भारत को बौद्धिक दासता से मुक्त कराना आवश्यक है
भास्कर कीन्हेकर
स्वतंत्रता के पहले 200 वर्षों तक हमें अंग्रेजों की गुलामी के दौर से गुजरना पड़ा। यह गुलामी केवल राजनीतिक नहीं थी। अंग्रेजों ने तो योजना पूर्वक भारत को बौद्धिक दृष्टि से भी गुलाम बना दिया। इसमें कोई शक नहीं की भारतीय जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध एक लंबी लड़ाई लड़ी। 1947 के पहले जो निर्णायक लड़ाई महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़ी गई उस लड़ाई ने हमें अंग्रेजों की राजनीतिक गुलामी से मुक्त तो कर दिया, परंतु अंग्रेजीयत से मुक्त नहीं हो पाए।
स्वतंत्रता की पूरी लड़ाई का उद्देश्य एन केन प्रकारेण राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना था। इस पूरे आंदोलन को देखें तो समझ में आएगा कि आंदोलन जिन लोगों के हाथ में था, वे सभी या उनमें से अधिकांश विलायत से पढ़ कर आए थे। स्वाभाविक रूप से वे अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी ज्ञान और अंग्रेजी दर्शन से प्रभावित थे। इसीलिए पूरा आंदोलन केवल अंग्रेजों से राजनीतिक गुलामी की मुक्ति के लिए चला। परंतु अंग्रेजों ने जिस प्रकार के विमर्श का प्रयोग करके हिंदुस्तान पर औपनिवेशिक बौद्धिक गुलामी स्थापित की, उसके विरुद्ध लड़ाई का कोई एजेंडा या कोई इच्छा शक्ति पूरे आंदोलन में दिखाई नहीं दी।
यह भी कह सकते हैं की आंदोलनकर्ताओं ने भी अंग्रेजों के द्वारा स्थापित औपनिवेशिक बौद्धिक गुलामी को वास्तविकता मान कर स्वीकार कर लिया था।
स्वतंत्रता के बाद सत्तर साल से ऊपर समय तक जिन लोगों के हाथ में सत्ता थी, उन्होंने भी भारतीय स्वाभिमान की स्थापना और अंग्रेजी बौद्धिकता से मुक्ति का कोई प्रयास नहीं किया। यह संभव भी नहीं था। क्योंकि इस पूरे समय में जो लोग शिक्षा, साहित्य, मीडिया और इतिहास के संस्थानों पर कब्जा कर बैठे थे, वे लोग चाहते भी नहीं थे की इस बौद्धिक गुलामी से मुक्ति मिले। क्योंकि यह अंततः इन लोगों के “भारत तेरे टुकड़े हों हजार” के निहित एजेंडे को आगे ले जाने वालों की दूरगामी सफलता का एक महत्वपूर्ण हथियार था।
भारतीय स्वाभिमान के एजेंडे को कुछ लोगों ने चलाने का प्रयास किया तो उन्हें पुरातन पंथी या सांप्रदायिक जैसे विशेषणों के साथ हाशिए में डाल दिया गया, बौद्धिक विमर्श की मुख्य धारा से बाहर कर दिया गया। स्वामी विवेकानंद हों या महर्षि अरविंद, बंकिम चंद्र, आचार्य चतुरसेन, गुरुदत्त, वीर सावरकर, तिलक हों या स्वामी दयानंद। ये लोग कभी बौद्धिक मुख्य धारा के विमर्श का विषय नहीं बन पाए।
यह भी एक ध्यान देने योग्य बात है कि महात्मा गांधी स्वयं बहुत से मामलों में इस भारतीय स्वाभिमान के पक्षधर थे। महात्मा गांधी के इस एजेंडे को कांग्रेस के ही वामपंथी नेताओं ने पीछे कर दिया। दूसरी बात और, महात्मा गांधी अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के कारण भी इस भारतीय स्वाभिमान की बात को उतना आगे नहीं कर पाए। महात्मा गांधी के साथ यही हुआ की माया मिली न राम। वे अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के बावजूद न तो देश के विभाजन को रोक पाए, न ही भारतीय संस्कृति इतिहास, भारतीय शिक्षा, देशी अर्थव्यवस्था जो कि उनका राजनीतिक एजेंडा भी था को, खुल कर रख पाए।
अंग्रेज भारतीय इतिहास और संस्कृति को जिस बौद्धिक षड्यंत्र के द्वारा औपनिवेशिक गुलामी की ओर लेकर गए, उसी षड्यंत्र को वामपंथी बौद्धिक आतंकवाद के द्वारा आगे बढ़ाते रहे है।
भारतीय स्वाभिमान के एजेंडे को चलाने वालों को एक समय बौद्धिक क्षेत्र की मुख्यधारा से योजना पूर्वक दूर करने की कवायद सात दशक तक चलती रही। परंतु अब परिस्थितियों में काफी बदलाव आया है। राष्ट्रीय बौद्धिक विमर्श को चलाने वालों की एक बड़ी फौज इस देश में तैयार हो गई है। चाहे वह मीडिया हो, सोशल मीडिया हो, साहित्य हो, सिनेमा हो, हर जगह अब देश हित में सोचने वाले विचारकों ने अपनी मजबूत जगह बना ली है। औपनिवेशिक बौद्धिक दासता के विरुद्ध जनमानस भी बहुत तेजी से इन विचारकों के साथ खड़ा हो रहा है।
यह बात सच है कि पूरा समाज अध्ययनशील नहीं हो सकता। इसीलिए पाश्चात्य बौद्धिक दासता से मुक्ति दिलाने वाले इस विमर्श को संक्षेप में किंतु तर्कसंगत ढंग से सामान्य जन तक ले जाने की आवश्यकता है।
(लेखक से.नि. सहायक मंडल प्रबंधक, जी बी निगम व सामाजिक कार्यकर्ता हैं)