भारत के कम्युनिस्टों का गुरु चीन

भारत के कम्युनिस्टों का गुरु चीन

प्रशांत पोळ

भारत के कम्युनिस्टों का गुरु चीन

आज गुरुपूर्णिमा के दिन, बड़ा विचित्र संयोग बन रहा है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी इस वर्ष 17 अक्तूबर को अपने सौ वर्ष पूर्ण करने की खुशी मना रही है, तो उनका गुरु, उनका प्रेरणास्रोत, उनका मेंटर चीन, भारत की ओर देखकर आंखें तरेर रहा है, सीमा विवाद खड़ा कर रहा है..।

इन कम्युनिस्टों का सभी कुछ अजीब और विचित्र होता है। जिस पार्टी के नाम में भारत है, जिसका नामकरण ही, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) ऐसा रखा गया था, उसकी स्थापना हुई थी, तत्कालीन सोवियत रशिया के ताशकंद में। वही ताशकंद, जहां पर भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी की रहस्यमयी मृत्यु हुई थी। (संयोग है कि, ताशकंद अब सोवियत रशिया का हिस्सा नहीं है। वह उज्बेकिस्तान की राजधानी है।)

मास्को में अगस्त, 1920 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का दूसरा अधिवेशन हुआ था। उसमें भारत से भी प्रतिनिधि गए थे। अधिवेशन के दो महीने बाद, 17 अक्तूबर 1920 को ताशकंद में मानवेंद्र नाथ रॉय उनकी पत्नी एल्विन ट्रेंट, अबानी मुखर्जी, रोजा फिटिंगोव, मोहम्मद अली, मोहम्मद शरीफ और आचार्य, इन सात सदस्यों ने मिलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। मोहम्मद शरीफ इसके सचिव चुने गए और आचार्य ने, चेयरमेन के अधिकार से इस मीटिंग के कागजातों पर हस्ताक्षर किए।

और विचित्र बात देखिये, विदेश में जन्मी इस भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का आग्रह किन लोगों को पार्टी में लाने का था..? वे मुसलमानों को कार्यकर्ता के रूप में भर्ती करने में ज़ोर दे रहे थे। सीपीआई (एम) की अधिकृत वेबसाइट पर लिखा है – M.N. Roy, as the principal organiser of the party, was keen on and successfully recruited young ex-Muhajir students from India. Roy and Evelyn Roy-Trent, his wife and comrade at the time, played a key role in bringing Mohammad Shafiq, Mohammad Ali and other ex-Muhajirs into the fold of the nascent communist party.

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया

मजेदार बात और भी है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कब हुई, इस पर भी कॉमरेडों में भारी मतभेद हैं। अनेक कम्युनिस्ट, विशेषकर सीपीआई से जुड़े कम्युनिस्ट, ऐसा मानते हैं कि पार्टी की स्थापना 26 दिसंबर, 1925 में हुई। इस दिन शनिवार था और कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत में अपना पहला अधिवेशन कानपुर में रखा था। इस अधिवेशन में पार्टी की विधिवत घोषणा हुई ऐसा कुछ कम्युनिस्ट मानते हैं। इसमें मुंबई के सच्चिदानंद विष्णु घाटे, पार्टी के सचिव चुने गए।

लेकिन सीपीआई (एम) की आधिकारिक वेबसाइट में, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना, 17 अक्तूबर 1920 को हुई, ऐसा ही लिखा है। इसीलिए भारत में कम्युनिज्म अर्थात साम्यवाद का यह सौंवा वर्ष चल रहा है, ऐसा हम कह सकते हैं।

भारत स्वतंत्र होने के पश्चात, यहां के कम्युनिस्टों ने इसे ‘वास्तविक आजादी’ नहीं माना। कम्युनिज्म के अनुसार व्यवस्था परिवर्तन, केवल क्रांति से ही होता है और वह भी खूनी क्रांति ! इसलिए, भारत में तत्कालीन व्यवस्था के विरोध में सशस्त्र विद्रोह करना या नहीं, इस विषय पर कम्युनिस्ट पार्टी में मतभेद गहराए। पार्टी की ‘आंध्रा लाइन’ सशस्त्र विद्रोह चाहती थी, तो ‘रणदिवे लाइन’ सशस्त्र विद्रोह के पक्ष में नहीं थी।

इस विवाद को सुलझाने, पार्टी के वरिष्ठ नेता मास्को गए। मास्को के नेताओं के समझाने पर भाकपा ने तीन दस्तावेज़ प्रकाशित किए, जिनके द्वारा भारत की स्वतंत्रता को मान्यता दी गई और पार्टी को चुनाव में उतरने की अनुमति मिली। अर्थात रशियन नेताओं के कहने पर भारत के कम्युनिस्टों ने भारतीय स्वतंत्रता को मान्यता दी..! 1952 का पहला लोकसभा चुनाव लड़ना, कम्युनिस्ट पार्टी के लिए फायदेमंद रहा। भले ही उसके मात्र 16 सांसद चुनकर आए, किन्तु भाकपा देश का पहला मुख्य विपक्षी दल बन गया।

एक और विशेष घटना केरल में घटी। सन 1957 के विधानसभा चुनाव में, केरल में ई एम एस नंबुदरिपाद के नेतृत्व में भाकपा की सरकार बनी। यह विश्व की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार थी। इसके पहले तो अनेक देशों में कम्युनिस्टों ने, रक्तरंजित क्रांति के द्वारा सत्ता पर कब्जा किया था। लेकिन मात्र दो वर्षों में, सन 1959 में, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस सरकार को बर्खास्त कर दिया। अब कम्युनिस्टों के सामने बड़ी समस्या खड़ी हो गई। चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करना एकदम गलत और अलोकतांत्रिक कदम था। इसलिए यहां के कम्युनिस्ट, नेहरू सरकार का पुरजोर विरोध करने लगे पर मास्को का कहना था, अभी नेहरू का विरोध नहीं करना है। उन दिनों, कम्युनिस्टों का मुख्य गुरु, रशिया हुआ करता था। इसलिए पार्टी के नेता मास्को भागे। वहां से स्पष्ट आदेश मिला, ‘एकादि राज्य गंवाना कोई बड़ी बात नहीं है पर नेहरू अभी हमारी चंगुल में फंस रहा है। हमारी बातें मान रहा है, हमारा अनुकरण कर रहा है। इसलिए नेहरू सरकार का समर्थन करना है।‘

आदेश तो आदेश होता है और वह भी गुरु का आदेश। मास्को से आया था इसलिए इसका शब्दशः पालन किया गया। केरल की कम्युनिस्ट सरकार बर्खास्त करने के बावजूद भी, कम्युनिस्टों ने नेहरू का विरोध नहीं किया।

भारत के वर्तमान कम्युनिस्टों का गुरु और रोल मॉडल आजकल चीन है। पहले रशिया हुआ करता था। फिर 1959 की चीनी क्रांति के बाद, रशिया और चीन दोनों थे। किन्तु नब्बे के दशक में सोवियत रशिया के विघटन के बाद, और चीन के आर्थिक ताकत के रूप में उभरने के साथ, अब गुरु की भूमिका में चीन है। कम्युनिस्ट पार्टी के अलग अलग गुटों के नाम में मार्क्स – लेनिन होने के पश्चात भी वे सब अपने आप को ‘माओवादी’ कहलाते हैं। चीन भी कम्युनिस्ट पार्टी के इन अलग अलग गुटों की मेंटरिंग करता है।

चीन, कम्युनिस्ट होने से पहले तक भारत का दुश्मन नहीं था। इतिहास में, भारतीय राजाओं का चीन की सत्ता से संघर्ष हुआ है, ऐसा वर्णन कहीं नहीं आता। चीन के शासकों ने, आक्रांताओं से बचाव के लिए, विश्व प्रसिध्द ‘चीन की दीवार’ बनाई। किन्तु इन आक्रांताओं में भारतीय नहीं थे। वे थे आज के उज्बेकिस्तान, कझाकिस्तान, अझरबैझान, किरगिस्तान के कबीले, जिन्हें हम ‘हूण’ भी कहते थे। हमने तो ऐसे हूणों से लोहा लिया। उन्हें परास्त किया। किन्तु चीन ने बड़ी सी दीवार बनाकर अपनी रक्षा करने का असफल प्रयास किया।

बहुत कम लोगों को पता होगा की बीजिंग शहर की रचना (Town Planning) एक हिन्दू ने की थी। इस व्यक्ति का नाम था, ‘बलबाहु’, जो चीन में ‘आर्निकों’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। बारहवीं सदी के मध्य में, चीन के राजा ने पाटन (जो नेपाल का एक शहर है) से कुछ अच्छे मूर्तिकार चीन में आमंत्रित किए, भगवान बुद्ध और हिन्दू देवताओं की मूर्तियां गढ़ने के लिए। उनमें बलबाहु भी था। चीन के राजा को बलबाहु का काम पसंद आया। उसे राजमहल बनाने का काम मिला और उसकी कला और कल्पनाशीलता को देखकर राजा ने उसे बीजिंग शहर की नगर रचना का काम दिया, जिसकी बसाहट उस समय हो रही थी। बलबाहु ने ही, चीन में उतराते छपरों के घरों की रचना की, जो आज चीन की पहचान बन चुके हैं। चीन ने 1 मई, 2002 को, इस बलबाहु (आर्निकों) की आदमक़द प्रतिमा बीजिंग के चौराहे पर स्थापित की, जिसमें बीजिंग शहर बसाने में बलबाहु के योगदान का कृतज्ञतापूर्वक उल्लेख है..।

चीन बदला, कम्युनिस्ट बनने के बाद 1 अक्तूबर 1959 को माओ त्से तुंग ने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चायना की स्थापना की, जो घोषित कम्युनिस्ट देश है। चीन में मात्र एक ही राजनैतिक दल है – सी सी पी, अर्थात ‘चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी’। लगभग सारे देशों की सेना का नाम, उस देश पर होता है, जैसे भारतीय थल सेना, भारतीय वायु सेना, यूनाइटेड स्टेट्स आर्म्ड़ फोर्सेस, फ्रेंच आर्मी आदि. लेकिन चीन की सेना का नाम है – ‘पीपल्स लिबरेशन आर्मी’। यह देश के प्रति नहीं, ‘सी सी पी’ के प्रति वफादार है। 1 अक्तूबर 1949 के पहले यह ‘रेड आर्मी’ के नाम से विख्यात थी.

सत्ता में आने के पश्चात, माओ त्से तुंग ने, पहले दिन से ही अपनी विस्तारवादी नीति घोषित की थी. उसी के अंतर्गत, चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया। तिब्बत के सर्वोच्च धर्मगुरु, दलाई लामा को चोरी छिपे भारत में आश्रय लेना पड़ा। इसी विस्तारवादी नीति के अनुसार चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया था। इस समय तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी चालीस वर्ष की हो चुकी थी। इस पार्टी (CPI) ने, चीन आक्रमण का विरोध नहीं किया, उल्टे भारत सरकार पर यह आरोप लगाया की ‘भारत की गलत नीति के कारण ही चीन को युद्ध के लिए विवश होना पड़ रहा है’।

जब भारत में कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने खुले आम चीन का समर्थन करना प्रारंभ किया, तो सरकार को कुछ करना आवश्यक हो गया। सरकार ने सभी प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं को चीन युद्ध के समय जेल में बंद रखा।

त्रिवेन्द्रम के ‘पुजापुरा जेल’ में अन्य वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेताओं के साथ, वी एस अच्युतानन्दन भी बंद थे। उन्हें लगा, कम्युनिस्ट पार्टी की छवि जनता में देशद्रोही की बन रही है इसे बदलना आवश्यक है इसलिए उन्होंने जेल में ही भारतीय जवानों के लिए रक्तदान अभियान चलाया। लेकिन यह बात उनके अन्य कम्युनिस्ट साथियों को पसंद नहीं आई। उन्होंने यह अभियान बंद करवाया। बाद में युद्ध समाप्त हुआ। ये सारे नेता जेल से छूटे। किन्तु अच्युतानन्दन की शिकायत पॉलित ब्यूरो में की गई। ज्योति बसु की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी बिठाई गई। समिति का निर्णय था – ‘भारतीय सेना के समर्थन में इस प्रकार का अभियान चलाना पार्टी विरोधी है। इसलिए सजा के तौर पर अच्युतानन्दन को पॉलित ब्यूरो से हटाया गया। यह अलग बात है, कि अनेक वर्षों के बाद, यही अच्युतानन्दन, केरल के मुख्यमंत्री बने।

इसी बीच अंतर्राष्ट्रीय समीकरण बदले। सोवियत रशिया की कम्युनिस्ट पार्टी और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच मतभेद और भी गहरे हुए। भारत के कम्युनिस्ट परेशान…. उनके दोनों गुरुओं में ही लड़ाई सदृश्य परिस्थिति बनी। फिर क्या था? विदेशी प्रेरणा और साधन संपत्ति पर पलने वाली इस कम्युनिस्ट पार्टी में भी फूट पड़ी और 1964 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ।

कम्युनिस्टों ने इस देश को कभी अपना माना ही नहीं ! इस देश की सेना को कभी अपना समझा ही नहीं…!

चीन का जब भी संदर्भ आता है, तो सच्चा कम्युनिस्ट एकदम विनम्र हो जाता है। चीन सभी कामरेडों का आदर्श है। एक महत्वपूर्ण पुस्तक है – ब्लैक बुक ऑन कम्युनिज्म। कुछ पुराने कम्युनिस्टों ने ही यह पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में, कम्युनिस्टों ने पूरे विश्व में कितना आतंक मचाया है, कितना दमन / शोषण किया है, कितनी हत्याएँ की हैं, इन सब का प्रमाण सहित विवरण है। इसमें दिये गए आकड़ों के अनुसार, कम्युनिस्टों ने पूरे विश्व में दस करोड़ से ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतारा है। इनमें से साढ़े छह करोड़ से भी ज्यादा हत्याएं, अकेले चीन ने की हैं। जब ऐसा चीन, भारतीय कम्युनिस्टों का आदर्श होगा, उनका गुरु होगा, तो यहां के कम्युनिस्टों का भी इस आतंक के तंत्र में माहिर होना स्वाभाविक है। माओ के नाम पर यहां के नक्सलियों ने जो खून की नदियां बहाई हैं, उसका आंकलन करना भी कठिन है। लेकिन राजनैतिक दल के रूप में काम करने वाले सीपीआई और सीपीआई (एम) के कार्यकर्ताओं ने भी बड़ी संख्या में उनके विरोधियों की हत्याएं की हैं। केरल के वर्तमान मुख्यमंत्री, पिनरई विजयन भी एक संघ स्वयंसेवक की हत्या में आरोपी थे, और छह महीने जेल जा चुके हैं।

ब्लैक बुक ऑन कम्युनिज्म

कम्युनिस्टों ने, अपने गुरु चीन के प्रति अपने प्रेम और आदर को अनेकों बार खुले आम स्वीकार किया है। अभी तीन वर्ष पहले, 2017 में जब चीन ‘डोकलाम’ में घुस गया था और भारतीय सेना उसे पीछे हटाने में लगी थी, तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘पीपल्स डेमोक्रेसी’ ने लिखा – ”Doklam belongs to Bhutan. Let Bhutan resolve the problem by itself. We need not interfere in that issue. And the root cause of the problem is not Doklam but Modi Sarkar…”

कोविड-19 के कारण निर्मित परिस्थिति से जब देश जूझ रहा था, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य स्वयंसेवी संगठन गरीबों को, मजदूरों को अन्न पहुचाने का अभियान चला रहे थे, कोरोना संक्रमितों की जांच में, जब संघ स्वयंसेवक अपनी जान जोखिम में डालकर मदद कर रहे थे, उस समय ये सर्वहारा की बात करने वाले कम्युनिस्ट कहाँ थे..? एक भी फोटो देखा आपने उनका ? उस समय, ये कम्युनिस्ट, विमर्श खड़ा करने का प्रयास कर रहे थे, कि प्रवासी मजदूरों का पलायन सरकार की चूक है इसलिए इन मजदूरों को सरकार के विरुद्ध मुखर होकर आंदोलन करना चाहिए।

अभी परसों, लद्दाख में चीन द्वारा की गई घुसपैठ और अपने जवानों से की मुठभेड़ पर सीपीआई के महासचिव, डी राजा कहते हैं, ‘दोनों पक्षों को समझदारी से काम लेना चाहिए’।

कम्युनिस्टों के लिए, भारत ‘उनका पक्ष’ नहीं है। कम्युनिस्टों के लिए, भारत उनका अपना देश भी नहीं है। उनकी सारी प्रेरणा रशिया और चीन रहे हैं। देश पर जब जब बाधाएँ आईं, संकट आए, आक्रमण हुए, तब तब भारत के कम्युनिस्टों ने अपने देश का साथ नहीं दिया है।

फिर, इन्हें कोई देशद्रोही कहे तो ?

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *