भारतीय समाज के ताने बाने पर कुठाराघात है मतांतरण

भारतीय समाज के ताने बाने पर कुठाराघात है मतांतरण

प्रमोद भार्गव

भारतीय समाज के ताने बाने पर कुठाराघात है मतांतरण

भारतीय सामाज के ताने-बाने पर सदियों से किस प्रकार कुठाराघात हो रहा है, उसे पंजाब से संबंधित दो समाचारों ने पुनः रेखांकित कर दिया। विगत सप्ताह जहां गुरदासपुर में अवैध बूचड़खानों का भंडाफोड़ हुआ, जिसमें गोभक्षण के लिए गायों की निर्मम हत्या की जा रही थी, वहीं अकाल तख्त ने ईसाई मिशनरियों पर सीमावर्ती क्षेत्रों में सिखों के जबरन मतांतरण का आरोप लगाया है। भले ही दोनों मामले अलग-अलग हो, किंतु यह एक-दूसरे से संबंधित हैं। कैसे?

पंजाब के गुरदासपुर स्थित जिस क्षेत्र में अवैध बूचड़खाने का खुलासा हुआ है, वहां मुसलमानों सहित हिंदू और सिख से मतांतरित लोगों की एक बड़ी जनसंख्या बसती है। परिणामस्वरूप, गुरदासपुर में गोमांस की मांग तेजी से बढ़ने लगी। हालिया गोकशी मामले में अकाली दल के पूर्व सरपंच नियामत मसीह सहित 11 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। जांच में खुलासा हुआ है कि आरोपी गायों को मारने के लिए क्रूरता की सारी हदें पार कर देते थे। पहले हथौड़े से सिर पर तेज प्रहार करके गाय को स्तब्ध कर देते फिर उसी स्थिति में आरोपी खाल उतारकर गाय का मांस काट लेते। इस गोमांस का 70-80 प्रतिशत हिस्सा गुरदासपुर में ही उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य राज्यों से आकर काम कर रहे मुस्लिम और ईसाइयों द्वारा ही खरीदा जाता था।

गाय करोड़ों बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए आस्थागत भावना का विषय है, किंतु उसे केवल मजहबी चश्मे से भी देखना न्यायसंगत नहीं, क्योंकि गाय भारतीय आर्थिकी के साथ इस भूखंड की कालातीत सनातन संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही है। सिख पंथ के लिए भी गोरक्षा महत्वपूर्ण है। इसी कारण दशकों से वृहद भारतीय समाज, संवैधानिक मर्यादा में रहकर गोकशी पर प्रतिबंध की मांग या चर्चा करता रहा है, जिन्हें अक्सर स्वघोषित सेक्युलर, वामपंथी, स्वयंभू उदारवादी और इब्राहीमी समाज का एक वर्ग-सांप्रदायिक घोषित कर देता है। उनका तर्क होता है कि यह उनके पसंदीदा खाने के मौलिक अधिकार पर आघात है। क्या किसी भी राष्ट्र के कानून या व्यवस्था को उसकी संस्कृति और इतिहास से काटा जा सकता है?

अमेरिका के कई प्रांतों के साथ कई यूरोपीय देशोंड में मजहबी, सांस्कृतिक और भावनात्मक कारणों से भोजन हेतु घोड़े का मांस प्रतिबंधित है। वहां लोग कुत्तों-बिल्ली के साथ भावनात्मक लगाव रखते हैं और उन्हें अपना सहचर मानते हैं, इसलिए उसे भी मारकर खाना सांस्कृतिक-सामाजिक कलंक (टैबू) समझते हैं। ब्रिटेन में भी कुत्तों के मांस की ब्रिकी वर्जित है। बीते माह दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून ने भी कुत्ते के मांस सेवन पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान किया है। वर्ष 2017 से ताइवान में भी इस प्रकार के मांसों के बिक्री-सेवन पर प्रतिबंध है, किंतु यह विडंबना है कि भारत में करोड़ों लोगों के भावनात्मक जुड़ाव के प्रतीक गोवंशों की हत्या को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं किया जा सका है। क्यों?

अभी गत दिनों दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बॉर्डर पर किसान आंदोलन के मंच के पास एक दलित की तथाकथित बेअदबी के कारण निहंग सिखों ने हत्या करके उसके क्षत-विक्षत शव को लटका दिया। चूंकि घटना ईशनिंदा से जुड़ी है तो इस पर वह वाम-जिहादी-सेकुलर कुनबा सुविधाजनक रूप से मौन है, जिसने 2015 में दिल्‍ली के निकट दादरी स्थित गोकशी के कारण भीड़ द्वारा मारे गए अखलाक के मामले से भारत की सहिष्णु छवि को कलंकित करने का कुप्रयास किया था। यही नहीं, मोदी विरोध के नाम पर मई 2017 को कांग्रेस के युवा नेताओं-कार्यकर्ताओं ने सरेआम केरल की सड़क पर गाय के बछड़े को मारकर उसके मांस का सेवन किया था। क्या देश में गोवध करोड़ों हिंदुओं की भावना को ठेस पहुंचाने के समकक्ष नहीं है? यदि मजहबी भावनाओं को देखते हुए भारत में तस्लीमा नसरीन व सलमान रुश्दी की पुस्तकों पर प्रतिबंध लग सकता है, तो करोड़ों हिंदुओं की भावना का सम्मान करते हुए गोवध पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग सांप्रदायिक क्यों हैं?

गुरदासपुर में गोकशी करने वाले अधिकांश मतांतरित हैं। सच तो यह है कि पंजाब में दलित उत्थान के नाम पर ‘‘आत्मा का व्यापार’ कैंसर का फोड़ा बन चुका है। इससे अकाल तख्त भी चिंतित है। जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह के अनुसार, ईसाई मिशनरी सीमावर्ती क्षेत्रों में जबरन मतांतरण के लिए एक अभियान चला रही हैं। निर्दोष लोगों को ठगा जा रहा है या लालच दिया जा रहा है। इस संबंध में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने ‘घर-घर अंदर धर्मसाल’ (हर घर के अंदर एक पवित्र मंदिर) नाम से एक अभियान शुरू किया है। राष्ट्रीय सिख संगत ने भी मतांतरण रोकने हेतु फिर से अभियान चलाने की घोषणा की है।

वर्ष 2011 में जारी आंकड़ों (जनगणना) के अनुसार, पंजाब की कुल जनसंख्या 2.77 करोड़ में ईसाइयों की संख्या 1.26 प्रतिशत थी। किंतु सितंबर 2016 में पंजाब के पादरी इमानुएल रहमत मसीह ने दावा किया कि राज्य में ईसाइयों की जनसंख्या 7 से 10 प्रतिशत है। यह स्थिति ‘‘क्रिप्टो-ईसाइयों’’ के कारण है, जो सार्वजनिक जीवन और आधिकारिक रिकॉर्ड में गैर-ईसाई तो है परंतु निजी रूप से ईसाई होने का दावा करते हैं।

पंजाब में ईसाई मतांतरण को गति देने का आरोप पादरी अंकुर जोसेफ नरूला पर लगता है। वर्ष 2008 में नरूला ने ईसाई मत अंगीकार किया और कालांतर में पादरी बन गया। उसने जालंधर के खांबरा में जिस ‘‘चर्च ऑफ साइन एंड वंडर्स’ को स्थापित किया है, वहां साप्ताहिक सभा में 1,50,000 लोगों के जुटने का दावा किया जाता है। विडंबना है कि जिन वामपंथियों, उदारवादियों और स्वयंभू सेकुलरिस्टों को हिंदुओं की परंपराओं और पर्वों में अक्सर विसंगत, प्रतिगामी और अंधविश्वास दिखता है, वे ईसाइयत मतांतरण हेतु चंगाई सभा में होने वाले ‘‘चमत्कार’ रूपी ढोंग पर मौन रहते हैं। इससे संबंधित कई वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हैं, जिससे यह भी स्पष्ट होता है कि पंजाब में मतांतरण को कैसे प्रत्यक्ष-परोक्ष वर्तमान कांग्रेसी सरकार से राज्याश्रय मिल रहा है। इससे गदगद विभिन्न पादरियों के समूह ने पंजाब में शिरोमणि चर्च प्रबंधक समिति बनाने की घोषणा की थी।

वास्तव में, इस विकृत ‘‘सेवा’’ की जड़ें वर्ष 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में उस विवादित अनुच्छेद में मिलती है, जिसने ब्रितानी पादरियों और ईसाई मिशनरियों द्वारा ‘‘हीथन’’ भारतीयों के मतांतरण का मार्ग और अंग्रेजों द्वारा उन्हें सभी आवश्यक सहयोग देने का प्रावधान प्रशस्त किया था। स्वतंत्रता के दशकों बाद भी वामपंथियों सहित स्वयंभू सेकुलरिस्टों के आशीर्वाद और विदेशी वित्त पोषित स्वयंसेवी संगठनों के समर्थन से भय, लालच और धोखा जनित मजहबी छल खुलेआम चल रहा है। यह समस्या ईसाइयत तक सीमित नहीं है। लव-जिहाद के सैकड़ों मामलों के बीच बीते दिनों उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस्लामी संगठनों द्वारा मतांतरण का भंडाफोड़ किया था। मतांतरण में लिप्त हजारों मजहब प्रेरित संस्थाओं पर वर्ष 2014 के बाद से कार्रवाई हो रही है।

सनातन भारत पर मतांतरण का क्या दुष्परिणाम होता है, इसे स्वामी विवेकानंद ने अप्रैल 1899 में स्पष्ट कर दिया था। तब उन्होंने कहा था, ‘‘एक हिंदू का मतांतरण केवल एक हिंदू का कम होना नहीं बल्कि एक शत्रु का बढ़ना है।’’ वृहद परिप्रेक्ष्य में दूरदर्शी स्वामीजी की यह चेतावनी आज भी प्रासंगिक है।

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