भारत को अपनी कठपुतली बनाना चाहती हैं साम्राज्यवादी शक्तियां

भारत को अपनी कठपुतली बनाना चाहती हैं साम्राज्यवादी शक्तियां

बलबीर पुंज

भारत को अपनी कठपुतली बनाना चाहती हैं साम्राज्यवादी शक्तियांभारत को अपनी कठपुतली बनाना चाहती हैं साम्राज्यवादी शक्तियां

गत दिनों संसद में अमेरिकी ‘धनपशु’ जॉर्ज सोरोस को लेकर सत्तापक्ष-विपक्ष में जमकर वाकयुद्ध हुआ। इस विवाद के केंद्र में महत्वपूर्ण प्रश्न है— भारत का भाग्य-विधाता कौन? भारत के जन या फिर वह विदेशी शक्तियां, जिनके अपने व्यवयासिक-सामरिक स्वार्थ हैं, जो देश की संस्कृति और जन-समस्याओं को औपनिवेशिक चश्मे से देखती हैं। सोरोस कौन है? वह उस अधिनायकवादी और साम्राज्यवादी विचारधारा का प्रतीक है, जो अपने वैश्विक दृष्टिकोण और व्यापारिक-रणनीतिक हितों के लिए वैश्विक भूगोल, इतिहास और संस्कृति को बदलने हेतु सतत कार्यरत है। पारंपरिक औपनिवेशवाद के दिन लद चुके हैं। अब न तो सैन्यबल से किसी समाज को नष्ट किया जाता है और न ही किसी देश पर कब्जा करके। परंतु इस साम्राज्यवादी मानसिकता का अंत नहीं हुआ है। इसने केवल अपना चोला बदला है। अब इसके हथियार सांस्कृतिक, सामाजिक, मजहबी और आर्थिकी पर गढ़े नैरेटिव हैं। विदेशी शक्तियां लक्षित देशों में बिकाऊ लोगों की एक फौज खड़ी करती हैं, जो इशारा मिलते ही उनके बनाए नैरेटिव पर अपने देश को बदलना-बिगाड़ना शुरू कर देती है। 

‘धनपशु’ सोरोस ने अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिए विश्व की कई इकाइयों में पूंजी लगाई है, जिनका वह आयुधों की तरह उपयोग करता है। 94 वर्षीय सोरोस अनेकों अमेरिकी मीडिया संस्थाओं का वित्तपोषक है। उसकी कुल संपत्ति 44 बिलियन डॉलर है, जिसका बड़ा हिस्सा उसने ‘मानवाधिकार’ और ‘लोकतंत्र’ के नाम पर दुनियाभर में निवेश किया है। इस उपक्रम का उद्देश्य, दुनिया को अपनी कल्पना के अनुरूप ढालना और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना है। यही कारण है कि सोरोस पर दुनिया के कई देशों की राजनीति और समाज को प्रभावित करने का आरोप है। वर्ष 1992 में इंग्लैंड की बैंकों को बर्बाद करके अकूत धन अर्जित करना, 1997 में थाईलैंड की करेंसी (बाहट) को गिराना, 2002 में फ्रांसीसी अदालत द्वारा अनैतिक-अनधिकृत व्यापार का दोषी ठहराना और कई देशों द्वारा सोरोस की संस्थाओं पर जुर्माना-प्रतिबंध लगाना— इसके कुछ उदाहरण हैं। जैसे रावण ने साधु भेष में और मारीच ने स्वर्ण मृग बनकर सीता माता का अपहरण किया था, ठीक वैसे ही ‘धनपशु’ सोरोस अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु कई मुखौटे— दार्शनिक और समाजसेवी, पहनकर सामने आता है। 

विदेशी शक्तियां किसी देश में कैसे काम करती हैं, भारत सहित कई राष्ट्र इसके भुक्तभोगी हैं। वर्ष 1963 में ब्रितानी निर्देशक डेविड लीन की फिल्म ‘लॉरेंस ऑफ अरेबिया’ आई थी, जो अंग्रेज सैन्याधिकारी थॉमस एडवर्ड लॉरेंस के जीवन पर आधारित है। लॉरेंस ने प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रितानी औपनिवेशिक हितों की रक्षा में इस्लामी तुर्क ओटोमन साम्राज्य, जिसका तत्कालीन शासक खलीफा था— उसे परास्त करने हेतु स्थानीय लोगों की सहायता से इस्लामी तुर्की को दो फाड़ कर दिया था। तब लॉरेंस ने वहां अरब बनकर ब्रितानी योजना को मूर्त रूप दिया और अपना काम निपटाकर वापस इंग्लैंड चलता बना। भारत में भी 1857 के बाद अपने शासन को शाश्वत बनाने के लिए अंग्रेजों ने सर सैयद अहमद खां को हिन्दू-मुस्लिम संबंध में सदियों पुराने अविश्वास को और बढ़ाने का काम सौंपा, तो हिन्दू-सिखों के नाखून-मांस जैसे रिश्ते में दरार डालने के लिए अपने ही एक अधिकारी मैक्स आर्थर मैकॉलीफ को पंजाब भेजा। तब ब्रितानी एजेंडे को पूरा करने हेतु सिख बना मैकॉलीफ भी अपना काम निपटाने के बाद लॉरेंस की तरह ब्रिटेन लौट गया। प्रख्यात राजनयिक नरेंद्र सिंह सरीला ने अपनी पुस्तक “विभाजन की असली कहानी” में खुलासा किया था कि ब्रितानियों ने मध्यपूर्ण एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए भारत का विभाजन करके इस्लामी पाकिस्तान को जन्म दिया था। इसके लिए अंग्रेजों ने ‘भारतीयों’ का ही उपयोग किया। अब वही काम ‘धनपशु’ सोरोस भी कर रहा है। 

इस्लामी सीरिया में 13 वर्षों से चल रहे गृहयुद्ध का परिणाम सबके सामने है। इसमें पांच लाख से अधिक सीरियाई लोग मारे गए, तो लगभग एक करोड़ विस्थापित हो गए। अधिकतर क्षेत्र मलबे के ढेर में परिवर्तित हो चुका है। सीरिया में यह सब विदेशी शक्तियों के आपसी हितों के टकराव के कारण हुआ, जिसमें पड़ोसी मुल्क तुर्किए के साथ ईरान, इजराइल और चीन मुख्य भूमिका में रहे। सीरियाई जनता ने इन बाहरी शक्तियों के लिए अपने देश को लड़ाई का अखाड़ा बनने दिया था। बांग्लादेश में अभी क्या हुआ? यह देश वर्ष 1971 तक इस्लामी पाकिस्तान का वह गरीब हिस्सा था, जो स्वतंत्रता मिलने के दशकों बाद एक आर्थिक शक्ति बनकर उभर रहा था। तब अमेरिकी ‘डीप-स्टेट’ ने अपने स्वार्थ के लिए वहां ऐसा खेल खेला कि बांग्लादेश दूसरा पाकिस्तान बनने की राह पर चल पड़ा। फरवरी 2022 से जारी यूक्रेन-रूस युद्ध, जिसमें अब तक चार लाख लोगों (अधिकांश सैनिक) की मौत का अनुमान है— वह भी पश्चिमी शक्तियों के निहित एजेंडे का परिणाम है। 

ऐसे में ‘धनपशु’ सोरोस का भारत के आंतरिक मामलों में बार-बार हस्तक्षेप करना और उसे मिल रहा प्रत्यक्ष-परोक्ष भारतीय समर्थन, हमें इतिहास के काले पन्नों की ओर ले जाता है। वर्ष 1707 में क्रूर आक्रांता औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत में मुगलिया सल्तनत क्षीण हो गई और मराठा परचम अटक से कटक तक लहरा रहा था। तब आज के उत्तरप्रदेश में जन्में सूफी प्रचारक शाह वलीउल्लाह देहलवी, जिसकी वैचारिक खुराक से तालिबान बना— उसने अफगान शासक अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए लंबी-चौड़ी चिट्ठी लिखी, क्योंकि वह ‘काफिर’ मराठाओं को पराजित करके भारत में पुन: इस्लामी राज स्थापित करना चाहता था। जब 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई, तब वलीउल्लाह द्वारा आमंत्रित अब्दाली को भारत में पश्तून रोहिल्लाओं, बलूचियों, शुजाउद्दौला आदि नवाबों के साथ स्थानीय मुस्लिमों का समर्थन मिला और उन्होंने मिलकर मराठाओं को पराजित कर दिया। इसने मराठाओं का बल घटा दिया, जो वर्ष 1803 के दिल्ली (पटपड़गंज) युद्ध में मराठाओं की ब्रितानियों के हाथों मिली पराजय का एक बड़ा कारण बना। 

यदि 18वीं शताब्दी में ‘अपनों’ ने अब्दाली को बुलाया नहीं होता या फिर मीर जाफर-जयचंद ने ‘अपनों’ को धोखा नहीं दिया होता, तो संभवत: भारत का इतिहास कुछ और होता। दुर्भाग्य से अब भी बहुत कुछ वैसा ही है। अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु आज भी कई ‘अपने’ भारतीय आत्मसम्मान और हितों को दांव पर लगाने की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। कई अवसरों पर कांग्रेस के शीर्ष नेता और वर्तमान नेता-विपक्ष राहुल गांधी इस बात पर असंतोष जता चुके हैं कि अमेरिका या कोई यूरोपीय देश अब भारत के आंतरिक मामलों पर कुछ क्यों नहीं बोलते। अगस्त 2020 में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन भी एक लेख के माध्यम से तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा मोदी सरकार को अपनी नीतियां लागू करने के लिए “फ्री-पास” देने पर आपत्ति जता चुके थे। ऐसे कई और उदाहरण हैं। 

ब्रिटिशराज से कई सदियों पहले तक भारत, चीन के साथ विश्व की बड़ी आर्थिक महाशक्ति था। पहले 200 वर्षों की ब्रितानी दासता, फिर अगले 50 वर्षों के लिए विदेशी वामपंथ प्रेरित समाजवादी विचारधारा ने भारत का दिवाला निकाल दिया। बेड़ियों से जकड़ी और मृत-समान भारतीय उद्यमशीलता-श्रमशक्ति को 1991 के आर्थिक सुधार पश्चात नया जीवन मिला और वर्ष 2014 के बाद उसे पंख लग गए। आज भारत दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की ओर अग्रसर है। वैश्विक राजनीति में भारत अग्रिम देशों की पंक्ति में है। भारतीय पासपोर्ट का मान-सम्मान बढ़ा है। कोई आश्चर्य नहीं कि कुंठित औपनिवेशिक शक्तियां भारत की विकास यात्रा को बेपटरी करना चाहती हैं। अफसोस है कि देश के एक भाग ने इतिहास से कुछ नहीं सीखा और वह शॉर्टकट से सत्ता-धन हथियाने हेतु वही पुरानी गलतियां दोहरा रहा है। 

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)

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