को खुदा का शब्द मानते हैं। श्रुति मानते हैं, स्मृति नहीं। स्मृति बदलती रहती है, जबकि श्रुति स्थिर रहती है। मुस्लिमों को इन बहकावों से सावधान रहते हुए अब मोहन भागवत द्वारा की गई इस समरसता की पहल को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। अन्य राजनीतिक दलों को भी इस समरसता में रचनात्मक भागीदारी करने की जरूरत है।

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